केन्द्र सरकार और पंजाब के किसान संगठनों के बीच मैराथॉन वार्ता बेनतीजा रही। यह बताया गया कि वार्ता अच्छे माहौल में हुई और शायद फिर होगी,पर गतिरोध नही टूटा। सरकार का कहना है कि नए तीन क़ानूनों से कृषि के क्षेत्र में बहुत समय से लटका सुधार होगा जबकि किसान महसूस करते हैं कि भारी नुक़सान होगा और उन्हें कारपोरेट के आगे बेच दिया जाएगा। इस गतिरोध का परिणाम है कि 24 सितम्बर से पंजाब में रेल सेवाएँ बंद हैं। किसान संगठन कह रहे हैं कि वह केवल माल गाडियीं ही चलने देंगे जबकि सरकार अड़ी हुई है कि चलेंगी तो दोनों माल और यात्री गाड़ियाँ,नहीं तो कोई गाड़ी नही चलेगी। इसके लिए किसान संगठन तैयार नही। किसानों ने पटरी तो ख़ाली कर दी पर रेल परिसर पूरी तरह से ख़ाली नही किए।
किसानों को घबराहट है कि धीरे धीरे सारी सब्सिडी और एमएसपी व्यवस्था खत्म कर दी जाएगी और उन्हें कारपोरेट के सहारे छोड़ दिया जाएगा जबकि प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री दोनों कह चुकें हैं कि एमएसपी समाप्त नही की जाएगी। पर किसान आश्वस्त नही है। मैंआज इन तीन कृषि क़ानूनों के गुण या अवगुण के बारे नही लिख रहा केवल इतना कहना है कि बेहतर होता कि इतना बड़ा क़दम उठाने से पहले केन्द्र सरकार सभी सम्बन्धित पक्षों से बात कर लेती। इतना बड़ा बदलाव करने से पहले किसानों को धैर्य से समझाया जाना चाहिए था जो नही किया गया।इस टकराव का भारी आर्थिक और समाजिक नुक़सान हो रहा है। जिस वक़्त लॉकडाउन के कारण पंजाब की अर्थ व्यवस्था कमज़ोर हो चुकी है इस गतिरोध ने आम पंजाबी, उद्योगपतियों और ख़ुद किसानों की तकलीफ़ बढ़ा दी है। रेलें बंद होने के कारण बाहर से यूरिया नही आ रहा जिस कारण किसान भी परेशान हैं।
पंजाब में कच्चा माल नही आ रहा और न ही तैयार माल बाहर जा रहा है। सड़क के रास्ते यह आवाजाही मंहगी रहती है। बाहर से कोयला न आने के कारण थर्मल प्लांट बंद है और पंजाब को नैशनल ग्रिड से बिजली ख़रीदनी पड़ रही है। उद्योगपति एक महीने में कई हज़ार करोड़ रूपए के घाटे की शिकायत कर रहें हैं। पंजाब कि अर्थ व्यवस्था मुश्किल से पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रही थी कि यह नई समस्या पैदा हो गई। यह एक प्रकार से एक और लॉकडाउन है। पंजाब से निर्यात भी बुरी तरह से प्रभावित हो रहा हैकई आर्डर रद्द हो रहें हैं। यात्री गाड़ी बंद होने के कारण आम आदमी अलग परेशान है। कई दिवाली के लिए घर नही जा सके। बेरोज़गारी फिर बढ़ रही है। बड़े दुख कि बात है कि सेना भी इस गतिरोध से प्रभावित हुई है क्योंकि माल गाड़ी बंद होने के कारण जम्मू कश्मीर और लद्दाख में जवानों के लिए सर्दियों की रसद सामान्य ढंग से नही भेजी जा सकी। आम तौर पर जो रसद 15-20 माल गाड़ियों द्वारा भेजी जाती है उसे सड़क के द्वारा भेजना पड़ा। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह ने सावधान किया था कि रेल रूकने से पंजाब और जम्मू कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश ही नही सेना की सप्लाई चेन भी प्रभावित होगी। कड़वा सवाल है कि जिन्होंने इस परिस्थिति में रेलें रोकी उन्होंने देश की क्या सेवा की?
