यूनानी नाटककार युरीपाइडिस जो ट्रैजिडी लिखते थे ने लिखा है, ‘जिन्हें देवता नष्ट करना चाहें उन्हें वह पहले पागल बना देते हैं’। अपनी देसी भाषा में हम इसे ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ भी कह सकतें हैं। जिस तरह उनके पश्चिम बंगाल के दौरे के दौरान भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के क़ाफ़िले पर हमला किया गया,उसे करवाने वालों की मति भ्रष्ट होने के सिवाय और क्या कहा जाएगा? पत्थरों और ईंटों से उनके क़ाफ़िले पर हमला किया गया और पुलिस मूक दर्शक बनी रही। मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की प्रतिक्रिया कि यह सब नौटंकी है, बताती है कि राजनीतिक हिंसा को वह कितना हल्का लेती हैं। यह बहुत कड़वा और दुर्भाग्य पूर्ण सत्य है कि राजनीतिक हिंसा बंगाल की राजनीति का हिस्सा बन बन चुकी है। क्योंकि अगले चार पाँच महीने में वहाँ चुनाव होने वाले हैं इसलिए हिंसा का ग्राफ़ तेज़ी से उपर जाने की सम्भावना है। अमित शाह का आरोप है कि पिछले कुछ वर्षों में वहाँ 100 से क़रीब भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। यह आँकड़ा कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है पर पिछले ही सप्ताह उत्तरी परगना जिले में घर घर प्रचार कर रहे भाजपा कार्यक्रताओं पर हमला किया गया और एक की पीट पीट कर हत्या कर दी गई। भाजपा इस हिंसा के लिए तृणमूल कॉंग्रेस को ज़िम्मेवार ठहराती है।
कई दशकों से पश्चिम बंगाल की राजनीति शांतमय नही रही। हर बार सत्ता परिवर्तन बढ़ी हुई हिंसा के साथ ही होता है। 2018 के पंचायत चुनाव में हुई हिंसा देश में रिकार्ड होगी जब ग्रामीण क्षेत्रों में अपना प्रभुत्व क़ायम रखने के लिए तृणमूल ने व्यापक हिंसा और धाँधली की थी। 19 लोग मारे गए और तृणमूल के 34 प्रतिशत उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए क्योंकि हिंसा से डर कर विपक्ष के उम्मीदवार मैदान से भाग गए। ऐसी घिनौना हरकतें वहाँ हर सत्तारूढ़ दल करता आ रहा है। कांग्रेस, वामदलों तथा तृणमूल सब ने सत्ता में बने रहने के लिए हिंसा का व्यापक स्तर तक इस्तेमाल किया। बीच में नक्सलवादी भी कूद चुकें हैं। 2016-2020 के बीच बहुत लोगों की उनके राजनीतिक विचारों के लिए हत्या हो चुकी है। हिंसा के ऐसे माहौल में हमारे जैसे मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र को भारी आघात पहुँचता है क्योंकि जनता का राजनीति,सरकार तथा शासन के प्रति अपना मत व्यक्त करने का अधिकार सीमित हो जाता है।
ममता बैनर्जी ख़ुद भी वाम हिंसा का टारगेट रही है इसलिए अपने प्रदेश में विस्तृत हिंसा के प्रति अगर सहमति नही तो उनकी मौन स्वीकृति और उदासीनता,हैरान करने वाली है। उनका मनोबल तोड़ने के लिए उन पर बार बार हमला किया गया। एक बार तो ममता बैनर्जी इतनी घायल थीं कि उन्हें स्ट्रैचर पर अस्पताल पहुँचाया गया। पश्चिम बंगाल में जहाँ वामदलों के तीन से अधिक दशक के शासन में सुधारवादी भूमि क़ानून लागू किए गए वहाँ विरोध को क्रूरता के साथ कुचला गया। माओ त्सी तुंग वाले हथकंडे अपनाए गए। इसके बारे ममता से अधिक कोई नही जानता क्योंकि वाम घृणा का वह सबसे बड़ा निशाना रही हैं। वामपंथियों को वहाँ से खदेड़ने के लिए उन्होंने लम्बी, और कई बार एकाकी, लड़ाई लड़ी और उन्हें पराजित कर दिया। इस बात का उन्हें श्रेय जाऐगा कि उन्होंने वह कर दिया जो कांग्रेस नही कर सकी।यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रदेश को नई दिशा देने की जगह उन्होंने हिंसा का वाम-मॉडल अपना लिया। वहाँ भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं पर लगातार होते हमले एक लोकतन्त्र में अस्वीकार्य होना चाहिए।
