
चीन में उत्पन्न कोरोना वायरस से यहाँ भयावह स्थिति बन रही है। मरीज़ों का संख्या 45 लाख के नज़दीक पहुँच गई है। दैनिक मरीज़ों की संख्या 90000 के आसपास है और शीघ्र हम लखपति बनने वाले हैं।दुनिया में हर तीसरा नया मरीज़ भारतीय है। हम ब्राज़ील से आगे निकल चुकें हैं और अब केवल अमेरिका आगे रह गया है पर बड़ी जल्दी भारत महान उसे भी पछाड़ संक्रमण के शिखिर पर होगा। यह शिखिर क्या होगा और कब होगा कोई नही कह सकता। चाहे सरकार प्रतिवाद करती है पर नज़र आता है कि यहाँ कम्यूनिटी स्परैड है अर्थात यह लोगों में फैल रहा है क्योंकि यह अब हर जगह से निकल रहा है। बचाव यह है कि शायद हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता के कारण उतना जानी नुक़सान नही हो रहा। चिन्ता यह भी है कि नई लहर क़स्बों, तथा ग्रामीण इलाक़ों से उठ रही है जहाँ पहले ही स्वास्थ्य सेवाएँ कमज़ोर है।अज्ञानता के कारण कई गाँवों में मैडिकल टीमों को घुसने नही दिया जा रहा, जैसा पंजाब में हो रहा है।
कई शहरों से दूसरी लहर का भी समाचार है। दिल्ली में भी कम हो कर वायरस फिर बढ़ने लगा है। क्योंकि सरकार लॉकडाउन खोलती जा रही है इसलिए बहुत लोग स्वछन्द और बेफ़िक्रे हो गए हैं। मास्क डालने और समाजिक दूरी का पालन नही कर रहें। विशेष तौर पर युवाओं का एक वर्ग समझने लगा है कि डरने की कोई ज़रूरत नही। बाज़ारों में भी समाजिक दूरी नही रखी जा रहीं परिणाम है कि संक्रमण फैल रहा है। एक परिवार को जानता हूँ जहाँ बच्चों की सोशलाइजिंग के कारण वह तो ख़ुद फँसे पर माँ बाप अस्पताल पहुँच गए। वाशिंगटन के एक संस्थान की रिसर्च के अनुसार भारत में यह महामारी ख़त्म होना बहुत दूर की बात है क्योंकि जनसंख्या का बड़ा हिस्सा लापरवाह है। सरकार भी हर घर के आगे सिपाही नही बैठा सकती।इस संस्थान के अनुसार भारत में मास्क डालने और समाजिक दूरी रखने से 1 दिसम्बर तक दो लाख मौतें टाली जा सकती हैं लेकिन हमारे लोग बेपरवाह और अनुशासनहीन है। रोज़ अपने घर के आगे से सैर पार्टी निकलते देखता हूँ। 6-8 नौजवान है जिनकी आयु 40 वर्ष के लगभग होगी। एक ने भी मास्क नही डाला होता। वह यह क्यों नही समझते कि वह अपने को ही नही घरवालों को भी खतरें में डाल रहें हैं ? दुनिया के कई और देशों में भी युवा बेपरवाह हो गए है। समारोह और पार्टियां शुरू हो चुकीं है। पंजाब के एक चौथाई विधायक संक्रमित हो चुके हैं। राजनीतिज्ञों की भी यही समस्या है वह न मास्क डालतें हैं न समाजिक दूरी रख सकतें हैं इसीलिए बड़ी संख्या में संक्रमित हो रहें हैं।
जब पहला लॉकडाउन हुआ तो संक्रमित की संख्या 500 थी अब क्योंकि अर्थ व्यवस्था को गति देने के लिए सरकार पाबन्दियाँ हटा रही है इसलिए संख्या छलाँगें लगा रही है। सबसे बुरी हालत महाराष्ट्र की है जहाँ मुम्बई, पुणे, ठाने, नासिक जैसे क्षेत्रों में बीमारी बेलगाम हो रही है। विशेषज्ञ प्रो शमिका रवि के अनुसार महाराष्ट्र के आर्थिक महत्व को देखते हुए यह जरूरी है कि वहाँ इसे नियंत्रण में लाया जाए नही तो यह बाक़ी देश में फैलता रहेगा। प्रो रवि के अनुसार कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई मे महाराष्ट्र को केन्द्र बनाना होगा पर वहाँ तो लड़ाई सुशांत सिंह राजपूत की मौत से सम्बन्धित मामले को लेकर हो रही है। अब कंगना रनोट ने बीच छलाँग लगा दी है। मीडिया का एक वर्ग भी मर्यादा की हर सीमा को लाँघ रहा है।
