
दिसम्बर 2012 के दिल्ली के निर्भया कांड के बाद देश ने सोचा था कि इस से क्रूर और पाशविक और कुछ नही हो सकता। परेशान संसद ने भी रेप के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून बना दिया था लेकिन अब हाथरस में एक दलित लड़की के साथ जो नृशंस हुआ उस से पता चलता है कि इन आठ साल में कुछ नही बदला। महिलाओं पर अत्याचार के मामले में हम वहीं के वहीं हैं। शायद कुछ और आगे बढ़ गए हैं। देश भर से लगातार ऐसी घटनाओं के समाचार मिल रहें हैं। हिमाचल जैसा शरीफ़ प्रदेश भी अछूता नही रहा। वहाँ मई में हमीरपुर जिले के तलासी गाँव की लापता हुई लड़की का कंकाल अब जंगल से मिला है। बलात्कार के बाद हत्या कर शव जंगल में दबा दिया गया था। तमिलनाडु के तिरूपुर में असम से आई प्रवासी महिला के साथ छ: लोगों ने बलात्कार किया। लेकिन आँकड़े बतातें हैं कि सबसे अधिक रेप उत्तर प्रदेश में होतें हैं। रेप के बाद हत्या करने के मामले में भी यू पी अव्वल है।
रेप की इतनी घटनाओं से पता चलता है कि कहीं हमारे संस्कार कमज़ोर पड़ गए है। हम चरित्रहीन समाज बनते जा रहे हैं।अपने बेक़ाबू लड़कों को सम्भालनेमें बहुत परिवार असफल हो रहें हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अगस्त 2014 को लाल क़िले से एक सम्बोधन में कहा था कि अपने लड़कों को सम्भालो। रेप के प्रति मुलायम सिंह यादव की टिप्पणी कि, ‘लडकें हैं लड़कों से ग़लती हो जाती है’ बताती है कि महिलोओं से ज़्यादती के प्रति एक वर्ग कितना लापरवाह और घमंडी है। कमज़ोर वर्ग के प्रति विशेष तिरस्कार है। तिरूपुर के रेप का मामला सुन रहे मद्रास हाईकोर्ट की सोचने वाली टिप्पणी है,‘पवित्र भारत भूमि अब रेपिस्ट की भूमि में बदल गई है जहाँ हर पन्द्रह मिनट के बाद रेप होता है’।
यह सही है कि सरकार रेप रोक नही सकती इसके लिए सही शिक्षा और समाज की मानसिकता में परिवर्तन की ज़रूरत है जिसके कोई आसार नज़र नही आते पर सरकार न्याय तो दे सकती है। पर उत्तर प्रदेश में हाथरस में तो यह भी नही हुआ। न न्याय दिया गया और न ही यह प्रयास किया गया कि यह छिपा रहे कि न्याय नही दिया गया। ज़बर किया गया और वह भी खुल्लम खुल्ला। प्रशासन और पुलिस का रवैया पीड़ित परिवार के प्रति पूरी तरह नकारात्मक था। परिवार की याचना के विपरीत रेप का शिकार लड़की के शव को घर ले जाने नही दिया गया। पिता को धक्का दिया गया और गिड़गिड़ाती माँ की एक बात नही सुनी गई कि 5 मिनट के लिए बेटी को घर लाने दिया जाए। वह बेटी का चेहरा देखना चाहती थी,हल्दी लगा कर विदा करना चाहती थी। रात को संस्कार नही करवाना चाहती थी जो हिन्दू रीति रिवाज के ख़िलाफ़ है। लेकिन एक नही सुनी गई और परिवार की अनुपस्थिति में पेट्रोल डाल बेटी को जला दिया गया। अब परिवार का कहना है कि, “इंसानियत के नाते चिता से हम फूल ले आए पर कैसे माने कि यह हमारी बेटी का है”?
