
“ कौन सा चैनल देखें”, एक मित्र ने पूछा, “जो बिलकुल इंडिपैंडंट हो”? यह सवाल मुझे निरुत्तर छोड़ गया। सचमुच कौनसा चैनल है जिसकी सिफ़ारिश की जा सके जो बिलकुल आज़ाद और निष्पक्ष हो? सभी तो भाजपा-मोदी के पक्ष और विपक्ष में बँटे हुए हैं। इस दौड़ में उन्होंने समाज को ही बाँट दिया है। हमारे समाज में कभी भी इतनी नफ़रत, द्वेष और तनाव नही था जितना आज है। बहुत अविश्वास है। ‘तनिष्क’ के एक विझापन को लेकर इतना हंगामा खड़ा किया गया कि आख़िर में टाटा को विज्ञापन वापिस लेना पड़ा। देश विदेश में असुखद चर्चा के बाद गृहमंत्री अमित शाह को दखल देना पड़ा कि ‘ किसी क़िस्म की ज़रूरत से अधिक सक्रियता नही होनी चाहिए’। आशा है कि ऐसे मामलों में गृहमंत्री अपनी सक्रियता जारी रखेंगें क्योंकि हम एक ऐसा समाज बनते जा रहें हैं जिसे आसानी से गुमराह किया जा सकता है।
सुशांत सिंह राजपूत की मौत को लेकर कई चैनल सीमाएँ लाँघ गए थे। एक प्रमुख एंकर ने तो घोषणा कर दी कि ‘मैं सिद्ध करूँगा कि यह मर्डर था’। एक फ़र्ज़ी रहस्यमय कहानी को दिन रात परोसा गया। सब कुछ मनघड़ंत था और टीवी स्टूडियो में रचा गया था। ऐसा क्यों किया गया? एम्स के डाक्टरों की टीम ने बता दिया कि यह आत्म हत्या थी पर कुछ चैनल ने तो देश के सबसे प्रतिष्ठित मैडिकल संस्थान के डाक्टरों की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर दिए। अब क्योंकि रिया चक्रवर्ती को ज़मानत मिल गई है और कोई साज़िश नही मिली इसलिए दिलचस्पी नही रही और मामला टीवी से ग़ायब है। रिया की माँ का कहना है कि ‘मेरे परिवार को तो तबाह कर दिया गया’। कौन इस महिला और उसके परिवार को हुए नुक़सान की क्षतिपूर्ति करेगा? रिया को तो एक प्रकार की विष कन्या पेश कर दिया गया, ऐ मार्डन डे वैम्प ! सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि हाल ही में बोलने की आज़ादी का सर्वाधिक दुरूपयोग हुआ है। मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में पीठ उस याचिका पर टिप्पणी कर रही थी जिस में यह आरोप लगाया गया कि मीडिया का एक वर्ग महामारी के दौरान तब्लीगी जमात को लेकर ‘साम्प्रदायिक विद्वेष’ फैलाता रहा है।
जब तब्लीगी का मामला चल रहा था तो सब समझ बैठे थे कि इन के कारण दिल्ली में वायरस फैला है जबकि सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि यह टीवी चैनलों द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी का घोर दुरूपयोग था। जिस तरह टीवी मीडिया में कुछ लोगों के ख़िलाफ़ ट्रायल अर्थात मुकदमा चलता रहा है इस पर बाम्बे हाईकोर्ट ने केन्द्रीय सरकार से सवाल किया है, “क्या किसी को नुक़सान होने से पहले न्यूज़ चैनलों पर लगाम लगाने की कोई व्यवस्था है”? अदालत की तल्ख़ टिप्पणी है कि “ऐसा लगता है कि सब को कुछ भी कहने का लाईसैंस मिल गया है…मीडिया को मौलिक आज़ादी है पर इसका इस्तेमाल दूसरों की आज़ादी में दखल डालने के लिए नही होना चाहिए”। 1997 में एक मामले में यही अदालत कह चुकी है कि, “ प्रेस,या एलकटरौनिक मीडिया या आन्दोलन द्वारा ट्रायल क़ानून के शासन के विपरीत है”। आशा है अदालतें इस मामले में दखल देंगी क्योंकि ऐसे अनियंत्रित चैनल देश का मिज़ाज बिगाड़ रहें हैं।
