कश्मीर, कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म Kashmir, When will Peace Return

इस साल के शुरू में मैंने एक ख़ुशनुमा सप्ताह केरल में गुज़ारा था। कुछ ख़रीदारी के लिए जब एक दुकान में गया तो कश्मीरी दुकानदार ने मेरा स्वागत यह कह कर किया, “बहुत ख़ुशी है कि आप हमारी आज़ादी की स्टरगल(संघर्ष) का समर्थन कर रहे हो”। दंग, मैं बाहर आ गया। कहाँ कश्मीर और कहाँ  दूर कोच्चि। पर यहाँ भी यह कश्मीरी अपनी कथित आज़ादी का रोना रो रहा था। ऐसा अनुभव देश में सब ने किया होगा जिनका किसी न किसी कश्मीरी से पाला पड़ा हो। केरल वाला प्रसंग मुझे फिर याद आया जब केन्द्र द्वारा धारा 370 तथा 35ऐ हटाए जाने तथा प्रदेश को दो केन्द्रीय शासित क्षेत्रों में बदलने पर उमर अब्दुल्ला ने यह शिकायत की, “जम्मू कश्मीर का विभाजन तथा उसका स्तर निचला करना प्रदेश की अवमानना करना है…इसकी क्या आवश्यकता है इसके सिवाय कि प्रदेश के लोगों को सज़ा देना और उनका अपमान करना था”? लेकिन ‘ह्यूमिलेट’ जो अंग्रेज़ी का शब्द उमर अब्दुल्ला ने इस्तेमाल किया, वह कौन किस को कर रहा है? कौन देश को ब्लैकमेल करता रहा है यहाँ तक कि देश के दूसरे छोर केरल में बैठा कश्मीरी भी आज़ादी की रट लगा रहा है?

जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाना तथा दूसरे जो प्रशासनिक क़दम उठाए गए है उनका देश में व्यापक स्वागत हुआ है। नरेन्द्र मोदी सरकार की यह बड़ी कामयाबी है कि उन्होंने वह कर दिखाया जो पिछली सरकारें सोचती रहीं पर हिम्मत नही जुटा पाईं। जिस तरह कश्मीर में हिंसा का ग्राफ़ गिरा है उससे भी पता चलता है कि सरकार का क़दम कितना सफल रहा। इस साल के सात महीनों में वहाँ आतंकवाद की घटनाओं में 40 प्रतिशत की कमी आई है। पत्थरबाज़ी की जो घटना 2018  में 500 थीं ,2019 में 400 थीं, वह 2020 में कम हो कर 100 रह गईं हैं। सुरक्षा बलों की गोली चलाने में कमी आई है और पैलट गन का इस्तेमाल रूक गया है। आम  लोग घायल नही हो रहे। युवा अपने अपने कामकाज में लग गए हैं। आनंतनाग के एसएसपी संदीप चौधरी ने लिखा है, “धारा 370 हटाए जाने के बाद आतंकवाद के विरूद्ध सफलता केवल मारे गए आतंकियों की संख्या ही नही बताती। इस सफलता का सबसे उत्साहवर्धक पक्ष…पिछले अगस्त 5 के बाद आतंकवादी भर्ती में प्रत्यक्ष गिरावट है”।

कोई नही कहता कि केन्द्र के क़दम से कश्मीर की समस्या हल हो गई है। अभी चुनाव होने है और सामान्य हालात क़ायम करने है। पाकिस्तान की दख़ल जारी है। डा. कर्णसिंह ने एक बार कश्मीर समस्या बताने के लिए पुराना गाना गुनगुनाया था, ‘अजीब दास्तां है यह, कहां  शुरू कहां ख़त्म !’ हम समस्या का ख़ात्मा नही देख रहे पर केन्द्र के क़दमों से कश्मीर में आतंकवाद और अलगाववाद की हवा ज़रूर निकल गई है। धारा 370 ने वह माहौल बना दिया था जिसने  मिलिटैंसी का पोषण किया। अब कोई सैयद अली शाह गिलानी या मीरवाइज़  उमर फ़ारूक़ हड़ताल का कैलैंडर जारी नही करता। न ही बंद की कॉल दी जाती है। गिलानी ने तो हुर्रियत कांफरेंस से नाता तोड़ लिया है। अपनी दुकान बंद कर दी। जुमे की नमाज़ के बाद सुरक्षा बलों पर पत्थराव युवाओं का शौक़ बन गया था अब ऐसा नही होता। शिकायत की जा रही है कि पर्यटन और हैंडी क्रराफ्ट उद्योग तबाह हो गए। शिकारेवाले फल सब्ज़ियाँ बेच रहें है। अनुमान है कि 40000 करोड़ रूपए का नुक़सान हुआ है। 2018 में 360000 टूरिस्ट आए थे जो 2019 में घट कर 43000 रह गए।

