यह अच्छी बात है कि सुशांत सिंह राजपूत की अप्राकृतिक मौत की जाँच सीबीआई को सौंप दी गई है। आशा है कि एक दिन इस मामले को भी समापन मिलेगा। पर सीबीआई का ट्रैक रिकार्ड भी बहुत अच्छा नही है जो जिया खान आत्महत्या और आरुषि हत्याकांड की जाँच से पता चलता है जिन्हें सीबीआई हल नही कर सकी। मीडिया की भी आलोचना हुई थी कि तलवार दम्पति को दोषी ठहराने के लिए इन्होंने अपने अपने स्टूडियो में मुक़द्दमा चलाया हुआ था। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बारे भी कुछ चैनल जिन्हें दोषी मानते है,के ख़िलाफ़ ‘मीडिया ट्रायल’ अर्थात मीडिया द्वारा मुक़द्दमा चलाए हुए है। वह ख़ुद ही गवाह, वक़ील और जज सब बने हुए हैं। अभी जाँच शुरू हुई है पर जिसे पुलिस ने आत्महत्या का मामला माना है उसे मर्डर का मामला कहा जा रहा है। रिया चक्रवर्ती को भी अभी से एक प्रकार की विष कन्या क़रार दिया गया है जिस का अटकलों के सिवाय कोई सबूत नहीं।
इस वक़्त देश तीन बड़ी चुनौतियों से जूझ रहा है। अर्थ व्यवस्था गिर रही है, चीन हमारी ज़मीन से हटने को तैयार नही और कोरोना वायरस का आँकड़ा 30 लाख के पार हो चुका है। भारत में अमरीका और ब्राज़ील से अधिक तेज़ी से मरीज़ बढ़ रहें हैं। इस के अतिरिक्त देश के बढ़े हिस्से में बाढ़ है। लेकिन यह सब पीछे पड़ गए और चैनलों पर सुशांत का मामला छाया हुआ है। अब अवश्य कांग्रेस की ट्रैजडी-कामेडी छाई हुई है। एक चैनल ने सुशांत के कुक से इंटरव्यू के बाद बताया कि वह चरस भरे सिगरेट पीता था और जब उसका दरवाज़ा खोला गया तो सिगरेट वाला डिब्बा ख़ाली था। क्या मौत में भी सुशांत को चैन नही मिलेगी? एक चैनल ने ‘बड़ा ख़ुलासा’ किया कि पड़ोसन ने बताया कि 13 जून की रात को सुशांत के कमरे की लाइट बंद थी जबकि वह सुबह 4 बजे तक जलती रहती थी। सवाल उठता है कि इस पड़ोसन को और कोई काम नही था,वह सुबह 4 बजे तक सुशांत के कमरे की बत्ती देखती रहती थी? करम चन्द जासूस बन मैं तो यह सुझाव दूँगा कि इस महिला से भी पूछताछ होनी चाहिए कि वह सुशांत के कमरे में क्यों झांकती थी, क्या दाल में कुछ काला तो नही !
सीबीआई की जाँच की घोषणा के बाद बिहार ने इसे ‘बिहारी गौरव’ की जीत बताया लेकिन यह वही बिहार सरकार है जिसने लॉकडाउन के बाद कोटा से अपने छात्रों को बुलाने से इंकार कर दिया था और मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने अपने प्रवासियों से कहा था कि वह जहाँ हैं वहीं रहें घर लौटने की ज़रूरत नहीं।और जिसकी राजधानी पटना देश का सबसे गंदा शहर क़रार दिया जा चुका है। पर चुनाव सर पर हैं और बिहार सरकार की कोई उपलब्धि नही इस लिए सुशांत के मामले का द्वारा ध्यान हटाने की कोशिश हो रही है। कड़वी सच्चाई है कि बिहार वैकल्पिक राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए तड़प रहा है, जो उसे इस चुनाव में मिलती नज़र नही आती। वहाँ के डीजीपी ने रिया चक्रवर्ती की मुख्यमंत्री पर टिप्पणी पर कहा कि उसकी औक़ात क्या है? ‘औकात’?यह तो सामंती मानसिकता दर्शाता है। भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने सीबीआई की जाँच की घोषणा के बाद कटाक्ष किया, “मुम्बई में सरकार रो ‘रिया’ है। जल्द सुनेंगे महाराष्ट्र की सरकार जा ‘रिया’ है”। सुशांत की असमय मौत का महाराष्ट्र का सरकार के आने जाने से क्या सम्बन्ध ? इस टिप्पणी में सहानुभूति का कहीं एक अंश भी झलकता है? केवल कोशिश है कि कोरोना के इस संकट के बीच महाराष्ट्र सरकार को किसी तरह अस्थिर किया जाए।
ऐसा मामला जब राजनीतिक बन जाता है तो पहला हादसा सच्चाई होती है। अफ़सोस है कि कई चैनल अब भटक चुके है और अभिव्यक्ति की आज़ादी का आड़ में राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहें हैं। कई चैनलों परऐसी नकारात्मक बहस होती है कि समाज का अहित हो रहा। गंदगी ढूँढी और परोसी जा रही है। समाज पहले से अधिक बँटा हुआ है और बर्दाश्त कम हो रही है।