रोहतांग के उस पार Rohtang Pass and Atal Tunnel

रोहतांग दर्रे के बारे मेरी याद लगभग 65 वर्ष पुरानी है जब 8-9 साल की आयु में मैं परिवार के साथ यह सर्द मरुस्थल देखने गया था। आज तो सड़क है पर तबबड़ा खच्चर मार्ग ही था। रास्ता इतना तंग था कि मोड़ काटने के लिए जीप कई बार आगे पीछे करनी पड़ती थी। जीप को मड़ी में छोड़ कर उपर चढ़ना पड़ा था। मुझे याद नही कि हम दर्रे तक पहुँच भी सके थे या नही। उसके बाद भी कई बार रोहतांग गया हूँ। खच्चर मार्ग धीरे धीरे पक्की सड़क में और रोहतांग प्रसिद्ध पर्यटन स्थल में बदल गया। अब तो यह दुखद समाचार भी है कि वहाँ ट्रैफ़िक जैम होने लग पड़ा था।  हमारे लापरवाह और बेसुध पर्यटक वहाँ कचरे के ढेर भी लगा देतें हैं।

रोहतांग दर्रा मैदानी प्रदूषण से उस तरह अछूता नही रहा जैसे मैंने पहली बार देखा था। यहाँ से आगे रास्ता स्पीति वादी से हो कर लेह तक जाता है। 13050 फ़ुट की उंचाई पर स्थित रोहतांग दर्रा शायद इस क्षेत्र का सबसे पुराना दर्रा है। इसके द्वारा किया गया व्यापार पीर पंजाल के दोनों तरफ़ के लोगों को जोड़ता है। इंसान उसके बेजोड़ और कठोर सौंदर्य से सम्मोहित हुए बिना नही रह सकता। इसके ग्लेशियर, बल खाते रास्ते, साँप की तरह नीचे उतरता पानी,ऊँचे पहाड़ और 360 का विहंगम नज़ारा अपनी अमित छाप छोड़ जाता है। पहले इसके द्वारा गर्मियों में व्यापार होता था अब यह टूरिस्ट से भरा रहता है। रोहतांग, लाहौल स्पीति और लेह-लद्दाख के आकर्षण की देश में कोई बराबरी नही।

यह दुख की बात है कि रोहतांग का आकर्षण ही एक प्रकार का अभिषाप है क्योंकि यह रोज़ाना हज़ारों टूरिस्ट को आकर्षित करता है जो धुआँ उड़ाती गाड़ियों में वहाँ पहुँचते हैं। अंधाधुँध ट्रैफ़िक बढ़ने का वहां के नाज़ुक पहाड़ी पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। तापमान बढ़ने से पास के ग्लेशियर प्रभावित होने का ख़तरा है। कार्बन फ़ुट प्रिंट बढ़ने से जीव जन्तु और पेड़ पौधों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। पर्यटन विकास की मजबूरी और पास के गाँव के लोगों के दबाव, जिनकी आजीविका पर्यटन पर निर्भर करती है, में हिमाचल सरकार अधिक नही कर सकी। उपर इकट्ठा हुई भीड़ (आजकल कोरोना कारण नही) बताती है कि सही नियंत्रण नही हो रहा। कई बार रोपवे बनाने के बारे चर्चा हुई है लेकिन यह विचार काग़ज़ों में ही सीमित रह गया जबकि रोपवे से कार्बन उत्सर्जन कम होगा और रोपवे तो ख़ुद टूरिस्ट आकर्षण होता है जैसा स्विट्ज़रलैंड और आस्ट्रिया जैसे देशों में देखा गया है। वहां ऊचें पहाड़ों पर वाहन जाने ही नही दिए जाते। हिमाचल सरकार को इस तरफ़ गम्भीरता से सोचना चाहिए। अगर इसी तरह खुली छूट रही तो एक दिन यह पहाड़ अपना आकर्षण खो बैठेंगे। वैसे भी हिमाचल में नए पर्यटन आकर्षण तैयार करने की ज़रूरत है।