कितनी करूणा और बेबसी छिपी है इस एक वाक़या में ! ग़रीब परिवार ने तो इंसानियत दिखा दी पर उस प्रशासन और उन अफ़सरों के बारे क्या कहा जाए जिन्होंने इतनी हैवानियत दिखाई कि रात के अंधेरे में बिना परिवार की अनुमति के शव जला दिया? दलित परिवार के साथ ग़ज़ब की बेरहमी और असंवेदना दिखाई गई। उनके फ़ोन छीन लिए, वक़ील से बात नही करने दी गई और वरिष्ठ अफ़सर धमकाते सुने गए कि ‘रिपोर्टर तो चले जाएँगे हम ही यहां रह जाएँगे’। इस परिवार के मानवीय अधिकारों का क्या हुआ? जिस पुलिस ने एक सप्ताह इस वीभत्स कांड की रपट तक नही लिखी उसने परिवार को बंधी बना शव जलाने के लिए सौ से अधिक पुलिस कर्मी तैनात कर दिए।
क्या छिपाने की कोशिश हो रही थी? क्या संदेश दिया जा रहा था कि ‘सैंयां भए कोतवाल तो डर काहे का! रेप के बाद जो घटा और जिस तरह परदा डालने की कोशिश की गई वह उतना ही शर्मनाक था जितना रेप की घटना थी। लड़की की माँ कहती है, “तब तक तो मुझे अंग्रेज़ी के शब्द ‘रेप’ का मतलब भी मालूम नही था। आज मुझे साबित करना है कि मेरी लड़की के साथ रेप हुआ था”। लडकी का शव जलाने के बाद पुलिस का कहना है कि फ़ॉरेंसिंक जाँच में रेप की पुष्टि नही हुई जबकि मरने से पहले मैजिस्टरेट को दिए बयान में लड़की ने कहा था कि उस के साथ रेप हुआ है और उसने उन चार लड़कों के नाम लिए थे जो पहले भी रेप का प्रयास कर चुकें हैं। मौत से पहले दिए गए बयान पर संदेह नही किया जाता पर यहाँ तो यूपी पुलिस ही रेप की शिकायत की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रही है।
यूपी पुलिस के एडीजीपी कहते हैं कि मौत का कारण रीढ़ पर आई चोट थी रेप नही हुआ क्योंकि शुक्राणु नही पाए गए जबकि सैम्पल 11 दिन के बाद लिए गए और डाक्टरों का कहना है कि 96 घंटों के बाद शुक्राणु मिल ही नही सकते। एक सप्ताह तक रेप की शिकायत दर्ज क्यों नही की गई ? पुलिस पीड़िता तथा उसके परिवार के खिलाफ इतनी ‘प्रो एक्टिव’ क्यों थी? इस प्रक्रिया में पुलिस ने अपनी विश्वसनीयता का वही हाल बना लिया जो इन चार लड़कों ने उस लड़की का बनाया था। अब कहा जा रहा है कि बाक़ियों के साथ पीड़ितों के परिवार के लोगों का भी नार्को टेस्ट होगा। कैसी अंधेर नगरी है कि जिस परिवार के साथ इतनी ज़्यादती हुई उसी का नार्को टेस्ट करवाया जाएगा? क्या प्रशासन में संवेदना बिलकुल ख़त्म हो गई है?
