2020 बहुत बर्बाद कर गया, पर बहुत कुछ समझा भी गया 2020 Shadow on 2021

जब बीते साल की तरफ़ मुड़ कर देखता हूँ तो गाने की यह पंक्ति याद आजाती है, ‘जग सूना सूना लागे, जग सूना सूना लागे’। 2020 वह साल था जिसकी कोई आत्मा नहीं थी। कोई उपलब्धि नही थी, अगर थी तो यह कि हम बच गए! यह साल ज़िन्दगी की नाजुकता समझा गया। यह सबसे अशांत और विघटनकारी वर्ष था जिसमें बचे रहना ही मक़सद था। याद ही नही रहा कि कब किससे हाथ मिलाया था, या कब किसे गले लगाया था। सब कुछ वॉटसअप हो गया! ज़िन्दगी की छोटी छोटी ख़ुशियाँ दुर्लभ हो गईं। अलगाववाद न्यू नार्मल बन गया। नया अछूतीकरण शुरू हो गया। ज़िन्दगी के पुराने तौर तरीक़े टूटे फटे नज़र आ रहें हैं। क्योंकि एक दूसरे का बचाव करना था इसलिए परिवार ही अलग हो गए। दूरी दवा भी थी और बचाव भी। तन्हाई ने इंसान को जकड़ लिया। बशीर बद्र ने सही लिखा है

               कोई हाथ भी नही मिलाएगा कि गले मिलोगे तपाक से

               यह नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो !

यह वह साल था जब अपने चारों तरफ़ लक्ष्मण रेखा थी। ज़िन्दगी का लुत्फ़ ही कम हो गया था। महत्व सेहत का था, बैंक मे पड़े पैसा का नही। पहली बार डाक्टरों, वैज्ञानिकों और हैल्थ वर्करों को उचित महत्व   मिलने लगा। एक छोटा सा वायरस मिसाइलों और बमों से अधिक शक्तिशाली निकलाइसने पावरफुल लोगों को घरों में बंद कर दिया। कुछ देर के लिए बड़े देशों की स्पर्धा, राजनीति के उतार चढ़ाव,सब अपनी प्रासंगिकता खो बैठे थे। हमारी ज़िन्दगी में कोई भी साल 2020 की तरह विनाशकारी नही रहा।  यह ऐसा साल था जिसे सब भूलना चाहेंगे। बिलकुल बेमतलब था, कुछ हासिल नही किया।अब जबकि इस साल का अंत हो रहा है भविष्य के प्रति घबराहट ही नही, ख़ौफ़ भी है कि 2021 ठीक ठाक निकल जाएगा?

इस साल में बहुत लोगों की नौकरियाँ चले गई। वेतनभोगी 100 में से 21 नौकरी खो बैठे। लॉकडाउन का न केवल आर्थिक बल्कि भारी समाजिक और मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव हुआ। महिला उत्पीड़न की शिकायतें बहुत बढ़ गईं। क्योंकि दोनों पति और पत्नि घर में बंद थे इसलिए तनाव और टकराव, और कई बार हिंसा, बढ़ गई।इस दौरान महिला क्योंकि अपने सहयोगियों और पारिवारिक आसरे से दूर हो गई इसलिए उनकी मदद और सहारा भी दूर हो गया। बंदिशें के कारण कई सामान्य, सभ्य लोग भी उग्र हो गए। घरों में गाली गलौच बढ़ा है। अक्तूबर में जापान में कोरोना से अधिक संख्या में लोगों ने आत्महत्या कर जान गवाई। स्पेन में जब पाबन्दियाँ हटी तो कई सामान्य क़ानून का पालन करने वाले भी स्टोर लूटने निकल पड़े। वर्तमान और भविष्य के प्रति भय और चिन्ता के कारण बड़ी संख्या में लोगों को डिप्रेशन यानि अवसाद ने घेर लिया। लोग बेबस महसूस करने लगे, दहशत और अलगाव महसूस करने लगे। सम्भालने वाले या मदद करने वाले जब दूर हो गए तो बड़ी समाजिक और पारिवारिक समस्या पैदा हो गई। 