दर्शकों पर मामला छोड़ने की जगह एंकर अपनी राय थोपने की कोशिश करतें है। स्वस्थ बहस की गुंजाइश नही रहीकेवल शोर शराबा रह गया है। एक चैनल तो पहले आग की लपटें दिखाता थाअब यह तो बंद हो गया पर बहस का स्तर ऐसा कर दिया गया है कि लोग भड़क सकतें हैं। एकऐसी ही तीखी बहस के बाद कांग्रेस के प्रवक्ता राजीव त्यागी की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। पत्नी को उनके आख़िरी शब्द थे कि ‘उन्होंने मुझे मार डाला’। बहस के दौरान उन्हें ‘ग़द्दार’ कहा गया, ‘जय चन्द’ कहा गया। बहस बैंगलुरु के दंगों को लेकर हो रही थी पर आग चैनल पर धधक रही थी। अपशब्दों का इस्तेमाल, धमकियाँ देना, उत्तेजित करना आम हो गया है। ऐसी गिरावट तो पाकिस्तानी चैनलों पर भी नही दिखाई देती। तृणमूल कांग्रेस के नेता डैरिक ओ ब्रायन ने सही शिकायत की है कि कई न्यूज़ चैनल अब ‘हेट चैनल’ अर्थात नफ़रत फैलाने वाला चैनल बन चुकें हैं। यही प्रवृति सोशल मीडिया में भी देखी जा रही है जहाँ फेक न्यूज़ आम है और नई नई गालियाँ खोदी जा रहीं हैं। किसी को अर्बन नक्सलकहा जाता है तो किसी को भक्त। ‘अर्बन नक्सल’ है क्या चीज़? और ‘भक्त’ तो बहुत सम्मानित संज्ञा है पर आजकल यह उपहास का विषय बना दी गई है।
बेंगलूरू में फ़ेसबुक पर की गई एक पोस्ट के बाद व्यापक हिंसा हुई, चार लोग मारे गएऔर 300 के क़रीब हिरासत में लिए गए। कांग्रेस के एक विधायक का घर जला दिया गया। छ: महीने पहले ऐसा ही दिल्ली मे हुआ था। आभास मिलता है कि कुछ लोग दंगा करने के लिए तैयार बैठें रहतें हैं नही तो ऐसे व्यापक स्तर पर आगज़नी नही हो सकती। ऐसा पागलपन हमारे लोगों पर क्यों सवार हो जाता है? अफ़सोस हैं कि समाज में दरारें बढ़ रहीं हैं और जिनकी ज़िम्मेवारी ऐसी हवाओं को रोकना है वह यह नही कर रहे। कोविड का टीका तो मिल जाएगा पर हमारा समाज में नफ़रत का ज़हर जो फैल रहा है उसका टीका कौन कहाँ से लाएगा ? यहाँ तो और इंफैक्शन देने की कोशिश हो रही है। कथित ‘सडीशन’ अर्थात राजद्रोह के जितने मामले अब दर्ज किए जा रहें वह पहले नही देखे गए। आप किसी बड़े नेता की आलोचना करोगे तो आप पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है। किसी को ‘एंटी नेशनल’ क़रार देना आम बनता जा रहा है।
आमीर खान हाल ही में शूटिंग के लिए तुर्की में थें जहाँ उन्होंने राष्ट्रपति इरदुगान की पत्नि से मुलाक़ात की। इसे लेकर भी तूफ़ान खड़ा किया गया क्योंकि तुर्की का रवैया भारत विरोधी है। हम इतने असुरक्षित क्यों हैं कि शिष्टाचार के लिए की गई एक मुलाक़ात से परेशान हो उठे? अगर आमीर खान से इतनी तकलीफ़ है तो उसकी फ़िल्मे देखना बंद कर दो, संदेश मिल जाएगा। मैं कई वर्षों से उसकी फ़िल्में नही देख रहा क्योंकि कई विचार पसन्द नही है। मेरे देखने या न देखने से अंतर नही पड़ता पर यह मेरा अपना प्रोटैस्ट है पर मुझे तनिक फ़र्क़ नही पड़ता अगर वह तुर्की या चीन या पाकिस्तान के किसी नेता से मिलतें हैं। यह आज़ाद देश है।
उधर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि अब वहां नौकरियाँ केवल स्थानीय लोगों को ही दी जाएँगी। आगे दो दर्जन उपचुनाव है इसलिए चौहान साहिब ने यह लॉलीपॉप लटका दिया है। यह क़दम संविधान के ख़िलाफ़ है जो धर्म, जाति, वर्ण,भाषा, जन्म स्थान के किसी भेदभाव को रोकता है। उमर अब्दुल्ला ने सही शिकायत की है कि जम्मू कश्मीर और लद्दाख में सरकारी नौकरियाँ देश के सभी युवाओं के लिए खोली जा रही है लेकिन मध्य प्रदेश मे सरकारी नौकरियाँ केवल स्थानीय युवाओं के लिए होंगी। भाजपा तो ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का नारा देती रही है पर उनके ही मुख्यमंत्री अपने प्रदेश को बाक़ी भारत के लिए बंद कर रहें हैं। कौन राष्ट्रीय हित के ख़िलाफ़ जा रहा है?
अफ़सोस है कि आज़ादी के सात दशक के बाद हम उलटी दिशा में चल रहें हैं। इंसान की सबसे बुरी भावनाओं को बेलगाम किया जा रहा है। वोट की ख़ातिर नेता और टीआरपी की ख़ातिर चैनल बहक रहें है। मीडिया की तर्ज़ पर सोशल मीडिया भी ज़हरीला होता जारहा है। इस बहाव को रोकने की ज़रूरत है। इस समय तो टीवी बहस मुर्ग़ों की भिड़ंत बनती जा रही है और मीडिया के एक सैक्शन की छवि ‘जो रोज़ क़ब्र खोद कर मुर्दा तलाश करतें हैं’,की बनती जा रही है। आत्म निरीक्षण का सर्वथा अभाव है,इसलिए मेरा ऐसे मीडिया से कहना है,
हर रोज़ मुझे रूबरू करते हो जिसे आप
वो आइना ख़ुद को भी कभी दिखाओ !
जो क़ब्र खोद कर मुर्दा तलाशतें हैं Stop This Media Madness,