पंजाब में अपने किसानों की बहुत इज़्ज़त है। आख़िर अर्थव्यवस्था प्रमुखता से किसानी पर निर्भर है। पंजाब के किसान का देश के प्रति योगदान भी बड़ा है। उसकी मेहनत ने देश को खाद्य सुरक्षा प्रदान की और देश अपने लोगों का पेट भरने के लिए किसी औरकी सहायता का मुहताज नही रहा। पंजाब का किसान आभार और इज़्ज़त का अधिकारी है पर उन्हें भी सोचना चाहिए की पौने दो महीने यहां रेल रोक कर वह पंजाब की क्या सेवा कर रहें हैं? वह उस पंजाबी को किस बात की सज़ा दे रहें हैं जो उनका समर्थक है? किसान संगठनों का तर्क है कि जब तक आन्दोलन नही करते तब तक सरकार बात नही सुनती पर उनका आन्दोलन पंजाब में है जबकि बात सुनने वाले दिल्ली में हैं जिनकी सेहत पर पंजाब में हो रहे आन्दोलन का कोई असर नही। एक दिन यहाँ हाईवे रोक दिया गया। किसका नुक़सान हुआ ? अगर यहाँ पावरकट लग रहें हैं और बेरोज़गारी बढ़ रही है तो दिल्ली वालों को तो कोई तकलीफ़ नही। किसानों को अपना रोष प्रकट करने का पूरा हक़ है पर उनके आन्दोलन का शिकार तो आम पंजाबी हो रहा है। यही कारण है कि यहाँ इस आन्दोलन के प्रति सहानुभूति कम हो रही है। किसानों को जब भी कोई तकलीफ़ होती है वह अपने पंजाब में रेल और सड़क यातायात रोक कर बैठ जातें हैं। यह कितना जायज़ है? अगर किसानों की माँगे न्याय संगत भी मान ली जाए रेल ट्रैक पर बार बार क़ब्ज़ा जायज़ नही ठहराया जा सकता।
पंजाब सरकार का रवैया भी सही नही जो रेल या सड़क मार्ग रोकने वाले किसानों के ख़िलाफ़ कुछ भी कार्यवाही करने को तैयार नही। सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। नज़रें फ़रवरी 2022 में होने वाले चुनाव पर लगी लगती है विशेषतौर पर इसलिए भी क्योंकि खोई ज़मीन हासिल करने के लिए अकाली दल सक्रिय हो चुका है। शहीन बाग़ मामले में सुप्रीम कोर्ट फ़ैसला सुना चुका है कि विरोध का अधिकार सब के पास है पर सार्वजनिक जगह पर नही। यहाँ पंजाब सरकार अपनी संवैधानिक ज़िम्मेवारी से भागती नज़र आ रही है लेकिन इस विवाद का समाधान निकालने की सबसे बड़ी ज़िम्मेवारी बड़ी सरकार अर्थात केन्द्र सरकार की है। किसानों के साथ वार्ता अब की गई,अगर यही प्रयास एक महीने पहले किया गया होता तो अब तक कोई न कोई समाधान निकाला जा चुका होता,पर मामला लटकने दिया गया।
यह कोई तर्क नही कि अगर यात्री गाड़ी नही चलेगी तो माल गाड़ी भी नही चलेगी। ठीक है ट्रैक की सुरक्षा जरूरी है पर यह कोई पैकेज डील नही कि माल और यात्री गाड़ियाँ इकट्ठा चलेंगी नहीं तो नही चलेंगी। केन्द्र सरकार पंजाब की विशेष परिस्थिति को भी नज़रअंदाज़ कर रही है। यह वह सीमावर्ती प्रांत है जहाँ जम्मू कश्मीर के बाद पाकिस्तान की शरारत सबसे अधिक है। यहाँ ऐसा गतिरोध राष्ट्रीय हित में नही है और सामरिक ख़तरा पैदा करता है। पंजाब में असंतोष की देश पहले भी बड़ी कीमत चुका हटा है अब फिर वह आवाज़ें तेज़ हो रही हैं कि ‘पंजाब के साथ धक्का हो रहा है’। अगर यह