रोहतांग का नाम कैसे पड़ा इसके बारे भी किंवदंती है। कुल्लू वासी मानते है कि भगवान शिव ने ख़ुद यह दर्रा बनाया था जबकि लाहौल वासी मानते है कि पश्चिमी तिब्बत के राजा ग्यापो गेसर ने यह दर्रा बनाया था। लेकिन यह भी बताया जाता है कि रोहतांग शब्द का मतलब ‘लाशों का ढेर है’। शायद यह नाम इसलिए पड़ा कि बहुत लोग इसे पार करते मारे गए। इस किंवदंती में कितनी सच्चाई है यह मैं नही जानता पर ‘लाशों के ढेर’ वाली स्थिति बदलने वाली है। दर्रा पार करते वक़्त अब  किसी के मरने की जरूरूत नही। 3 अक्तूबर को प्रधानमंत्रीनरेन्द्र मोदी रोहतांग के नीचे बनी ‘अटल सुरंग’ का उद्घाटन करने जा रहे है। अब दर्रे को सर्दी में या गर्मी में पार करने की ज़रूरत नही रहेगी।

यह सुरंग 9.02 किलोमीटर लम्बी होगी। लाहौल के लोगों के लिए यह बहुत बड़ी राहत होगी अब वह छ: महीने बाक़ी देश से कटे नही रहेंगे। बीमारी या और किसी मजबूरी में फँसे रहने या बर्फ़ से भरे रोहतांग को पार करने की विवशता भी ख़त्म हो जाएगी। इस सुरंग की कहानी भी दिलचस्प है। इसकी नींव प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 2002 में रखी थी लेकिन कोई काम नही हुआ।2010 में सोनिया गांधी से फिर नींव रखवाई गई लेकिन काम में असली तेज़ी नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद आई। समझ लिया गया कि चीन की चुनौति का सामना करने के लिए इस क्षेत्र में इंफ़्रास्ट्रक्चर बेहतर करने की बहुत ज़रूरत है। इस सरकार ने इस तरफ़ काम भी बहुत किया है।

अगर हम चीन की चुनौति का सही सामना कर सके हैं तो इसलिए कि वहाँ सड़के, पुल, हवाई अड्डे आदि बहुत बनाए गए है। पहले रोहतांग को पार करने में 4-6 घंटे लगते थे अब सुरंग के द्वारा 20 मिनट में पार पहुँच जाएँगे। मनाली से लेह की दूरी 46 किलोमीटर कम हो जाएगी जो दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र मे बहुत मायने रखती है। चीन के साथ टकराव को देखते हुए यह सुरंग किसी वरदान से कम नही होगी क्योंकि सामरिक सामग्री और दूसरी रसद आसानी से लद्दाख पहुँचाई जा सकेगी। अब उस क्षेत्र में ऊँचे दर्रों के नीचे तीन और सुरंग बनाने का सर्वेक्षण चल रहा है। इनके पूरा होने से लद्दाख और आसपास के क्षेत्रों से पूरा साल जुड़ाव रहेगा। चीन का सामना करने मे यह सरकार जो गम्भीरता दिखा रही है उसे देखते हुए यह तय लगता है कि यह काम भी हो जाएगा।

With family at Rohtang Year 1986
With family at Rohtang Year 1986

अटल सुरंग के शुरू होने से उस क्षेत्र के लिए पर्यटन की सम्भावना बहुत बढ़ जाएगी। लाहौल की अपनी अनोखी संस्कृति है जो हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का मिश्रण है। लद्दाख में हिन्दू, बौध और इस्लाम तीनों के अनुयायी रहतें है। लाहौल और लद्दाख दोनों में भव्य बौद्ध मठ है जो दर्शनीय है। इनके ऊँचे पहाड़ और बीच बहती नदियाँ ऐसा नज़ारा है जो कम ही कहीं मिलता है। ऐसे पहाड़ भी है जिन पर पर शून्य वनस्पति है। पर पर्यटन के लिए इस दुर्गम क्षेत्र के खुल जाने से सब प्रसन्न नही है। कुछ लोग समझते है कि अगर मैदानी यहाँ आने लगा तो न केवल ‘कार्बन फुट प्रिंट’ ही बढ़ेंगे बल्कि वैचारिक प्रदूषण भी घुसपैंठ कर जाएगा। यह आशंका निर्मूल भी नही। अगर हम अपने प्रमुख पर्यटन स्थलों को देखें तो साफ़ होता है कि पैसा तो ज़रूर आया पर पर्यावरण का बराबर नुक़सान हुआ। शिमला में तो गर्मियों में कई दुकानों में एयरकंडीशनर चलाने पड़ते है। पर अधिक चिन्ता वैचारिक है, कि टूरिस्ट अपनी लापरवाह आदतें भी लेकर आएगा।

