चीन में उत्पन्न कोरोना वायरस से बुरी तरह से आहत दुनिया को इन ख़बरों सेराहत मिली है कि इस महामारी से लड़ने के लिए वैक्सीन तेज़ी से तैयार की जा रही है। लगभग 150 कम्पनियाँ वैक्सीन बनाने में धड़ाधड़ लगी है और कुछ अंतिम चरण तक पहुँच चुकीं हैं। आशा है कि एक बार वैक्सीन लगनी शुरू होजाएगी और लोगों में इस से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाएगी तो वायरस का प्रसार कम होना शुरू हो जाएगा। अमेरिका के ब्राउन विश्वविद्यालय के पब्लिक हैल्थ स्कूल के डीन डा. आशीष के झा का कहना है कि आजकल हम कोरोना की ‘अंतिम बड़ी लहर देख रहें हैं’ और अगले साल से यह लहर सिमटनी शुरू हो जाएगी। दिल्ली के एम्स के डायरेक्टर डा. रणदीप गुलेरिया का भी कहना है कि ‘सुरंग के अंत में रोशनी नज़र आ रही है’। फाइज़र और मॉडर्ना की वैक्सीन अगले महीने से अमेरिका में एमरजैंसी इस्तेमाल के लिए उपलब्ध होनी शुरू हो जाएँगी। लेकिन इन दोनों ही वैक्सीन से भारत को उम्मीद नही है। एक, इनका भारत में क्लिनिक्ल परीक्षण नही हुआ और दूसरा,इन्हें सुरक्षित रखने और इनका वितरण करने का प्रबन्ध यहाँ नहीं है। फाइज़र की वैक्सीन को -70 डिग्री तापमान में और मॉडर्ना को -20 डिग्री तापमान में रखना होगा। इन्हें सम्भालने के लिए हमारे पास कोल्ड स्टोरेज सुविधा उपलब्ध नही है। हमारे लिए वह ही वैक्सीन कारगर रहेगी जिसका परीक्षण यहाँ हुआ हो और जो हमारी परिस्थिति के अनुकूल हो। हम अच्छी स्थिति में भी है क्योंकि हम दुनिया मे सबसे अधिक दवा बनाने का केन्द्र है और इसके लिए हमें औरों की तरफ़ नही देखना पड़ेगा। हमारी बड़ी जनसंख्या, विशाल क्षेत्र, विभिन्नता, ग़रीबी और कई मामलों में पिछड़ापन,तथा वितरण की समस्या बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन सरकार तथा निजी दवा बनाने वाली कम्पनियों के प्रयास से हम काफ़ी हद तक तैयार लगतें हैं।
सीरम इंस्टीट्यूट जो आक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका वैक्सीन बना रहा है और जो इस वक़्त सबसे सफल प्रयास नज़र आरही है, अब मार्केट में वैक्सीन उतारने के लिए तैयार है। वृद्ध लोगों में इसकी सफलता से यह आशा बढ़ी है कि यह हमारी परिस्थिति में सही रहेगी। कम्पनी का भी दावा है कि 90 प्रतिशत तक सफलता है। अगर इसके अंतिम परीक्षण के परिणाम सही रहे तो अगले महीने कम्पनी इसके एमरजैंसी इस्तेमाल की अनुमति का आवेदन देगी। वह निर्यात भी कर रहे हैं पर सीरम कम्पनी का कहना है कि 50 प्रतिशत दवा भारत के लिए होगी। तीसरे चरण का परीक्षण दिसम्बर के पहले सप्ताह तक समाप्त हो जाने की सम्भावना है और जनवरी तक यह वैक्सीन उपलब्ध हो सकतीहै।देश के अन्दर चार और कम्पनियाँ भी वैक्सीन बनाने में लगी हैं। स्वास्थ्य नीति आयोग के सदस्य डा. वी के पॉल के अनुसार एक समय ऐसा भी आजाएगा कि लोगों के सामने ‘मल्टीपल चौयस’ अर्थात कई विकल्प होंगे और वह तय कर सकेंगे कि कौनसी वैक्सीन का प्रयोग करना है। इस समय सबसे अधिक आशा सीरम इंस्टीट्यूट की एस्ट्रोजेनेका वैक्सीन से है जिसकी 10 करोड़ दवा तैयार हो चुकी है। इसे आसानी से स्टोर किया जा सकता है जिसका मतलब है कि वितरण भी आसान है। वैक्सीन के कोई साइड इफैक्ट अर्थात प्रतिकूल प्रभाव भी नही मिले।