कोरोना को प्रदेशों के हवाले कर केन्द्र एक तरफ़ बैठ गया लगता है। प्रधानमंत्री भी वह सक्रियता नही दिखा रहे जो पहले दिखाते थे। लोगों के साथ इस मामले पर वह संवाद नही जो पहले था। सरकार के सब पूर्वानुमान ग़लत निकल रहें है शायद इसलिए भी कि ऐसी महामारी से पहली बार सामना हुआ है। आगे त्यौहार का सीज़न है हालात बेक़ाबू हो सकते क्योंकि हमारे लोग अनुशासन में नही रह सकते। हम पर ‘कोई गल्ल नही’ संस्कृति हावी है। मैसाचुटैस इंस्टीट्यूट आफ टैकनालिजी के अध्ययन के अनुसार अगर कोई इलाज या वैक्सीन नही मिलती तो 2021 तक भारत में प्रतिदिन लगभग 3 लाख मामले पहुँच सकतें हैं।
सरकार तेज़ी से अर्थ व्यवस्था को खोल रही है। सही कहना है कि ‘लाइफ़’ और ‘लाइवलीहुड’ दोनों महत्वपूर्ण है अर्थात ज़िन्दगी भी चाहिए और कमाई भी चाहिए। सरकार सिकुंड़ते रोज़गार और अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण बहुत चिन्तित है। सरकार यहाँ जकड़ी हुई है, कुछ अपनी ग़लतियों के कारण। जबसे नोटबंदी की गई अर्थव्यवस्था सम्भल नही रही। जीएसटी को ‘नई आज़ादी’प्रस्तुत किया गया था पर अब यह केन्द्र तथा प्रदेशों के बीच तनाव और टकराव का कारण बन रही है। जो वायदा तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेतली ने प्रदेशों से किया था केन्द्र उसका पालन नही कर रहा। उपर से कोरोना ने कमर तोड़ दी है। चीन को छोड़ कर हर बड़ी अर्थव्यवस्था में गिरावट है लेकिन सबसे बुरी हालत हमारी है। वित्त मंत्री ने गिरावट को ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’ अर्थात ईश्वर का कृत्य कह दिया है पर इससे वह अपनी ज़िम्मेवारी से मुक्त नही होती।
लोगों का विश्वास डोल गया है कि आगे पता नही क्या हैइसीलिए माँग नही बढ़ रही। निजी खपत में 27 प्रतिशत की भारी गिरावट है। सरकार के नाटकीय निर्णयों से अविश्वास का वातावरण है। लोगों में यह विश्वास पैदा करने की ज़रूरत है कि भविष्य मेँ चार घंटे की समय सीमा में कोई ऐसा नाटकीय आदेश नही दिया जाएगा जो उनकी ज़िन्दगी को प्रभावित करता हो। अप्रैल -जून की तिमाही में हमारी स्तब्ध करने वाली गिरावट 23.9 प्रतिशत रही है जिसका अर्थ है कि करोड़ों रोज़गार बंद हो चुकें हैं। केवल नोएडा में 9000 युनिट बंद हो चुकें हैं। ऐसी गिरावट पिछले 40 वर्षों में नही देखी गई। आशा है कि अगली तिमाही उतनी बुरी नही रहेगी। कृषि क्षेत्र सही चल रहा है अगर औद्योगिक क्षेत्र भी बेहतर कारगुज़ारी दिखाना शुरू कर दे तो हालत कुछ बेहतर हो सकतें हैं पर इस वक़्त तो निर्मलाजी बेबस नज़र आ रहीं हैं।
