अपनी किताब ‘द इंडिया वे ‘ में विदेश मंत्री एस जयशंकर चीन के बारे लिखतें हैं, “एक समाज जिसने छल को शासन कला के उच्चतर स्तर पर पहुँचा दिया वह है चीन”। इसका उदाहरण वह चीन की प्रसिद्ध किताब ‘बुक ऑफ़ क्वि’ में दी गई कहावतों से देतें हैं, ‘समुद्र पार करने के लिए आसमान को धोखे में रखना’, ‘पूर्व में आवाज़ कर फिर पश्चिम पर हमला करना’,‘पेड़ों को नक़ली फूलों से सजाना’ इत्यादि। जयशंकर बतातें हैं कि भारत से भिन्न चीन में इस छलकपट के बारे न कोई अपराध बोध है न कोई शंका, उलटा इसका कला के तौर पर गुणगान किया जाता है।
भारत को चीन की कपट की नीति अच्छी तरह समझ आ रही है। जब वुहान में या मामल्लापुरम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी ज़िनपिंग के बीच अच्छी बात हो रही थी तो चीन हमारी ज़मीन के हिस्से पर क़ब्ज़ा करने की योजना बना रहा था, ‘पूर्व में आवाज़ कर पश्चिम पर हमला’ की तैयारी हो रही थी। इस की पराकाष्ठा गलवान का टकराव था जिस में हमारे 20 सैनिक शहीद हो गए और चीन ने अपने हताहतों की संख्या छिपा ली। अभी तक लद्दाख क्षेत्र में गतिरोध बना हुआ है। 15000 फ़ुट की उंच्चाई तक पर दोनों के 50000-50000 सैनिक तैनात है। कोर कमांडर स्तर की आठ बैठकें हो चुकीं है पर नतीजा सामने नही आया। इस मौसम में लद्दाख के पर्वतीय क्षेत्र पर 40 फ़ुट तक बर्फ़ जम जाती है। चीन ने समझा होगा कि इस बर्फ़ीली हालत में भारत समझौते के लिए इच्छुक होगा, लेकिन यह अलग अधिक आश्वस्त भारत है। हमारे सैनिक भी सियाचिन जैसे इलाक़े में रहने के अभ्यस्त हैं इसलिए सर्दी में पूरे बंदोबस्त के साथ जमें हुए हैं।
हमारे लिए यह बड़ी चुनौती है क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था बहुत सेहतमंद नही है और हम कोरोना की मार भी झेल रहें हैं। पर चीन और उसके राष्ट्रपति शी ज़िनपिंग के लिए भी बड़ी समस्या है। उनकी सारी योजना को फ़ेल करते हुए भारत अड़ गया है और झुकने या पीछे हटने के लिए तैयार नही। उलटा हमने कुछ उन चोटियों पर क़ब्ज़ा कर लिया है जो पहले चीन के नियंत्रण में थीं। शी ज़िनपिंग को भी आभास हो गया होगा कि भारत के साथ टकराव छेड़ना आसान है उसे किसी नतीजे पर पहुँचाना उतना आसान नही है। इस टकराव की हमें कीमत चुकानी पड़ेगी पर चीन भी अछूता नही रहेगा।
चीन 1962 से बहुत अधिक शक्तिशाली है और इसी घमंड में एशिया पर हावी होना चाहता है। इस मक़सद की पूर्ति के लिए वह भारत को मातहत बनाना चाहता है पर यह 1962 का भारत भी नही है।भारत की ताक़त और भारत की सोच बिलकुल बदल चुकी है। नरेन्द्र मोदी का भारत बिलकुल अलग है। हम रक्षात्मक नही हैं। भारत में इस बात पर पर एकमत है कि चीन एक वैरी देश है और उसका मुक़ाबला इसी तरह करना होगा। सीमा पर डट कर भारत ने न केवल चीन बल्कि सारी दुनिया को य़ह संदेश भेज दिया है कि चीन की धौंस को सीमित किया जा सकता है। जैसे विदेशी समीक्षक भी कह रहें हैं, आधी शताब्दी के बाद हमारे सैनिकों ने गलवान में इतना तीखा जवाब दिया है। न्यूज़वीक पत्रिका में गॉर्डन जी चैंग लिखते हैं, “कम से कम इस वक़्त भारत के सैनिकों के पास वह क्षेत्र है जो पहले चीन के क़ब्ज़े में था”। 1962 का ज़ख़्म हरा कर चीन ने अपना नुक़सान किया है।