गतिरोध लम्बा चला तो किसानों और युवाओं में असंतोष फैलेगा जो किसी के हित में नही होगा। हमें दुष्मन को दखल का मौक़ा नही देना। यहाँ उग्रवाद के इतिहास तथा पाकिस्तान और विदेशों में बैठे खालिसतानी तत्वों दवारा इसे हवा देने के प्रयास को देखते हुए केन्द्र सरकार को इस मसले को हल करने के लिए तेज़ी दिखानी चाहिए। केन्द्र पंजाब से ख़फ़ा है कि विधानसभा बुला कर एक प्रकार से कृषि सम्बन्धी केन्द्रीय क़ानूनों को रद्द करने का प्रयास किया गया। लेकिन अब तो काफ़ी समय निकल चुका है बीच का रास्ता निकाल कर इस आन्दोलन को ख़त्म करने का प्रयास करना चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि किसान की आन्दोलन करने की क्षमता बहुत है। उसे न ऐ सी चाहिए न हीटर चाहिए। वह बारिश या प्रदूषण या कोविड से भी नही डरता। उसे समझा बुझा कर शांत करने की ज़रूरत है।
हमारी व्यवस्था संघीय है। देश में भिन्नता भी बहुत है।एक साइज़ सबको फ़िट नही आता। हो सकता है कि जिस क़ानून को पंजाब का किसान पसन्द न करता हो वह केरल के किसान को पसन्द आ जाए। प्रादेशिक भावना का सदैव ध्यान रखा जाना चाहिए।हर मामले में यहाँ ‘एक क़ानून’ लागू नही हो सकता है। अगर करना है तो व्यापक विमर्श की ज़रूरत है, जो इस मामले में किया नही गया। प्रदेशों की आपतियों तथा शिकायतों को नजरदाज कर विवाद बढ़ेंगे। यहाँ तो लोगों ने पटाखों पर पाबन्दी का ही पटाखा बना उड़ा दिया ! पहले ही पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और केरल से केन्द्र का टकराव चल रहा था अब पंजाब से भी शुरू हो रहा है। केन्द्र सरकार के प्रति यह शिकायत बढ़ेगी की वह विपक्षी सरकारों से सहयोग नही करती। इस सरकार के कार्यकाल के दौरान आँध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ के बाद पंजाब ने भी सीबीआई को अपने प्रांत में आपरेट करने की अनुमति वापिस ले ली है। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद जिस तरह ज़बरदस्ती महाराष्ट्र पुलिस से मामला छीन कर सीबीआई को सौंपा गया और सारी क़वायद निरर्थक निकली उस से इस एजंसी की विश्वसनीयता पर और बट्टा लगा है। फिर टीआरपी के मामले में सरकार के पसन्दीदा चैनल पर आरोप लगने के बाद जब मामला फिर सीबीआई को सौंपने का प्रयास किया गया तो महाराष्ट्र सरकार ने अपने प्रांत में दखल की अनुमति वापिस ले ली। इस प्रमुख एजंसी की विश्वसनीयता और दायरा दोनों सिंकुडते जा रहें हैं। अगर इसका इस्तेमाल राजनीतिक हितों के लिए किया जाएगा तो ऐसा होगा ही।
बहरहाल किसान आन्दोलन चल रहा है। राजहठ और किसान हठ के बीच देश और पंजाब सबका अहित हो रहा है। राष्ट्रीय हित में केन्द्र को उदारता दिखा बीच का रास्ता निकाल मामला सुलझाना चाहिए, पंजाब सरकार को अपनी संवैधानिक ज़िम्मेवारी निभानी चाहिए और किसानों को ख़ुद से पूछना चाहिए की वह आम पंजाबी को किस बात की सज़ा दे रहें हैं?
यह गतिरोध टूटना चाहिए This Deadlock Must End,