देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ Bihar : Credit To Modi

बिहार के चुनाव की कहानी पाँच मल्लाहों की कहानी है। एक ने नाव को पार लगा दिया,नरेन्द्र मोदी। एक जिसने अपनी नाव डुबो दी,नीतीश कुमार। एक जिसने बराबर नाव खड़ी कर दी और किनारे से तनिक दूर रह गया, तेजस्वी यादव। एक, जो नाव को बीच समुंदर छोड़ भाग गया, राहुल गांधी। और एक जिसने दूसरों की ख़ातिर अपनी नाव बनाने से ही इंकार कर दिया और बेगानी शादी में अब्दुल्ला बन कर रह गया, चिराग़ पासवान !

सारे एग्जिट पोल और दिल्ली से गए पत्रकारों के अनुमानों को धत्ता बताते हुए बिहार के लोगों ने फिर एनडीए में विश्वास प्रकट कर दिया। यह परिणाम चौंका देने वाला है क्योंकि चुनाव, कोरोना संकट जिस दौरान करोड़ों ज़िन्दगियाँ अस्तवयस्त हुईं है, के बीच आया है। अगर उपचुनावों के परिणामों को साथ जोड़ा जाए तो भाजपा के लिए यह सब बहुत संतोष जनक है। मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार को राहत मिलेगी और पार्टी में ज्योतिरादित्य सिंधिया की स्थिति सम्भलेगी। हरियाणा की बरोदा सीट कांग्रेस ले गई है। यह भुपेंद्र सिंह हुड्डा की जीत और किसान ग़ुस्से का असर है। उपचुनावों मे आमतौर पर सत्तापक्ष ही जीतता है इसलिए इनका बहुत महत्व नही है। असली महत्व बिहार के परिणाम का है जिसका असर आने वाले विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। और इसका पूरा श्रेय नरेन्द्र मोदी को जाता है जो एक प्रकार से हार के मुँह से जीत छीनने में सफल रहें हैं।

भाजपा एनडीए में सबसे बड़ी पार्टी बनी है नीतीश कुमार की जनता दल (यू) दूसरे नम्बर पर धकेल दी गई है। अर्थात समीकरण उलट गया है। पहली बार भाजपा इस गठबन्धन को खींच रहीं हैं। श्रेय फिर नरेन्द्र मोदी को जाता है। अगर 15 साल की एंटी-इंकमबंसी अर्थात शासन विरोधी भावना से नीतीश कुमार बच गए तो भी श्रेय नरेन्द्र मोदी को जाता है। देश आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे बड़ी आर्थिक मंदी से गुज़र रहा है पर मोदी की वोट बटोरने और लोगों के साथ सीधा रिश्ता क़ायम करने की क्षमता बेजोड़ है। यह सही है कि उतना वोट नही मिलता जितना लोकसभा के चुनाव में मिला था। 2019 के चुनाव के बाद और बिहार से पहले जिन चार प्रदेशों के चुनाव हुए थे, हरियाणा कर्नाटक दिल्ली और झारखंड, वहाँ भाजपा का वोट औसत 17 प्रतिशत गिरा था। बिहार में भी 12 प्रतिशत की गिरावट है, पर जो जीता वही मल्लाह !

नरेन्द्र मोदी की धुन के आगे विपक्ष कितना ढीला है यह इस बात से पता चलता है कि जब वह बिहार में पसीना बहा रहे थे राहुल गांधी एकाध सभा कर शिमला के नज़दीक छड़ाबड़ा की हसीन वादी में अपनी बहन के घर थकान दूर कर रहे थे। क्या ऐसा मौसमी और पलायनकर्ता नेता कभी नरेन्द्र मोदी को टक्कर दे भी सकेगा?
केवल ट्विटर के बल पर राजनीति नही हो सकती। महागठबंधन के लिए कांग्रेस पार्टी कमज़ोर कड़ी रही है। उत्तरप्रदेश और गुजरात के परिणाम भी यही बताते हैं कि कांग्रेस कमजोर है। बिहार के परिणाम तेजस्वी यादव को विपक्षी और भावी नेता के तौर पर स्थापित कर गए है पर उन्हें भी मंथन करना है कि यह मौक़ा हाथ से क्यों निकल गया? शायद पिता के समय का ‘जंगल राज’ पीछा नही छोड़ रहा और सवर्ण जातियाँ भरोसा नही कर रहीं। फिर भी संतोष होगा कि उनकी सबसे बड़ी पार्टी है और उम्र उनके साथ है।