पर क्या इस अंधेरी सुरंग के दूर अंत में कोई रोशनी नज़र आ रही है? चाहे उम्मीद धुँधली है फिर भी आशा के दो कारण नज़र आतें हैं। एक, वैक्सीन तेज़ी से तैयार हो रही है। रूस में यह सफल रही है। कुछ देश आपतियां दर्ज कर कहें हैं कि वहाँ तीसरी ट्रायल नही की गई पर प्रमुख मैडिकल पत्रिका लैंसट ने इसे सफल घोषित किया है। अपनी बेटी को टीका लगवा कर पुटिन ने लोगों में विश्वास पैदा किया है। अमेरिका में 3 नवम्बर को राष्ट्रपति चुनाव हैं। कोरोना के मामले में पूरी तरह लापरवाह रहे डानल्ड ट्रंप चाहते हैं कि उस से पहले वैक्सीन बाहर आ जाए पर कई विशेषज्ञ जल्दबाज़ी के ख़िलाफ़ सावधान कर रहें हैं। हमारे यहाँ भी तेज़ी से तैयारी हो रही है। भारत दवाईयां बनाने का वैश्विक हब है। अनुमान है कि इस साल के अंत में या अगले साल के शुरू में यहाँ वैक्सीन मिल जाएगी। जरूरी है कि लोगों में इसके प्रति विश्वास पैदा किया जाए। आम तौर पर हम ऐसे टीकाकरण के लिए तैयार रहतें हैं जबकि अमेरिका की आधी आबादी ही टीका लगवाने के लिए तैयार है। भारत में हर वर्ग तक टीका पहुँचाना भी विशाल चुनौती होगी।
इस मामले में एक और अच्छी ख़बर है। एक लेख में प्रो दिलीप मावलंकर तथा दीपक सक्सेना ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि कोरोना का डंक कमज़ोर हो रहा है क्योंकि बीमारी के कारण मृत्यु का दर गिर रहा है। वह लिखतें हैं, “मई के बाद हर महीने मृत्यु दर गिर रहा है…डाक्टर जो मरीज़ों की देखभाल कर रहें है का कहना है कि जुलाई और अगस्त में जो मरीज़ अस्पतालों में दाख़िल किए गए उनका संक्रमण अप्रैल और मई में दाख़िल किए गए मरीज़ों से बहुत हल्का था…इस बात की प्रबल सम्भावना है कि वायरस अपनी प्रचंडता खो रहा है”। वह मिसाल देते हैं कि स्वाइन फ्लू और चिकनगुनिया के समय भी देखा गया था कि तबाही मचाने के बाद वायरस समय के साथ धीमा पड़ गया था। मृत्यु दर भी गिरता गया। उनका यह भी कहना है कि पहले न सरकार, न अस्पताल, न डाक्टर ही इस बीमारी के लिए तैयार थे लेकिन समय के साथ इलाज के तौर तरीक़े ढूँढ लिए गए है। योरूप में भी वायरस की जो नई लहर आ रही है वह भी मार्च, अप्रैल और मई के अनुपात में कम जानी नुक़सान कर रही है। भारत में भी यह उल्लेखनीय है कि चाहे संक्रमण का आँकड़ा बढ़ रहा है पर मौतों का दैनिक आँकड़ा 1000 के आसपास ही घूम रहा है।
भारत की 1.70 प्रतिशत की मृत्यु दर दुनिया में बहुत कम है। इन दो प्रोफैसरों को आशा है कि अगले चार छ: महीने में यह और कम हो जाएगी। तो क्या हम अंधेरी सुरंग से निकल जाएँगे ? इसके लिए जरूरी है कि सब अपना समाजिक दायित्व निभाएँ। नेताओं को भी समझ लेना चाहिए कि यह समय लोगों को गुमराह करने का नही। केन्द्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल जिन्होंने कहा था कि पापड़ से कोरोना भाग जाएगा को संक्रमित हो कर अस्पताल में पापड़ बेलने पड़े ! स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन का कहना है कि दिवाली तक स्थिति नियंत्रण में आ जाएगी। हर्ष वर्धन गम्भीर मंत्री हैं इसलिए उनकी बात को गम्भीरता से लेना होगा पर इस वक़्त तो कोरोना बेलगाम लगता है। और दिवाली को भी तो दो महीने ही रह गए हैं।
क्या सुरंग के अंत में कोई रोशनी है? Is There Light At End of Tunnel?,