इसके लिए वह ज़िम्मेवार है जिन्होंने वहाँ आतंकवाद खड़ा किया और जिन्होंने समर्थन दिया। उद्योग और विशेष तौर पर पर्यटन, वहाँ फलते फूलते हैं जहाँ शान्ति और चैन हो, वहाँ नही जहाँ यह नही मालूम की कब गोली चल जाए या  कब हड़ताल हो जाए। कश्मीरी उस थाली को लात मारते रहे जिसमें वह खाते हैं पर दोष दूसरों पर मढ़ते रहे। कश्मीरी नेता शिकायत करतें हैं कि उन पर पाबन्दियाँ लगाई गईं हैं, महबूबा मुफ़्ती अभी भी नज़रबंद हैं। लेकिन इस हालात के लिए भी कौन ज़िम्मेवार है? ए एस दुलत जो ‘रा’ के प्रमुख रहें हैं ने अपनी किताब ‘कश्मीर द वाजपेयी ईयर्स’ में अप्रैल 2003 का यह प्रसंग बताया है, “श्रीनगर की एक सभा में मंच पर प्रधानमंत्री वाजपेयी तथा मुख्यमंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सैयद बैठे थे। महबूबा मुफ़्ती भी उपर बैठना चाहती थीं लेकिन इजाज़त नही मिली…वाजपेयी उन्हें उपर नही चाहते थे। दिल्ली में उनके प्रति बहुत शंकाएँ थी। यह शंका भी थी कि महबूबा के हिज़बुल मुजाहिद्दीन के साथ सम्बन्ध हैं”। चाहे बाद में महबूबा भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बन गईं पर उनके रंग ढंग बदले नही। हवा में मुट्ठी लहरा कर धमकी वह देती रहीं हैं। ऐसे कश्मीरी नेताओं की देश को ब्लैकमेल करने की क्षमता अब ख़त्म हो गई है। जो नेता कश्मीर में कुछ और दिल्ली में कुछ और कहते रहे उनके दिन भी लद गए हैं।

धारा 370 ख़त्म होने का देश में इतना स्वागत क्यों हुआ है?  इस धारा के कारण कश्मीर का बड़ा हिस्सा समझ बैठा कि वह अलग हैं और देश की भावना और हित की चिन्ता करने की उन्हें कोई ज़रूरत नहीं। इसीलिए वहाँ पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते रहे। नार्दन आर्मी के कमांडर रहे लै.जनरल हुड्डा ने सही लिखा है, “बाक़ी भारत के लोगों को यह अमान्य है कि वादी की जनसंख्या का एक हिस्सा वह मुद्दे उठाता रहता है जो देश की एकता और अखंडता को प्रभावित करतें हैं”। पर वरिष्ठ अधिकारी और मुख्य चुनाव आयुक्त रहे वजाहत हबीबुल्ला ने लिखा है, “कशमीरियों का भरोसा जीतने के लिए कशमीरियों पर भरोसा करो”। लेकिन इस भरोसे को कमाने के लिए कशमीरियो ने किया क्या है? उलटा उन्होंने तो बाक़ी देशवासियों में अपने प्रति अविश्वास और शंका भरने में कोई कसर नही छोड़ी। धारा 370 की बदौलत उन्होंने ख़ुद को मुख्यधारा का हिस्सा समझना बंद कर दिया था। इसी भावना ने यह भ्रम पैदा कर दिया कि उन्हें ‘आजादी’ मिल सकती है। यह भी भ्रम पैदा कर लिया कि उनके अलग दर्जे को हाथ लगाने कि हिम्मत कोई नही करेगा क्योंकि इसके भयावह परिणाम होंगे। जिस तरह नरेन्द्र मोदी की सरकार ने बालाकोट पर हमला कर पाकिस्तान की ग़लतफ़हमी ख़त्म कर दी कि उनके परमाणु कार्यक्रम के कारण भारत हमला नही करेगा उसी तरह धारा 370 हटा कर बिगड़े हुए कशमीरियों की हक़ीक़त से मुलाक़ात करवा दी गई।