ममता बैनर्जी को भी समझना चाहिए कि जिस तरह का हमला जेपी नड्डा के काफिले पर हुआ और अब 24 परगना जिले में हुआ उससे उनकी पहले से ख़ाली हो रही राजनीतिक पूंजी का ख़ज़ाना और कम हो रहा है। हिंसा की राजनीति से देश और प्रदेश दोनों का नुक़सान होता है क्योंकि लोग भयमुक्त वातावरण में अपना मत व्यक्त नही कर सकते। भाजपा को भी देखना चाहिए कि जहाँ जहाँ वह प्रभावी है वह सही मिसाल क़ायम करे और दूसरों को बराबर का मौक़ा दे। जिस तरह भाजपा के कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में मुख्यमंत्री केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के घरों पर हमले किए और पुलिस मूकदर्शक बनी रही वह भी अनुचित है। जो पश्चिम बंगाल में अमान्य है, वह दिल्ली में सही कैसे?
हिंसा के वातावरण का प्रदेश की छवि पर बुरा असर पड़ता है। वामदलों के समय हिंसा और ज़हरीले यूनियनवाद के कारण उद्योग और व्यापार वहाँ से भाग गए थे। वह अभी तक पूरी तरह से लौटने को तैयार नही हुए क्योंकि ममता बैनर्जी भी सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने में असफल रहीं है। कोलकाता शहर जो 1773-1911 तक ब्रिटिश राज की राजधानी और कभी देश का सबसे महत्वपूर्ण शहर रहा है, हैदराबाद, बैंगलूरू और अहमदाबाद जैसे शहरों से पिछड़ता जा रहा हैं। कभी कहा जाता था कि ‘जो बंगाल आज सोचता है वह भारत कल सोचेगा’। आज यह स्थिति कहाँ हैं? बंगाल देश का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केन्द्र रहा है जिसने देश को स्वामी विवेकानन्द, राजा राम मोहन राय जैसे सुधारक, रवीन्द्र नाथ टैगोर, बंकिम चन्द्र चैटर्जी और सत्यजीत रे जैसी प्रतिभाएँ और सुभाष बोस जैसे नेता दिए थे। आज ऐसे लोग कहाँ हैं? तनाव के माहौल के कारण वहीं से प्रतिभा का पलायन हो चुका है। ममता बैनर्जी ने कोलकाता को ‘गेटवे टू एशिया’ बनाने और हुगली नदी पर स्थित कोलकाता को टेम्स नदी पर स्थित लंडन की तरह विकसित करना की बात कही थी,पर अपनी राजनीति के कारण ऐसा नही कर सकीं और न ही उन्होंने बंगाल के पूर्व वैभव को क़ायम करने का प्रयास ही किया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि देश के पूर्वी हिस्से के विकास के लिए पश्चिम बंगाल और कोलकाता के महानगर का उभरना बहुत जरूरी है।