यह चुनाव सबसे बुरी ख़बर नीतीश कुमार के लिए है। उनकी पार्टी तीसरे नम्बर पर खिसक गई। इस अवसरवादी नेता ने बहुत पैंतरे बदले है लेकिन अब दीवार पर लिखा पढ़ते हुए एक तरफ़ बैठ जाना चाहिए। उन्होंने बहुत सेवा कर ली है अब आराम करें और उस पार्टी को मुख्यमंत्री बनाने दे जिसको अधिक समर्थन मिला है। भाजपा ने उन्हें भावी मुख्यमंत्री घोषित किया था पर चुनाव परिणाम बता रहें हैं कि लोग नीतीश से बदलाव चाहतें है। सीधा सवाल है कि वह व्यक्ति जिसे लोग रद्द कर चुकें हैं, जिसके ख़िलाफ़ गुस्सा स्पष्ट था, जिसकी पार्टी का प्रदर्शन बेहद कमज़ोर रहा, जो कोरोना संकट से उत्पन्न स्थिति को सही समभाल नही सका और जिसके पास शासन करने की नई सोच नही है,वह कैसा मुख्यमंत्री होंगा? भाजपा को आगे आकर ज़िम्मेवारी सम्भालनी चाहिए क्योंकि बिहार को सही पटरी पर डालने के लिए ‘डबल इंजन’ का नया ड्राइवर चाहिए।

नीतीश कुमार के हश्र पर आँसू बहाए नही जाएँगे। यह सही है कि उन्होंने लालू के ‘जंगल राज’ से बिहार को मुक्ति दिलाई थी। क़ानून और व्यवस्था को स्थापित करते हुए सड़कें और पुल बनाए और बिजली दी। एक समय तो नीतीश कुमार को विपक्ष का भावी प्रधानमंत्री देखा गया था। लेकिन कहीं अपने घमंड और राजनीतिक कलाबाज़ी खाने की क्षमता को अधिक आँकते हुए उनका लोगों और उनकी तकलीफ़ों से रिश्ता टूट गया जो माइग्रेंट अर्थात प्रवासी मज़दूरों के संकट के दौरान साफ़ नज़र आया जब वह तीन महीने घर से नही निकले। लॉकडाउन के दौरान कई सौ किलोमीटर पैदल अपने परिवार के साथ अपने गाँव को निकले प्रवासियों का दृश्य इस राष्ट्र को बहुत परेशान करेगा। यह प्रवासी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, उड़ीसा आदि कई प्रदेशों से थे लेकिन किसी भी सरकार और मुख्यमंत्री ने उनके प्रति वह बेरुख़ी नही दिखाई जो बिहार सरकार और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिखाई, जो बात मैं भी कई बार लिख चुकां हूं। सड़कों और रेल पटकी पर बड़ी त्रासदी देश को नज़र आ रही थी केवल नीतीश कुमार यह अहसास दे रहे थे कि वह अंजान हैं। यहाँ तक कह दिया कि जहॉं हो वहीं रहो। अर्थात मुझे परेशान मत करो। नीतीश एकमात्र नेता थे जिन्होंने अपने लोगों को वापिस लाने में अक्षम्य और निर्दयी बेरुख़ी दिखाई थी।

वैसे नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार का रिश्ता भी विचित्र रहा है। 2010 के चुनाव से पहले नीतीश कुमार ने भाजपा नेताओं के लिए रात्रि भोज इसलिए रद्द कर दिया था क्योंकि नरेन्द्र मोदी भी आने वाले थे और पटना में भाजपा के होर्डिंग पर मोदी का चित्र लगा था। 2013 में वह एनडीए को इसलिए छोड़ गए थे क्योंकि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार पेश किया जारहा था। पर अब पासा पलट चुका है। अपने चौथे कार्यकाल के लिए वह मोदी पर निर्भर हैं। मोदी ने भी हिसाब बराबर कर दिया। एक चुनावी सभा में नीतीश कुमार के पुराने कटाक्ष कि ‘मंदिर वहाँ बनाएँगे पर तिथि नही बताएँगे’, का बदला यह कह कर ले लिया कि ‘जो कहते थे कि तारीख़ नही बता रहे उन्हें तारीख़ बता दी गई’।