रिया चक्रवर्ती को ज़मानत देते वक़्त बाम्बे हाईकोर्ट ने साफ़ कहा है कि वह किसी ड्रग डीलरों के गैंग या रैकेट का हिस्सा नही थीं पर जो चैनल चीख़ चीख़ कर यही आरोप लगाते रहे उनके बारे क्या कहा जाए? सरकार उनके बारे सख़्त क्यों न हो जो लगातार अपने दर्शकों को गुमराह करते रहें है? झूठ को बढ़ा चढ़ा कर पेश करतें हैं। यह सारा अभिव्यक्ति की आज़ादी की आड़ में किए गए, जबकि इसका मतलब खुली छूट नही। यह साथ बहुत भारी ज़िम्मेवारी लेकर आती है, जैसे संविधान में भी कहा गया है। संतोष की बात है कि प्रिंट मीडिया अभी भी बहुत ज़िम्मेवार है पर ‘मूर्ख बक्सा धूर्त बक्सा बन रहा है’, जैसे वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक ने भी कहा है।
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि जो दिखाया जाता है उसे दर्शक सच्चाई समझ बैठतें हैं। बेहतर होगा कि बेलगाम टीवी मीडिया ख़ुद को सही करे और अपनी ज़िम्मेवारी समझेपर यहां तो घर से तैयारी कर आतें है कि आज किसको ब्लास्ट अर्थात रगड़ा लगाना है। ख़बरें कम दिखाई जाती और बहस पर अधिक ज़ोर होता है जहाँ भाजपा तथा कांग्रेस के प्रवक्ताओं को लड़ाया जाता है और गरमी पैदा की जाती है। और वह भी लड़ने को तैयार हो कर आतें हैं। इतना भावात्मक विभाजन हो गया है कि दूसरे का नज़रिया देखने की क्षमता लगातार कम हो रही है। मत भिन्नता का मतलब किसी को नापसन्द करना नही होना चाहिए पर ऐसा यहाँ हो रहा है। टीवी चैनलों की नक़ल करते हुए सोशल मीडिया और भी आगे बढ़ गया है।मुम्बई पुलिस कमिश्नर का बताना है कि एक समय 80,000 फ़र्ज़ी सोशल मीडिया अकाउंट उन्हें निशाना बना रहे थे। कई तो विदेशों में स्थित थे। सवाल उठता है कि कौन सूत्रधार था और क्यों ?
कुछ टीवी चैनलों के लिए उनकी टीआरपी अर्थात रेटिंग सब कुछ है। जितनी अच्छी रेटिंग होगी उतने अच्छे विज्ञापन मिलेंगे। इस रेटिंग की दौड़ में वह हर लक्ष्मण रेखा को पार कर रहें हैं यहाँ तक कि साम्प्रदायिक दुर्भावना फैलाने से भी संकोच नही करते। अब मुम्बई पुलिस का दावा है कि कुछ चैनलों ने धोखाधड़ी द्वारा अपनी रेटिंग बढ़ाई है। इनके ख़िलाफ़ कार्यवाही हो रही है। सही कहा गया है कि जिनके घर शीशे के बने हो उन्हें दूसरों पर पत्थर नही फैंकने चाहिए।कई चैनलों ने हाल ही में ऐसे बड़े पत्थर बालीवुड पर फेंकने शुरू कर दिए थे। घटिया और शर्मनाक भाषा का प्रयोग करते हुए देश के सबसे बड़े और प्रभावी फ़िल्म और मनोरंजन उद्योग को, ‘मैला’, ‘ड्रगी’, ‘अपराध का अडडा’, ‘दुराचारी’ कहा गया। शेक्सपीयर से उधार में लेकर कहा गया कि ‘अरब के सारे इतर बालीवुड की बदबू को दूर नही कर सकते’। सचमुच? और ऐसे चैनलों की ‘बदबू’ कौन दूर करेगा जो रोज़ाना ज़हर परोसते हैं? बालीवुड के बारे यहाँ तक कहा गया कि ‘ यह देश का सबसे गंदा उद्योग है जो कोकीन और एलएसडी में फँसा हुआ है’। मुम्बई फ़िल्म उद्योग में कमज़ोरियाँ है और आज से नही। एक समय बड़े बड़े सितारे दाऊद इब्राहिम जैसे कुख्यात लोगों की पार्टियों की शोभा बढ़ाते थेलेकिन समय के साथ बालीवुड बदला है और उसने वह बदनाम रिश्ता तोड़ दिया है।