उतर प्रदेश सरकार को तब समझ आई कि मामला बिगड़ गया है जब प्रधानमंत्री ने दखल की और मुख्यमंत्री को सचेत किया। तब पहले एसआईटी बनाई पर परिवार की क़िलेबंदी जारी रखी। अब मामला सीबीआई को सौंप दिया गया है पर सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जाँच को लेकर जो घपला हुआ है वह भी सबके सामने है। इस बीच मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए हाई कोर्ट ने उच्च अधिकारियों को तलब किया है। हाईकोर्ट का क्या रूख है यह माननीय जजों की इस टिप्पणी से पता चलता है कि इस घटना ने ‘हमारी अंतरात्मा को स्तंभित कर दिया है’ और अदालत ‘ न केवल पीड़िता बल्कि उसके परिवार के मूल अधिकारों तथा मानवीय अधिकारों के उल्लंघन’ के आरोपो की जाँच करेगी। अब आशा बल पकड़ती है कि न्याय होगा और जिन उच्चाधिकारियों ने हर मानवीय मर्यादा का उल्लंघन किया है उनसे सही जवाबदेही होगी। शव को जलाने में जो हड़बड़ी दिखाई गई वह तो ब्रिटिश राज की याद ताज़ा करती है।
इस घटना को लेकर देश मे भारी आक्रोश है। दलित विशेष तौर पर बहुत ग़ुस्से में है। इसका आने वाले बिहार चुनाव और 56 महत्वपूर्ण उपचुनावों पर असर पड़ सकता है। भाजपा के लिए यह चिन्ता का विषय है कि जिस हिन्दू एकीकरण के बल पर भाजपा कई प्रदेशों में 50 प्रतिशत से अधिक वोट ले जाने में सफल रही थी वह अब खतरे में हैं क्योंकि हाथरस की घटना से दलित बेचैन है। शायद यही कारण है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व योगी आदित्यनाथ सरकार के समर्थन पर नही उतरा और योगीजी को अंजाम से अकेले जूझने दिया गया। अगर दलितों को साथ लेना है तो उन्हें बराबरी और न्याय देना होगाएक साल के बाद अम्बेदकर के बुत पर हार डालना काफी नही है।
बिहार सरकार पहले ही प्रवासी संकट तथा बाढ़ से उत्पन्न स्थिति के कारण शासन विरोधी भावना से जूझ रही है। नीतीश कुमार और भाजपा के बीच समझौता तो हो गया पर बिहार में पीढ़ी परिवर्तन की बहुत ज़रूरत है। बिहार के वर्तमान नेतृत्व की एक्सपायरी डेट निकल चुकी है। जो मुख्यमंत्री विपदा में फँसे अपने लोगों को वापिस लेने में हिचकिचाए वह भावी नेता नही होना चाहिए। देश और प्रदेश की तरक़्क़ी के लिए भी वहाँ नया नेतृत्व चाहिए। नई सोच चाहिए। उत्तर प्रदेश का भी बँटवारा होना चाहिए। कोई एक मुख्यमंत्री इसे सही समभाल नही सकता। हाथरस में पीड़ित परिवार से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की मुलाक़ात चर्चा में है। पहले उन्हें ज़बरदस्ती रोका गया पर बाद मे समझ आ गई और उन्हें जाने दिया गया पर कुछ और विपक्षी नेताओं को पीटा गया। यह ‘पोलिटिकल टूरिज़म’ की जगह नही बननी चाहिए पर यूपी सरकार को लाठीचार्ज और एफआईआर का इतना सहारा लेना बंद करना चाहिए। लोकतंत्र मे लोकराय को ऐसे दबाया नही जा सकता।
जिस तरह प्रियंका गांधी लड़की की माँ से गले मिली वह बहुत संवेदना और सहानुभूति व्यक्त करता है। भाजपा वाले इसे ‘राजनीतिक स्टंट’ कहतें हैं लेकिन वहाँ जा कर भाजपा के किसी नेता या नेत्री ने यह संवेदना क्यों नहीं दिखाई? मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ऐसा ‘राजनीतिक स्टंट’ करने से कौन रोकता है? वह उस गाँव क्यों नही गए? अब कहा जा रहा है कि योगी सरकार के ख़िलाफ़ साजिश है। अगर यह सही है तो पहले उन अफ़सरों के विरूद्ध कार्यवाही होनी चाहिए जिन्होंने रात के अंधेरे में शव जलाने का आदेश दिया और मामले को और ज्वलन्त बना दिया।
रात के अंधेरे में In The Dead of Night,