दुनिया भर में भी वैक्सीन बनाने में वह तेज़ी देखी जा रही है जो पहले नही देखी गई। साइंस ने भी तय कर लिया लगता है कि वह इस वायरस को पराजित किए बिना चैन नही करेंगें। जिस काम को पहले दस वर्ष लगते थे उसे दस महीनों में सीमित किया जा रहा है। हमारा देश इस मामले में किसी से पिछड़ा नही। हमारे पास पर्याप्त वैज्ञानिक और डाकटर हैं जो रिसर्च कर रहें हैं। अमेरिका स्थित डयूक ग्लोबल हैल्थ इनोवेशन सेंटर के अनुसारअमेरिका के बाद भारत के पास वैक्सीन बनाने की सबसे अधिक क्षमता है। इनके अनुसार भारत ने 60 करोड़ टीका तैयार कर रखा है और एक अरब टीका ख़रीदने के लिए बाहर बात चल रही है। आगे लिखने से पहले मैं यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि कोरोना से निबटने में भारत सरकार को अच्छे नम्बर मिलतें हैं। चाहे कुछ लोग आलोचना करतें हैं पर अगर शुरू में लॉकडाउन न लगता तो बहुत तबाही होती, लाखों और मारे जाते। उस वक़्त हम बिलकुल बेतैयार थे। न मास्क थे, न पीपीइ किट थे, न पर्याप्त वैंटीलेटर थे, न अस्पतालों में बैंड थे और न ही मैडिकल समुदाय इसका सामना करने के लिए तैयार ही था। लॉकडाउन से भारी आर्थिक हानि हुई पर हम लाखों ज़िन्दगियाँ बचाने में सफल रहे। सरकार ने भी लोगों के साथ लगातार संवाद रखा। प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद जनता को सावधान करते आ रहें हैं। अगर हम अमेरिका का हाल देखें जहाँ 260000 लोग मारे जा चुकें हैं तो समझ आजाएगी कि हम कितने बेहतर रहें हैं। यह भी दिलचस्प सवाल है कि हम बेहतर स्थिति में क्यों हैं? क्या एक बड़ा कारण यह है कि हमारे मे प्रतिरोधक क्षमता इसलिए है कि हम प्रदूषित वातावरण में जन्मे पले है इसलिए बीमारी का सामना करने में पश्चिम के लोगों, जो साफ़ सुथरे वातावरण में रहतें हैं, से बेहतर हैं?
लेकिन आगे विशाल चुनौती है। हमारी जनसंख्या ही इतनी है कि सीरम इंस्टीट्यूट के सीइओ अदार पुनावाला का कहना है कि सारे देश में वैक्सीन लगाने का काम 2024 तक ही पूरा हो सकेगा। वैक्सीन लगाने के लिए पर्याप्त सिरिंज, गेज,वाइल इत्यादि यहाँ सब उपलब्ध हैं पर क्या 130 करोड़ आबादी को टीका लगाने के लिए पर्याप्त डाक्टर या हैल्थ वर्कर उपलब्ध हैं? देश में कोल्ड स्टोरेज तथा रैफरीजिरेटर चेन केवल 55 से 60 करोड़ डोज़ के लिए ही उपलब्ध है और वितरण का जो ढाँचा है वह बीमारी से बच्चों को बचाने तक के लिए सीमित है। लेकिन अच्छी ख़बर यह है कि भारत में बन रही वैक्सीन को सुरक्षित रखने के लिए बहुत कम तापमान की ज़रूरत है और इसे आम रैफरीजिरेटर में सुरक्षित रखा जा सकता है। लेकिन कुछ आशंकाएँ है। अभी तक इसका परीक्षण सीमित संख्या पर किया गया है, क्या यह तब भी ऐसी सफलता रहेगी जब इसका व्यापक इस्तेमाल होगा? आम जनसंख्या में जहाँ अलग अलग परिस्थिति, आयु और बीमारीहो वहाँ सफलता कितनी मिलेगी? क्या दो बार वैक्सीन लगानी पड़ेगी और इसका असर कब तक रहेगा? क्या जिसे टीका लग गया वह संक्रमण नही फैलाएगा? और क्या लोग आसानी से टीका लगाने के लिए तैयार हो जाएँगे? हमारे देश में टीका विरोधी भावना भी है। पोलियो की बूँदे स्वीकार करने में भी समाज ने समय लिया था। बहुत लोग ऐसे हैं जो पहले दूसरों पर प्रभाव देखना चाहेंगे। हरियाणा के मंत्री अनिल विज जिन्होंने टीका लगाने के लिए ख़ुद को पेश किया था,जैसे बहुत लोग यहाँ नही है।