यह वही कमज़ोरियों है जो समाज में है और बाक़ी सभी व्यवसायों, माडिया समेत, में हैं। हमारी तो राजनीति इन कमज़ोरियों से ग्रस्त है जो संसद तथा विधानसभाएँ में अपराधियों की सूचि से पता चलता है। जहाँ तक ड्रग्स की बात है निश्चित तौर पर कुछ लेते होंगे पर बालीवुड को कभी भी इतना फ़िट नही देखा जितना वह आज है। याद करिए संजीव कुमार की तोंद ! आज ऐसी नज़र ही आएगी। अगर बालीवुड में कुछ काली भेड़े है भी तो क्या इस कारण उस उद्योग को तबाह कर देना है जिसका देश के प्रति योगदान अपार है ? बालीवुड पर निशाना कौन लगवा रहा है और क्यो? पहली बार रीढ़ की हड्डी दिखाते हुए बालीवुड ने उन चैनलों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करवाया है जो उसे बदनाम करते रहें है।बालीवुड वह जगह है जहाँ क्रिकेट की ही तरह आपकी धर्म या जाति नही देखी जाती केवल आपकी प्रतिभा की क़दर होती है। यही कारण है कई बड़े क्रिकेटरों के लड़कों की ही तरह कई स्टार- किडस सफल नही हो सके। बालीवुड देश को अन्दर से मज़बूत करता है और बाहर हमारी सॉफ़्ट पावर फैलाता है। रूस में राज कपूर, चीन मे आमीर खान, दुबई में अक्षय कुमार और सलमान खान और पाकिस्तान में हमारे सभी सितारों और फ़िल्मों की लोकप्रियता बताती है कि हमारी सॉफ़्ट पावर कितनी प्रभावी है। दुनिया का कोई कोना अछूता नही छोड़ा गया।
बालीवुड को ज़रूर अन्दर सेख़ुद को सही करना है परहमें समझना चाहिए कि यह एक राष्ट्रीय संसाधन है। इसकी विश्वसनीयता तबाह करने या इसे बदनाम करने से नुक़सान होगा। भारत बहुत विभिन्नताएँ वाला देश है इस पर एक प्रकार की विचारधारा लादी नही जा सकती। कला और संस्कृति वहीं प्रफुल्लित होतें हैं जहाँ उन्हें आज़ादी और संरक्षण मिलता है। अफसोस है कि उलटा यहां संरक्षण और आज़ादी उन्हें मिली हुई है जो देश और समाज की क्षति कर रहें हैं। एमरजैंसी मे इंदिरा गांधी ने नाराज़ हो कर आकाशवाणी पर किशोर कुमार की आवाज़ ख़ामोश कर दी थी। इससे किशोर कुमार की लोकप्रियता में कोई कमी नही आई, उन्हें तो आज तक शौक़ से सुना जाता है। बालीवुड पर जो दबाव है उस पर बालीवुड पर लिखने वाली अनुपमा चोपड़ा की शिकायत है, “जो कलाकार दशकों से हमारा मनोरंजन करते आ रहे है आज राजनीति में पक्ष और विपक्ष की जंग के हवनकुंड में उन्हीं की आहुति दी जा रही है”।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इस उद्योग को संरक्षण मिलना चाहिए। सबसे जरूरी है कि उन चैनलों पर लगाम लगाया जाए जो अपने लालच के लिए समाज का अहित कर रहें है, ताकि एक दिन यह धर्म संकट न रहे कि कौनसा चैनल देखा जाए?