केन्द्रीय मंत्रिमंडल से हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफ़ा फेस सेविंग यानी लाज रखने वाला ही कहा जाएगा। वह मंत्रिमंडल की उस बैठक में उपस्थित थी जिस में कृषि सम्बन्धी तीन बिलों को अनुमति दी गई। हरसिमरत कौर तब विरोध कर इस्तीफ़ा दे सकती थीं। उलटा सरदार प्रकाश सिंह बादल से इन के पक्ष में बयान दिलवा दिया। यह तो जब किसानों में इनके ख़िलाफ़ ग़ुस्सा फूटा और कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने असुखद सवाल पूछने शुरू कर दिया तो समझ आगई कि अगर यू टर्न नही लिया तो अकाली दल का बचा खुचा आधार भी तमाम हो जाएगा। अकाली दल अपने 100 साल लम्बे इतिहास के सबसे अंधकारमय काल से गुज़र रहा है। 2017 के चुनाव में उन्हें 117 में से केवल 15 सीटें मिलीं थीं और वह कांग्रेस तथा आप के बाद तीसरे नम्बर पर रहे थे। अगले चुनाव फ़रवरी 2022 में हैं। अकाली दल जो बेअदबी की घटना के बाद अपना समर्थन खो बैठा है को समझ आ गई है कि अगर जाट सिख किसान भी नाराज़ हो गया तो पार्टी को अपना बोरिया बिस्तर बाँधना पड़ेगा। पंथक वोट पहले छिटक गया था अब किसान वोट के खोने की सम्भावना बन गई थी।
अब सुखबीर बादल का कहना है कि ‘हर अकाली किसान है और हर किसान अकाली’। यह कुछ हद तक ही सही है। अकाली दल का कार्यकर्ता जो निराश और हताश है, अवश्य अधिकतर किसान है पर अकाली नेतृत्व तो अब बड़े पूँजीपति बन चुके है जिनके होटल, ट्रांसपोर्ट और बहुत कुछ और है। जैसे जैसे वह बड़े सर्मायदार बनते गए वह अपने कैडर से दूर होते गए। जो पार्टी कभी एक आन्दोलन थी, बादल परिवार के इर्दगिर्द सिंकुड़ कर रह गई। बादल साहिब ख़ुद मुख्यमंत्री थे, बेटा उपमुख्यमंत्री था, दामाद वरिष्ठ मंत्री था और बेटे का साला भी मंत्री था। अकाली दल के वरिष्ठ नेताओं की दावेदारी की अनदेखी करते हुए पुत्रवधू हरसिमरत कौर को केन्द्र में मंत्री बना दिया गया और अकाली दल के पतन की नींव डाल दी गई। बादल साहिब भी पुत्र मोह मे उस तरह फँस गए जिस तरह इतिहास में धृतराष्ट्र से लेकर अब तक बहुत बाप फँस कर अपने परिवार समेत बहुत की हानि कर चुकें है। फिर बेअदबी का मामला फूट पड़ा जिसके बाद तो कहा जा सकता है,
आता है रहनुमाओं की नीयत में फ़ितूर
उठता है साहिलों में वह तूफ़ान न पूछिए
यह तूफ़ान आज तक थमा नही। जिस तरह श्री गुरू ग्रंथ साहिब के 328 पवित्र स्वरूप लापता हो गए हैं उससे आभास मिलता है कि उच्च सिख संस्थाओं की मर्यादा का हनन हो रहा है। पंजाब भाजपा को लोगों की नाराज़गी और अकाली नेतृत्व की अलोक प्रियता का अहसास हो गया था इसीलिए इस 50 वर्ष पुराने गठबन्धन में तनाव आ गया था। भाजपा बाग़ी सुखदेव सिंह ढींढसा के साथ सम्बन्ध बढ़ा रही है यह जानते हुए कि अकाली नेतृत्व की विश्वसनीयता न्यूनतम स्तर पर है। भाजपा अगले विधानसभा चुनाव के लिए विकल्प तैयार कर रही है पर प्रदेश में पार्टी की हालत अच्छी नही है। उनके हाईकमान ने ही उन्हें अकाली नेतृत्व को आउट सोर्से कर दिया था और ऐसा नेतृत्व उभरने नही दिया जो अकालियों की बराबरी कर सके। अब जबकि पैरों पर खड़े होने का समय आ रहा है पार्टी देख रही हे कि पैर बहुत कमज़ोर हैं।