लेकिन वैक्सीन के मामले में मैं आशावादी हूँ। एक कारण है कि हमारे पास दवा बनाने और वितरण का ढाँचा उपलब्ध है इसे केवल अप ग्रेड करने की ज़रूरत है।सरकार भी 30 करोड़ लोगों को प्राथमिकता से टीका लगाने की बात कर रही है। लेकिन मेरी आशा का बड़ा कारण है कि मुझे सरकार पर विश्वास है कि वह सही तरीका से टीकाकरण से निबटेगी। प्रधानमंत्री ख़ुद बैठकें कर रहें हैं। अभी से पूरी तैयारी कर ली गई है कि जल्द से जल्द वैक्सीन लोगों तक पहुँचाई जा सके। सरकार की प्रतिष्ठा भी दाव पर है। लेकिन केन्द्रीय सरकार तथा विभिन्न सरकारों की असफलता दूसरी है, वह कोरोना के फैलाव को रोक नही सके। लगाम ढीली छोड़ दी गई लगती है फिर लहर बढ़ती नजर आ रही है। सबसे भयावह स्थिति राजधानी दिल्ली की है। दिल्ली की हालत तो दो मुललाओं में मुर्ग़ी हराम वाली है। केन्द्र और दिल्ली सरकार की खींचातानी में कई बार दिल्ली लावारिस लगती है। ऐसा कब तक चलेगा?
त्योहार सीज़न,सर्दी की आहट और भारी प्रदूषण ने दिल्ली और उत्तर भारत में स्थिति गम्भीर कर दी है। लोग भी बेख़ौफ़ हो गए है और पाबंदियों से चिढ़ते है जो देश के किसी भी बाज़ार में बिना मास्क पहने टहलते लोगों को देख पता लग सकता है। पाबन्दियों को लेकर थकावट भी है। कई लोगों के लिए पार्टी-टाइम शुरू हो चुका है। घूमने फिरने और खाने पीने कीआज़ादी में रूकावट से युवा विशेष तौर पर फड़फड़ा रहें है। यह भी धारणा है कि बीमारी से अधिक डरने की ज़रूरत नही,लेकिन वह यह नही समझते कि उनकी लापरवाही केवल उनके लिए ही नही, उनके निकट सम्बन्धियों, दोस्तों और आसपास के लोगों के लिए भी घातक हो सकती है। आगे मैरिज सीज़न हैलोग फिर बेपरवाह हो जाएँगे।वियतनाम, मलेशिया, तायवान, कोरिया जैसे पूर्वी एशिया के देश दूसरी लहर रोकने में सफल रहें हैं क्योंकि लोग अनुशासन में रहते हुए पाबन्दियाँ स्वीकार करतें है। यहां निजी आज़ादी को सार्वजनिक हित पर तरजीह दी जाती है। यह भी आशंका है कि टेस्टिंग सही और काफ़ी नही हो रही इसलिए आँकड़े सही नही। हांगकांग ने पाँचवी बार एयर इंडिया की फ़्लाइट पर पाबन्दी लगा दी है क्योंकि उसमें से संक्रमित यात्री निकलते हैं।यह यात्री नैगेटिव रिपोर्ट के बाद यहाँ से गए थेवहाँ वह पॉसेटिव क्यों पाए गए ? इसका मतलब समझ जाइए।
बहरहाल वैक्सीन को लेकर बहुत आशा है। नज़र आता है कि हम सुरंग के अंत की तरफ़ सही बढ़ रहें हैं पर रास्ता कितना लम्बा है, कितनी देर लगेगी, कितने लोग वहाँ पहुँच सकेंगे और रास्ते मे क्या क्या रूकावटें आएँगी,इसे लेकर कुछ अनिश्चितता और कई आशंकाएँ हैं।
कोरोना वैक्सीन : आशा और आशंका Vaccine : Hope and Doubts,