इस देश विरोधी माहौल के कारण ही ऐसी परिस्थिति बना दी गई थीं कि चार लाख कश्मीरी पंडितों को वहाँ से जान और इज़्ज़त बचा कर रातोंरात भागना पड़ा। आज फारूख अब्दुल्ला उस घटनाक्रम की जाँच की माँग कर रहे हैं जबकि वह ख़ुद उस समय मुख्यमंत्री थे और सबसे बड़ी ज़िम्मेवारी उनकी बनती थी।  गवर्नर जगमोहन के समर्थक भी उनका यह कह कर बचाव करतें हैं कि वह क्या कर सकते थे और उन्होंने तो कश्मीरी पंडितों को बचाया था। वह क्या कर सकते थे? वह तो गवर्नर थे सेना को बुला कर गोली चलाने का आदेश क्यों नही दिया? अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए वह ख़ुद सड़क पर क्यों नही उतरे? इतिहास उन के प्रति बेरहम रहेगा, ऐसा मेरा मानना है। उस घटनाक्रम के बारे पत्रकार आँचल मैगज़ीन लिखतीं हैं,“…मस्जिदों से यह घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित या तो निकल जाओ या धर्म बदल लो या मारे जाओ…पुरूष अपनी महिलाओं को छोड़ कर जा सकतें हैं”। आँचल मैगज़ीन ने बताया है कि इज़्ज़त बचाने के लिए उनकी रिश्तेदार महिलाओं ने नंगी बिजली की तारें पास रख ली थीं। 1989 में वहाँ 77000 कश्मीरी पंडित परिवार रहते थे जो आज मुश्किल से 700 रह गए हैं। जो वापिस आना भी चाहतें हैं उन्हें स्पष्ट कर दिया गया है कि उनका स्वागत नही है।

कश्मीरी पंडितों की नस्ली सफ़ाई का देश के मानस पर गहरा असर पड़ा है। 1962 के बाद यह दूसरा बड़ा धक्का था। कश्मीरी मुसलमानों और उनके नेताओं ने इस पलायन को रोकने का कोई प्रयास नही किया उलटा उनके घरों को बुरी तरह लूटा गया। कई घर जला दिए गए। पत्रकार राहुल पंडिता लिखतें हैं, “हमारे पास जीवन का एक तरीक़ा था… यह सब हमारी सामूहिक समृति से लुप्त हो रहे हैं। निर्वासन मे हम प्रतीकात्मक उत्सवों की तस्वीरें इंस्टा ग्राम पर डालते है”। कितनी करूणा कितनी बेबसी इस पत्रकार के कथन में छिपी है जो अपनी समृद्ध संस्कृति को लुप्त होते देख रहा है। ‘निर्वासन’ कितना पीड़ादायक शब्द है !कश्मीरी पंडितों की त्रासदी तो यह है कि वह अपने ही देश में निर्वासन झेलने को मजबूर कर दिए गए। पूरी घाटी में आज एक भी हिन्दू सांसद या विधायक नही। एक मात्र सरपंच अजय पंडिता को गोली से उड़ा दिया गया।

जब कोई जवान वहाँ शहीद होता तो देश भर में शोक की लहर फैल जाती है। पुलवामा में शहीद हुए जवान 16 प्रदेश से थे। जब शहीदों के शव घर पहुँचे तो देश भर में कोहराम मच गया। इस से उत्पन्न आक्रोश कोकश्मीरी अनदेखा करते रहे। धारा 370 के कारण दूरियां बढ़ी,कशमीरियत दफ़ना दी गई और प्रदेश निज़ाम-ए- मुस्तखा की तरह बढ़ने लगा। जो आन्दोलन आज़ादी से शुरू हुआ था वह जिहाद तक  पहुँच रहा है। तब नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने ज़बरदस्त ब्रेक लगा दी। दशकों से देश जो ‘ह्यूमिलेशन’ सहता आ रहा था उसका यह माक़ूल जवाब था। लेकिन इस से समस्या ख़त्म नही हुई। अगर इस दुखांत को ख़त्म करना है तो कश्मीरियों को भी समझना होगा कि उन्होंने बहुत ज़्यादतियाँ की है। उन्हें बदलना होगा, शान्ति और सामान्यता का रास्ता उन्हें भी तलाशना है। वह सदा देश की बिगड़ी, बाग़ी और अराजकतावादी औलाद बन कर नही रह सकते।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.