कृषि सम्बन्धी उठाए गए क़दम भाजपा को पंजाब और हरियाणा दोनों में कमज़ोर बना देंगें। किसान और आढ़ती दोनों आन्दोलन कर रहें हैं। पंजाब मे 12 लाख किसान परिवार हैं और 28000 रजिस्टर्ड कमीशन ऐजंट हैं जो समझतें है कि उनकी खेती और उनका कारोबार खतरें मे है। हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी अभी तो समर्थन दे रही है लेकिन अगर किसानों का अधिक दबाव बढा तो अकाली दल की ही तरह वह भी बिदक सकते है। सरकार ने जो क़दम उठाए है क्या वह किसान के हित में हैं? सरकार इसे बहुत बड़ा ‘रिफॉर्म’ प्रस्तुत कर रही है कि किसान की उपज बेचने के लिए खुले बाज़ार का अवसर मिल गया है। वह देश में कहीं भी उपज बेच सकतें हैं। उसे मंडी में हीं उपज बेचने की मजबूरी नही होगी पर मंडी में बेचने का विकल्प रहेगा। सवाल तो यह है कि अगर यह क़दम किसान के हित में है तो फिर किसान उतेजित क्यों हैं और सड़कों पर क्यों उतरा हुआ है? वह यह विकल्प क्यों नही स्वीकार कर रहा ? इस नाराज़गी और कलह को केवल विपक्ष की साज़िश कह कर रफादफा नही किया जा सकता। परिवर्तन की पहल किसान की तरफ़ से आनी चाहिए थी पर यहां तो किसान सड़क पर उतरा हुआ है और यह सरकार प्रभाव दे रही है कि वह ज़बरदस्ती परिवर्तन उसके गले में उतारना चाहती है।
बड़ी आपति है कि उपज ख़रीदने की ज़िम्मेवारी केवल सरकार पर नही रहेगी। जहाँ मंडियों में बेरोज़गारी बढ़ेगी वहाँ कोई निश्चित मंडी न होने के कारण किसान दुविधा में पड़ जाएगा। कहने को तो बढ़िया लगता है कि किसान कहीं भी अपनी उपज बेच सकता है पर छोटा किसान इस स्थिति में ही नहीं है कि वह इन विकल्पों का फ़ायदा उठा सके। किसानों की बहुसंख्या के पास 2-5 एकड़ का ही खेत है वह अपनी उपज उठा कर कहाँ भटकेंगे ? हज़ार कमज़ोरियों और घपलों के बावजूद उनके लिए तो पास की मंडी व्यवस्था सुविधाजनक है। जन्म से वह इस से परिचित है। किसान पूँजीपति या बिज़नेस या कारपोरेट को अविश्वास से देखता है और सदा से इस वर्ग को अपना शोषक समझता है। अगर बड़ी बड़ी एमएनसी इस बाज़ार में उतर गई तो किसान का अहित हो सकता है।
किसान की बड़ी चिन्ता न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएसपी को लेकर है। उसे घबराहट है कि एक दिन न्यूनतम समर्थन मूल्य की परम्परा ख़त्म कर दी जाएगी। किसान को मूल्य की निश्चितता चाहिए लेकिन उसकी जगह लचीलापन मिल गया है। पूँजीपति सौदेबाज़ी करेगा। पिछले पाँच वर्षों में मोदी सरकार ने किसान के हित मे बहुत काम किया है। इन पाँच वर्षों में गेहूँ की ख़रीद का समर्थन मूल्य दो गुना और धान की ख़रीद के मूल्य में 70 प्रतिशत की बड़ी वृद्धि की गई है। लेकिन अब चिन्ता है कि अगर कोई बड़ा बिसनेसमैन निर्धारित मूल्य नही देता तो छोटा या मंझला किसान किधर जाएगा? सरकार उन्हे आश्वस्त नही कर सकी। प्रधानमंत्री मोदी ने वायदा किया है कि एमएसपी हटाई नही जाएगी। बेहतर होगा कि इस वायदे को भी क़ानूनी जामा पहना दिया जाए जैसे बाक़ी मामलों में किया गया है। इससे किसान आश्वस्त हो जाएगा और विवाद समाप्त हो जाएगा।
