अपनी किताब ‘चॉयसेज़’ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे शिवशंकर मेनन मार्च 2006 में भारत और अमेरिका के बीच हुए नागरिक परमाणु समझौते के औचित्य के बारे लिखतें हैं, “यह पहल इस धारणा पर आधारित थी कि भारत और अमेरिका के बीच सामरिक सांझेधारी बदली हुई परिस्थिति में हमारे हित में होगी। चाहे दोनों देश इसे खुलेआम स्वीकार नही करते कि उनकी यह सांझेधारी चीन का संतुलन क़ायम करने के लिए है, यह स्पष्ट है कि चीन का उत्थान इसकी प्रमुख प्रेरणा है”। शिवशंकर ने यह भी लिखा है कि भारत के विकास के लिए हमें अमरीकी टेक्नोलॉजी और बाज़ार की ज़रूरत है पर उनका ज़ोर उस बात पर अधिक है कि चीन का उत्थान यह जरूरी कर देता है कि भारत और अमेरिका अपने सामरिक सामंजस्य को और मज़बूत करे। यह समझौता मनमोहन सिंह सरकार का बहुत दिलेराना क़दम था जिसने भारत और अमेरिका के रिश्ते को नया आयाम दिया था। जार्ज डब्ल्यु बुश की अमेरिकी सरकार ने भी बहुत हिम्मत दिखाई थी लेकिन इन 14 वर्षों में दुनिया बहुत बदल गई है। एक सामान्य देश से चीन एक आक्रामक सुपरपावर में बदल चुका है और हमें खुली चुनौति दे रहा है। उनके लिए इस धौंस का दुष्परिणाम यह निकला है कि भारत और अमेरिका के रिश्ते उस घनिष्ठता की तरफ़ बढ़ रहें हैं जिसे रोकने के लिए ही चीन ने हम पर दबाव बढ़ाया था।
हाल ही में दिल्ली में भारत और अमेरिका के बीच 2+2 ,अर्थात दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों की वार्ता हो कर हटी है जिस दौरान महत्वपूर्ण समझौता हुआ है कि उच्च स्तरीय सैनिक टेक्नोलॉजी तथा गोपनीय सैटेलाइट डेटा का आदान प्रदान होगा। इससे भारतीय मिसाईलों को लक्ष्य को स्टीकता से भेदने में मदद मिलेगी। इससे पहले दोनों में यह समझौता हो चुका है कि सेनाएँ एक दूसरे के अड्डों का इस्तेमाल कर सकेंगी तथा अमेरिका भारत को वह टेक्नोलॉजी बेचेगा जो अभी तक वह अति विश्वसनीय साथियों को ही देता रहा है। नवीनतम 2+2 समझौता उस वक़्त किया गया है जब सीमा पर चीन के साथ गतिरोध टूट नही रहा। इस दौरान अमेरिका के विदेश और रक्षा मंत्री का इकट्ठा यहीं आना और उनके विदेश मंत्री पोम्पिओ का युद्ध स्मारक पर गलवान के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करना और घोषणा करना कि, “भारत की अखंडता के लिए अमेरिका हमेशा भारत के साथ खड़ा है…चीन की कम्युनिस्ट पार्टी लोकतन्त्र की हिमायती नही”, बहुत महत्व रखता है। अमेरिका के रक्षामंत्री मार्क एस्पर का तो साफ़ कहना था कि ‘चीन दुनिया के लिए ख़तरा है’।