भाजपा का नेतृत्व स्पष्ट कर रहा है कि पश्चिम बंगाल उसके लिए बहुत महत्व रखता है। अमित शाह ने यह विशेष तौर पर अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। बिहार चुनाव के बीच में ही वह पश्चिम बंगाल को दौरे पर निकल गए थे। बिहार में जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पार्टी मुख्यालय में विजय सभा में स्पष्ट कर दिया था कि अगला निशाना बंगाल है। यह प्रदेश उत्तर पूर्व के दरवाज़े भी खोलता है पर भाजपा के इतना ज़ोर देने का एक बड़ा कारण ख़ुद ममता बैनर्जी हैं। वह पिछले छ: सालों से प्रधानमंत्री मोदी की तीखी और अटल आलोचक रहीं है और उनके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हैं। मोदी ने गांधी परिवार, नीतीश कुमार आदि सबको समेट दिया केवल ममता का तोड़ उन्हें अभी तक नही मिला। ममता ने सरकार की हर नीति, हर क़दम का विरोध किया है चाहे वह सीएए हो या जीएसटी हो या अब यह तीन कृषि क़ानून हो। वह विपक्षी एकता की धुरी भी बनना चाहतीं हैं पर उनके सामने भी दो रूकावटें हैं। एक, उनका अस्थिर स्वभाव है जिस कारण कोई उन पर भरोसा करने को तैयार नहीं। दो, कांग्रेस विशेष तौर पर राहुल गांधी, उन्हें विपक्ष का नेता स्वीकार करने को तैयार नही। विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस मार्क्सवादी पार्टी से गठबन्धन करने जा रही है। अर्थात भाजपा विरोधी वोट बँट सकता है।
भाजपा यहाँ अपने लिए बढ़िया मौक़ा देख रही है। वह ही शासन विरोधी भावना जिसने नीतीश कुमार का स्तर कम किया, ममता बैनर्जी को भी परेशान कर सकती है। भतीजे अभिषेक बैनर्जी को पार्टी में मिल रही प्रमुखता के कारण दीदी पर भाई भतीजावाद का आरोप लग रहा है। 2011 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को एक भी सीट नही मिली थी और केवल 4 प्रतिशत वोट ही मिला था। 2016 में उसका प्रदर्शन बेहतर,3 सीटें और 10 प्रतिशत वोट, रहा है। पर भाजपा के भाग्य का द्वार लोकसभा के चुनाव में खुल गया जब वह 42 में से 18 सीटें जीतने में सफल रही और उसे 40 प्रतिशत सीटें मिलीं जो तृणमूल से मात्र 3 प्रतिशत कम थी। तृणमूल को 22 सीटें मिलीं थी। हैरानी है कि भाजपा को मिली इस चमत्कारी वृद्धि के बावजूद ममता की कार्यशैली में कोई परिवर्तन नही आया। वह आज भी कई बार अराजक प्रशासन की अध्यक्षता करती नज़र आ रही हैं।
भाजपा समझती है कि उन्हें हराने से अगले लोकसभा चुनाव में ‘विपक्ष मुक्त भारत’ का उसका लक्ष्य पूरा हो सकता है। लेकिन ममता बैनर्जी और उनकी पार्टी को हराना इतना आसान नही होगा। पिछले विधानसभा चुनाव में तृणमूल को 45 प्रतिशत मत और 294 में से 211 सीटें मिली थीं। प्रदेश भाजपा के पास उनके बराबर का चेहरा नही है। इतना अकाल है कि सौरभ गांगुली का भी नाम लिया जा रहा है जबकि उन्होंने कोई दिलचस्पी नही दिखाई। तृणमूल से इस्तीफ़ा दिलवा कुछ नेताओं को भाजपा में मिलाया जा रहा है पर कोई भी ममता बैनर्जी का विकल्प नही बन सकता। यह भी याद रखना चाहिए कि ममता हठी हैं, सखत विरोधी हैं और स्ट्रीट फाइटर हैं। उन्होंने वहाँ असंख्य लड़ाइयाँ लड़ी हैं। वह आसानी से जगह ख़ाली नही करेंगी। वहाँ 28 प्रतिशत मुस्लिम वोट है जो भाजपा से दूर रहेगी चाहे ओवैसी की पार्टी नुक़सान करेगी। ममता चुनाव को ‘बंगाली अस्मिता’ और ‘बंगाली बनाम बाहरी’ का सवाल भी बना रहीं हैं।
अर्थात भीषण राजनीतिक रण होगा। यह कैसा होगा इसका ट्रेलर हमने जेपी नड्डा के काफिले पर हुए हमले में देख लिया है। यह पागलपन कब ख़त्म होगा और बंगाल को उसका पुराना वैभव कब मिलेगा? कब फिर कहा जाऐगा कि ‘आज बंगाल,कल बाक़ी भारत’ ? क्या यह चुनाव कुछ बेहतरी करेगा या हुगली में वैसा ही धुँधला पानी बहता जाएगा?