लाहौल के कवि अजय कुमार ने अटल सुरंग की ज़रूरत को स्वीकार करते हुए कि वह छ: महीने बर्फ़ में कटे नही रहेंगे और उपज बर्बाद नही होगी, फिर भीअपनी आपत्ति दर्ज की है।  जब पहले सुरंग खोदने की बात चली थी तो उन्होंने कविता लिखी थी, ‘पहाड़ तुम छिद जाओगे?’ इस कविता में यह आशंका ज़ाहिर की गई, ‘जब पहाड़ के सीने में छेद होगा/ इस स्वर्ग में प्रवेश करेंगे मच्छर, साँप और बंदर/ टूरिस्ट और ज़हरीली हवा/ और शहर के गंदे इरादे और गंदे विचार …’’। अब जबकि सुरंग एक वास्तविकता है कवि ने माना है कि सुरंग का अगर नुक़सान हैं तो फ़ायदा भी है पर बेबसी में वह कहता है कि वह तो अपने विचार ही व्यक्त कर सकता है और सवाल उठा सकता हैं चाहे उसके पास इनका जवाब नही है। कुछ साल पहले जब मैं लेह गया था तो वहाँ भी यह चिन्ता पाई कि मैदान की हवा से उनकी विशिष्ट संस्कृति को ख़तरा है।

इस भावना और इस आशंका की क़दर होनी चाहिए। पर्यावरण बनाम विकास की बहस सारे विश्व में चलती आ रही  है। यह बहस अनिर्णीत है।  सुरंग बनने के बाद विकास और पर्यटन के लिए क्षेत्र खुल जांएगा या ‘ज़हरीली हवा और शहरों के गंदे इरादे और गंदें विचार’ की घुसपैंठ होगी ? शायद दोनों का समानांतर प्रवेश होगा। इस क्षेत्र की संवेदनशीलता और पर्यावरण को सम्भालने की ज़िम्मेवारी सरकार की है। उनकी ‘लाहौलियत’ और उनके जनजीवन को बचाने की ज़िम्मेवारी भी प्रदेश सरकार की है। कवि को घबराहट है कि उसका अनोखा घर एक और मनाली न बन जाए। इस जागरूकता का स्वागत होना चाहिए। अगर लोग जागरूक होंगे तो वह अपनी हिफाजत कर सकेंगे। स्पीति ने ऐसी मिसाल क़ायम की है जहाँ कोरोना संक्रमण फैलने के डर से वहाँ की महिलाओं ने शिमला से आए   हिमाचल के मंत्री को प्रवेश देने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि उनके क्षेत्र में मैडिकल सुविधाओं का अभाव है इसलिए वह मंत्री को प्रवेश की इजाज़त नही दे सकतीं और उन्हें वापिस भेज दिया गया।

उसके बाद जो हुआ वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था। इन महिलाओं की पहल का स्वागत करने की जगह उनके ख़िलाफ़ केस दर्ज किए गए। सरकारी घमंड में इन जनजातिए महिलाओं के घरों में पुलिस भेजी गई। यह कितना उचित था? चाहिए तो यह था कि उनकी भावना को मान्यता देते हुए मंत्री चुपचाप वापिस लौट जाते पर उलटा दमन का सहारा लिया गया। यह सही है कि आगे कार्यवाही नही हुई पर अगर केस चल रहा है तो उसे तत्काल वापिस से लेना चाहिए। यह राजहठ का मामला नही होना चाहिए। कोविड काल में अनियंत्रित टूरिस्ट प्रवेश से घबरा कर कुल्लू मनाली की कई पंचायतों ने भी प्रस्ताव पास कर उन्हें रोकने के लिए कहा है। किन्नौर से भी माँग उठ रही है कि टूरिस्ट को रोका जाए।

देश को ऐसे जागरूक नागरिकों की ज़रूरत है। अगर लोग सावधान रहेंगे तो यह नाज़ुक क्षेत्र ‘विकास रूपी दानव’ (कवि अजय कुमार के शब्दों में) से बचे रहेंगे। लेकिन अब अटल सुरंग का उद्घाटन होने जा रहा है और उस क्षेत्र का अलगाव ख़त्म हो रहा है। यह जश्न का समय है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.