लेकिन बिहार की समस्या अलग और बहुत बड़ी है। औद्योगिकरण नही हुआ। बेरोज़गार दर 46 प्रतिशित है जो 22 प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से दोगुना है। 2019-2020 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय 46664 रुपए थी जबकि देश की औसत 1.34 लाख रूपए थी। पिछले 30 वर्षों मे वहाँ लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की ‘मज़बूत’ सरकारें रही है पर बिहार गिरता ही गया। अर्थ व्यवस्था को सुधारने की जगह यह दोनों जातीय जोड़तोड़ और जातीय राजनीति मे लगे रहे और देश तथा बिहार के बीच फ़ासला बढ़ता गया। तेजस्वी इस हक़ीक़त को समझ गए है इसलिए 10 लाख नौकरियाँ देने का विशाल वायदा किया। इस वायदे को पूरा करने के लिए अरबों रूपए चाहिए जो है नही है,लेकिन अगली सरकार को रोज़गार की इस बृहत् समस्या से जूझना पड़ेगा। लोगों को रोज़ी रोटी की भारी और गम्भीर समस्या है। दिल्ली से कईयों को सीधा पैसा भेजा गया जिसका असर हुआ लगता है। भाजपा ने भी उस टीके को मुफ़्त देने का वायदा कर दिया जो अभी तैयार नही और बिहार का मैडिकल ढाँचा इतना कमज़ोर है कि टीका वितरण को सही समभाल नही सकेगा।

कब तक बिहारी प्रदेश के बाहर हर चीज़, पढ़ाई-दवाई-कमाई के लिए भटकते रहेंगे ? लोगों को भी समझ आ गई कि कथित समाजिक न्याय से पेट नही भरता। भाजपा के नेतृत्व को भी यह हक़ीक़त समझनी चाहिए कि देश बदल गया है, कोरोना से उत्पन्न आपदा ने इसे बदल डाला। उजड़े और परेशान लोगों की प्राथमिकता अलग है उन्हें भावनात्मक मुद्दे छूते नही। अव्वल तो कथित ‘लव जिहाद’ पर संविधान सम्मत क़ानून नही बन सकता और अगर बन भी गया तो उससे रोज़ी रोटी रोज़गार मिलेगा क्या?गृहमंत्री संसद में कह चुकें हैं कि ‘लव जिहाद’ की कोई परिभाषा नही और न ही कोई केस ही सामने आया है फिर भी कुछ भाजपा मुख्यमंत्री इस पर क़ानून बनाना चाहतें हैं। इन में हरियाणा के मनोहरलाल खटटर भी है जो एक उपचुनाव नही जीत सके। भाजपा के कुछ नेता फ़ालतू बातों में क्यों लगे रहतें हैं?

जब तक बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का कायाकल्प नही होता देश क्षमता के अनुसार तरक़्क़ी नही कर सकेगा। बिहार विशेषतौर पर ग़रीबी और पिछडेपन का पर्यायवाची बन चुका है। विडम्बना है कि प्रतिभा इतनी है कि आईएएस और आईपीएस में 20-25 प्रतिशत भर्ती बिहार से होती है और देश भर के उच्च मैडिकल और टैक्नालिजी संस्थान बिहारी छात्रों से भरे हुए हैं। इतनी प्रतिभा होने के बावजूद प्रदेश दरिद्रता और जातीय और धार्मिक दलदल में फँसा हुआ है। क्या यह चुनाव यह तस्वीर बदलेगा? बहरहाल इन परिणामों ने सब आंकलन रद्द कर दिए है और जिन्हें रद्द किया था वह आज मज़े से कह सकतें हैं,
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देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ !

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.