भारत नरम पडने को तैयार नही है। उलटा और चीनी एप्स पर पाबन्दी लगा कर अपनी दृढ़ता और संकल्प स्पष्ट कर रहा हैं। चैंग लिखतें हैं, “भारतीय सैनिक निर्भयता दिखा रहें हैं…खेल बदल गया और भारत वास्तव में अधिक आक्रामक और साहसी और बेहतर है”। यह संदेश भी भेज दिया गया है कि भारत चीन के दूसरे पड़ोसियों की तरह झुकने के लिए तैयार नही और न ही हमारे साथ ज़बरदस्ती की जा सकती है। चीन की सेना पीएलए ने अंतिम लड़ाई 1979 में वियतनाम को ‘सबक़ सीखाने के लिए’ लड़ी थी और शर्मनाक हार खाई थी। पैंगोंग झील के दक्षिण में कैलाश रेंज की चोटियों पर क़ब्ज़े से भारत को भारी सामरिक बढत मिली है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इससे चीन का मॉलडो क्षेत्र हमारी रेंज में आगया है। चीन को भी समझ आगई है कि चुनौती देने का खेल दोनों खेल सकते हैं और भारत की सेना बराबर जवाब देगी क्योंकि सरकार की तरफ़ से उन्हें हरी झंडी है। मौसम साफ़ होने और बर्फ़ पिघलने के बाद चीन ज़रूर फिर शरारत की कोशिश करेगा पर यह भी मालूम है कि माक़ूल जवाब मिलेगा।
दोनों देशों के बीच वार्ता में सौदेबाज़ी में भारत की स्थिति मज़बूत हो गई है। लंडन के किंग्स कॉलेज के प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत ने लिखा है, “बीजिंग को संदेश है कि अगर ज़रूरत पड़ी तो संकट की स्थिति में भारत लड़ने के क़ाबिल और तैयार है”। चीन की हमारे से बहुत अधिक सैनिक ताक़त है पर एक, वह अपने पूर्व में भी पड़ोसियों से उलझा हुआ है। दूसरा, हमारी सेना को उच्चाई पर लड़ने का अभ्यास है और तीसरा, हमारे पास इतनी सैनिक ताक़त है कि हम अड़ सकते हैं और चीन के मनसूबों पर पानी फेर सकतें हैं। चीन की यह भी समस्या है कि अंतरराष्ट्रीय स्थिति उसके ख़िलाफ़ हो रही है। अमेरिका हाथ धो कर पीछे पड़ा हुआ है और उनकी ताक़त को सीमित कर रहा है। नए बनने वाले राष्ट्रपति बाइडेन भी ट्रंप की नीति पर ही चलेंगे। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वह ‘अमेरिका, मित्र देशों और साथियों के साथ मिल कर चीन के निन्दात्मक व्यवहार का सामना करने के लिए’ संयुक्त मोर्चा बनाएगा। कहने की ज़रूरत नही कि साथी देशों में प्रमुख भारत है। भारत ने भी हिचकिचाहट छोड़ दी है और एक जैसी सोच वालें देशों से सामरिक रिश्ते मज़बूत करने में लगा है।