जिस वक़्त भारत कोविड से जूझ रहा था चीन की हिमाक़त ने यह जरूरी कर दिया कि अमेरिका के साथ हम अपने रिश्ते और मज़बूत करें। जिस तरह मनमोहन सिंह ने परमाणु समझौता करते वक़्त समझ लिया था उसी तरह नरेन्द्र मोदी ने भी समझ लिया है कि यह समय ‘इतिहास की हिचकिचाहट’ को तजने का है। इसी पर चलते हुए भारत सरकार ने ‘क्वैड’ अर्थात चार देशों ( अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया) के बीच सैनिक सम्बन्ध मज़बूत करने को हरि झंडी दे दी है। आस्ट्रेलिया और जापान के साथ भी हमारा आपसी सैनिक अड्डों के इस्तेमाल का समझौता हो चुका है। पहली बार आस्ट्रेलिया चार देशों की नौसेनाओं के मालाबार अभ्यास में शामिल हो गया है। ऐसा भी वर्षों की हिचकिचाहट के बाद होरहा है। जब अमेरिका-भारत-जापान-आस्ट्रेलिया की नौसेना एक साथ अभ्यास करेंगी तो चीन को ज़बरदस्त संदेश जाएगा कि हिन्द -प्रशांत महासागर क्षेत्र में उसकी मनमानी नही चलेगी।
चीन को तो इस समुद्री क्षेत्र को ‘हिन्द-प्रशांत महासागर’ कहने से ही चिढ़ है। उनके विदेश मंत्री वांग यी की यह टिप्पणी कि ‘यह क्वैड शीत युद्ध की मानसिकता प्रदर्शित करता है और टकराव को बढ़ावा देता है’, से पता चलता है कि यह चतुर्भुज चीन को चुभ रहा है। इस चतुर्भुज को पुनर्जीवित करने और उसे सैनिक शक्ल देने में भारत की प्रमुख भूमिका रही है। अतीत में हम विदेश नीति के मामलों में बहुत सम्भल कर चलते रहें हैं। अब चीन की चुनौति को देखते हुए हमारी सामरिक सोच बदली है कि अपनी आंतरिक क्षमता को बढ़ाने तथा सीमा की चुनौति का सामना करने के लिए बाहरी सहयोग चाहिए और विशेष तौर पर अमेरिका के साथ घनिष्ठता के बिना यह नही हो सकता।गुट निरपेक्षता अब बेमतलब हो चुकी है। यह भी समझ आ गई है कि जब चीन कुछ क्षेत्रों में घुस चुका है,‘सामरिक स्वायत्तता’ की धारणा का बहुत महत्व नही रहा। हमारे सामने विकल्प सीमित हो रहें हैं। 1962 में भी हमने अमेरिका का साथ माँगा था। 1971 में ज़रूरत को देखते हुए इंदिरा गांधी ने सोवियत यूनियन से मैत्री संधि की थी लेकिन अब तो पुटिन कह रहें हैं कि रूस और चीन के बीच सैनिक गठबन्धन की ‘कल्पना की जा सकती है’। अर्थात अब रूस के सहयोग पर सवालिया निशान लग रहा है।
यह साल भारत के लिए अच्छा नही रहा। पहले ही अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नही थी उपर से चीन के वायरस ने बेडागर्क कर दिया। चीन ने भी यही समय चुन कर हमें चुनौति दी है। इसको देखते हुए विदेश और सामरिक नीति में बुनियादी परिवर्तन किया जा रहा है। यह भी समझ आगई है कि अकेले अपने बल पर हम सुपर पावर नही बन सकते। चाहे इसे उछाला जा रहा है पर आत्म निर्भरता की सीमा है। चीन ने भी सुपर पावर बनने के लिए अमेरिका का सहयोग लिया था। तब वह बहुत शरीफ़ राष्ट्र था। सही कहा गया कि चीन को अमेरिका के पूँजीपतियों ने विकसित किया जिन्होंने ख़ुद भी मोटी कमाई की थी।आशा थी कि चीन एक सभ्य देश की तरह उभरेगा पर वह उत्पाती बन गया और अमेरिका को समझ आ रही है कि अब नही रोका तो वह आगे निकल जाएगा जिसके गहरे दुष्परिणाम होंगे। डानल्ड ट्रंप का प्रशासन इसीलिए चीन के प्रति इतना आक्रामक है। भारत ने भी दुनिया को बता दिया कि हम में चीन के सामने डटने का दम है। अगर अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया भारत के साथ ‘क्वैड’ में इतनी दिलचस्पी दिखा रहें है तो इसका एक कारण यह भी है कि हमने चीन के आगे झुकने से इंकार कर दिया है।