इन बिलों को लेकर राज्य सभा में जो दृश्य देखने को मिले वह अत्यन्त अशोभनीय थे। हर मर्यादा को रौंद दिया गया। विपक्ष के कुछ सदस्यों ने सभापति के साथ जो बदतमीज़ी की वह निन्दनीय है। डैरिक ओ ब्रायन तो शिष्टाचार की हर हद लाँघ गए। पर सरकार ने जिस तरह इन विधेयकों को पारित करवाया वह भी सही नही था। सरकारी घमंड दर्शाता है। लाखों ज़िन्दगियों को प्रभावित करने वाला क़दम उठाते वक़्त सब से मशवरा करने और सबको साथ लेकर चलने की ज़रूरत होती है लेकिन सरकार ने तो हथौड़ा चला दिया। जिस तरह यह बिल पारित करवाए गए वह हमारी संसदीय प्रणाली की अच्छी तस्वीर पेश नही करता। विपक्ष इसे सिलैक्ट कमेटी को भेजना चाहता था बेहतर होता कि यह माँग स्वीकार कर ली जाती ताकि अच्छी तरह से विचार विमर्श हो सकता। पर न यह माना गया न ही सदन में सही बहस हो सकी और ध्वनि मत से इसे पारित कर दिया गया जबकि संसदीय प्रावधान यह हैं कि अगर एक भी सांसद माँग करें तो मतदान करवाना पड़ता है। मतदान न करवा सरकार ने इस क़ानून पर सवालिया निशान ख़ुद लगवा लिया है कि क्या सरकार के पास उस समय राज्य सभा में बहुमत था ?
ऐसे बड़े क़दम के प्रति ऐसा लापरवाह रवैया सही नही है। इन विधेयकों को पारित करवाने में कामयाबी पर यह धब्बा लगा गया कि सही वोटिंग नही करवाई गंई। पहली बार मोदी सरकार बैकफुट पर है। विपक्ष भी सिद्ध कर गया कि वह कितना ग़ैर ज़िम्मेवार हो सकता है पर आख़िर में संसद को सही चलाने की ज़िम्मेवारी सत्तापक्ष की है। उन्हे देखना चाहिए था कि वोटिंग की सही प्रक्रिया का पालन किया जाता। राज्यसभा से निकाले गए विपक्षी सांसद गांधीजी के बुत के पास धरने पर बैठ गए। उपवास का कम्पीटीशन चल रहा है। पर हमारी संसद में जो हो रहा है उसे देखते हुए बेहतर होगा कि संसद भवन की तरफ़ उनके मुँह की जगह बापू की पीठ कर दी जाए ताकि अन्दर जो अशोभनीय और अश्लील चल रहा है वह उसके प्रत्यक्षदर्शी न बने।
एक बात और। इस कोविड के ज़माने में जब अर्थव्यवस्था पहले ही बेहद कमज़ोर है कृषि को प्रभावित करने वाला ऐसा क्रान्तिकारी क़दम लाना कितनी समझदारी है ?’इस वक़्त इसकी क्या जल्दी थी? क्या यह क़दम कुछ समय के बाद जब परिस्थिति सामान्य हो जाए तब सब , विशेष तौर पर किसान जत्थेबंदियों, को साथ लेकर आराम से नही उठाया जा सकता था ? इस सरकार में यह आदत क्यों है कि वह बड़े बड़े क़दम उठाते समय उनसे व्यापक मशवरा नही करती जिनकी ज़िन्दगियों को यह प्रभावित करतें है? यह भी याद रखने की बात है कि कोविड के काल में जहाँ अर्थव्यवस्था का हर क्षेत्र सिकुड़ा है वहाँ कृषि एकमात्र क्षेत्र है जहाँ 3.4 प्रतिशत की प्रगति हुई है। अब उसी में अस्थिरता पैदा कर दी गई है।
बापू की पीठ करवा दो Turn Mahatma’s Back To Parliament,