इस गतिरोध के तोड़ने के लिए शी के पास दो ही विकल्प है। एक, अपनी सेना को वापिस बुला लें और विशेष तौर पर पैंगोंग का फ़िंगर 4 से 8 का क्षेत्र ख़ाली कर दें। दूसरा विकल्प युद्ध है जो न वह जीत सकतें हैं, न हम। दोनों का नुक़सान होगा पर अंत फिर गतिरोध में ही होगा। हमें बहुत धक्का पहुँचेगा पर चीन की प्रतिष्ठा पर भी भारी बट्टा लगेगा। इसीलिए चीन दूसरे दबाव बनाने में व्यस्त हैं पर भारत का सैनिक और कूटनीतिक जवाब बताता है कि हम भी विकल्पहीन नही हैं और न ही इन विकल्पों के इस्तेमाल से भारत घबराता है। चीन ने भारत के ताकत और राष्ट्रीय संकल्प को कम आँकने की ग़लती की है जिसका परिणाम दोनो देश भुगत रहें हैं। शी ज़िनपिंग भारत को नीचा दिखाना और दोनों के बीच अंतर को स्पष्ट करना चाहते थे ठीक जैसे माओ से तुंग ने 1962 में किया था,लेकिन परिस्थिति अलग है और कुछ किलोमीटर ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने के प्रयास में वह भारत की जनता की सद्भावना खो बैठे है जो अब चीन को नफ़रत की नज़र से देखते हैं। इससे आर्थिक सम्बन्ध भी बुरी तरह से प्रभावित हो रहें हैं और चीनी कम्पनियों के लिए यहाँ मौक़े कम होते जा रहें हैं। ‘बिज़नस एज़ युजयल’ नही हो सकता। चीनी एप्स पर यहाँ लग रहीं पाबन्दियों से वह जिस तरह छटपटा रहें हैं,से पता चलता है कि कहीं तकलीफ़ हो रही है।
एलएसी पर चीन की हरकत ने दोनों के रिश्तों को एतिहासिक और निर्णायक मोड़ की तरफ़ धकेल दिया है। अविश्वास चरम पर है। अब यहाँ कोई ‘दोनों सभ्यताओं के शांतिमय उभार’ की बात नही करेगा, भाईचारा दफन हो चुका है। भारत अच्छी तरह समझ गया है कि चीन ताकत की बात ही सुनता है कमज़ोर को तो वह रौंद देगा। शी के लिए वापिस जाना या सहयोग की नीति पर चलना मुश्किल होगा क्योंकि वह कमज़ोरी नही दिखाना चाहेंगे और न ही यह प्रभाव देना चाहेंगे कि भारत ने उन्हें वापिसी पर मजबूर कर दिया। चीन में ‘सेविंग फेस’ अर्थात प्रतिष्ठा बचाना बहुत महत्व रखता है। 2021 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चायना की शताब्दी है और उसके अगले साल पार्टी की कांग्रेस का अधिवेशन है। यह दोनों शी के राजनीतिक भविष्य के लिए निर्णायक होंगे क्योंकि वह अपना प्रभाव पक्का करना चाहेंगे। वह भारत के साथ विवाद को लटकता नही छोड़ सकते और उन्हें जीत चाहिए। इसलिए हमे चीन की सेना पर ही नही आंतरिक राजनीति पर भी नज़र रखनी है।
दक्षिण में एक प्रमुख ताकत के साथ स्थाई टकराव चीन के पक्ष में नही विशेष तौर पर जब अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य चीन के विरूद्ध हो रहा है। चीन के बढ़ते क़दमों को रोकने के लिए बड़ी ताक़तें अविरोधक खड़े कर रही है। क्या चीन को ऐसा भारत चाहिए जिसके साथ वह कामकाज कर सके या ऐसा भारत जो सैनिक, कूटनीतिक और आर्थिक समस्या खड़ी कर सकता है और अपने हित के लिए जोखिम उठाने के लिए पैसा और उर्जा ख़र्च करने को तैयार है? जैसे जयशंकर ने अपनी किताब में भी लिखा है, ‘सीमा और रिश्तों का भविष्य जुदा नही किए जा सकते हैं’। यह ‘इंडिया प्राब्लम’ है जो शी ज़िनपिंग को हल करनी है।