अमेरिका इस वक़्त हमारे प्रति बहुत उत्साह दिखा रहा है। उनके चुनाव से एक सप्ताह पहले 2+2 वार्ता में उनके दो वरिष्ठ मंत्रियों का शामिल होना भी यही प्रदर्शित करता है। शीत युद्ध में जिस तरह अमेरिका सोवियत यूनियन को प्रतिद्वंद्वी समझता था उसी तरह अब चीन को समझता है। सीधा टकराव है। इतिहास भी गवाह है कि जब उभर रही ताकते जमी हुई ताक़त और व्यवस्था को समय से पहले चुनौति देती हैं तो वह असफल रहतीं हैं। जर्मनी और जापान को अमेरिका और साथी देशों के साथ टकराव की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। सोवियत यूनियन ने भी अमेरिका के साथ शस्त्र दौड़ में शामिल होने की ग़लती की। परिणाम है कि सोवियत यूनियन का ही बिखराव हो गया। हमने भी पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए थे। अब अंतराष्ट्रीय प्रतिरोध का सामना करने की चीन की बारी है।
वाशिंगटन के हडसन इंस्टीट्यूट की विशेषज्ञ अर्पणा पांडे के अनुसार अमेरिका के सुरक्षा तथा विदेशी मामलों के खेमें में एक दशक से मूलभूत परिवर्तन आया है। उनके अनुसार भारत के साथ मैत्री में अमेरिका को तीन फ़ायदे हैं,(1) चीन पर नियंत्रण करना आसान होगा। (2) हथियारों की बिक्री बढ़ेगी और (3) अमेरिका का अपना सैनिक ख़र्च कम होगा। अर्थात यह एक पक्षीय लव-अफ़ेयर नही है ! लेकिन अभी भी शंकाएँ हैं। क्या चुनाव के बाद भी अमेरिका की यही नीति रहेगी? क्या फिर वहाँ चीन के साथ दोस्ती का या ट्रेड डील का प्रयास तो नही होगा ? दूसरा सवाल यह है कि भारत ने यह रिश्ता कहाँ तक लेकर जाना है? क्या यह लचीला सांझेदारी तक ही सीमित रहेगी या भारत नाटो की तरह किसी संधि में शामिल हो जाएगा? प्राचीन समय में मैत्री संधि हमारी सामरिक नीति का अभिन्न अंग रहा है जैसे रामायण और महाभारत से भी हमे पता चलता है। चाणक्य भी बता गए हैं कि दुष्मन का दुष्मन दोस्त होता है।
आज़ाद भारत को गुटनिरपेक्षता पसन्द आई थी जो शायद समय की ज़रूरत थी। अब समय बदल गया है पर गठबन्धन में शामिल होने के लिए हम अभी भी तैयार नही। अगर अमेरिका के साथ किसी संधि में हम बंध जातें हैं तो रूस या ईरान या अफगानिस्तान के बारे उनकी नीति का पालन करना पड़ेगा। न ही उधर से ऐसी कोई पेशकश है पर दोनों देश साँझे हित के लिए मुद्दों पर आधारित सहयोग के लिए तैयार हो रहे हैं। पर अमेरिका का ध्यान हिन्द -प्रशांत महासागर क्षेत्र पर है जबकि हमारी चिन्ता हमारी उतरी सीमा विशेष तौर पर लद्दाख में टकराव है। नज़दीक आते हुए भी दोनों देशों का फ़ोकस एक जैसा नही है। चीन के साथ टकराव में अमेरिका का साथ आना और गोपनीय सूचना और टैक्नालिजी का आदान प्रदान बहुत महत्व रखता है। लेकिन सीमा पर चीन के अतिक्रमण का मुकाबला हमने ख़ुद ही करना है,जैसे हम कर भी रहें हैं। यह गणित अपने पक्ष में हमने ख़ुद करना है।
भारत-अमेरिका, 2+2 का गणित Arithmetic of 2+2,