अमेरिका में इस दौरान डिप्रेशन की संख्या तीन गुना बढ़ी है। 25 प्रतिशत और में हलके लक्षण देखे गए,अर्थात लगभग आधी जनसंख्या ग्रस्त थी। टाईम्स पत्रिका के अनुसार, ‘दुनिया में बहुत बड़ी संख्या को कोरोना की महामारी के साथ साथ मानसिक बीमारी से जूझना पड़ा’। शादियाँ रद्द, सैर सपाटा और ट्रैवल रूक गया, मनोरंजन ख़त्म हो गया, मिलना जुलना बंद।  आख़िर में लोग ऊब गए, थकान महसूस करने लगे। मानवता ने विद्रोह करना शुरू कर दिया, पाबन्दियाँ को हल्का लेना शुरू कर दिया। नीदरलैण्ड की विशेषज्ञ एन  वोसेन के अनुसार, ‘योरूप में लोग बीमारी से तंग आ चुकें हैं…बेफ़िक्री का भाव है’। कईयों ने लापरवाही की भारी कीमत भी चुकाई है, लेकिन इंसान अधिक देर बँधा रहना पसन्द नही करता। जॉन हापकिंस विश्वविद्यालय के सर्वेक्षण के अनुसार लॉकडाउन के कारण युवा अधिक ग़ुस्सैल हुए है जिससे मानसिक बीमारी बढ़ी है। भारत भी अछूता नही रहाअंतर केवल यह है कि हमे मालूम नही कि यहाँ कितने लोग डिप्रेशन का शिकार हुए हैं? कितनों ने मजबूरी में आत्म हत्या की है? जालन्धर जिले में अगस्त में हुई 80आत्महत्या को लॉकडाउन से जोड़ा गया है। मनोवैज्ञानिक बताते है कि इस दौरान यहाँ भी मैंटल हैल्थ के मामलों में ‘ ख़ौफ़नाक वृद्धि हुई है’। अब लोग पाबन्दियों का विरोध कर रहें हैं। दिल्ली में तीन महीने मे कोरोना नियम न मानने पर 2.6 लाख लोगों को जुर्माना लगाया गया है।

भारत के लिए यह वर्ष बहुत पत्थरीला रहा। कुछ भी समतल नही रहा। बेचैनी बढ़ी है। सीएए को लेकर शाहीन बाग़ में लम्बा आन्दोलन चला। डानल्ड ट्रंप की यात्रा के दौरान राजधानी दिल्ली में दंगे चलते रहे। फिर चीन से निकले कोरोना का हमला हो गया। अचानक लॉकडाउन ने करोड़ों ज़िन्दगियाँ तबाह कर दीं। सरकार ने जाने बचाने के लिए लॉकडाउन लगा दिया पर दिल्ली में बैठे सज्जनों ने यह नही सोचा कि जो करोड़ों बेरोज़गार हो गए वह किधर जाएँगे? शुरू में सरकारें तमाशा देखती रही। पैदल फटे पाँव टूटी चप्पल से घर की तरफ़ पलायन करते प्रवासियों के चित्रों ने देश को झकझोर कर रख दिया। हमने यह भी देखा कि किस प्रकार वापिस लौटे प्रवासियों को बैठा कर उन पर क्रूर और असंवेदनशील व्यवस्था ने कैमिकल का छिड़काव किया। किस तरह एक रेल प्लैटफ़ॉर्म पर एक नन्हा बच्चा माँ को जगाने की कोशिश कर रहा था, जो मर चुकी थी। बहुत कम है जो सोनू सूद की तरह मदद के लिए आगे आए। और देश ने यह भी देखा कि जब बेसहारा फटेहाल प्रवासी घर की तरफ़ चल रहे थे  तो सुरक्षा कर्मियों से घिरी प्रफुल्लित कंगना रनोट दमकती सफ़ेद साड़ी में हवाई अड्डे की तरफ़ जा रही थीं। उसे मेहरबान लोगों ने वह सुरक्षा प्रदान की जो मुख्य न्यायाधीश को प्राप्त है।

चीन के साथ हमारा टकराव जारी है चाहे ठंड के कारण अभी कुछ ठंडा है। भारत झुकने को तैयार नही, पर शी जिनपिंग की नाक का सवाल है। इस वर्ष में न्यायपालिका धीमी चली। मीडिया का एक वर्ग इतना वफ़ादार हो गया कि एमरजैंसी के दौरान लाल कृष्ण आडवानी का प्रेस के बारे कथन जीवित हो उठा, ‘आप को झुकने को कहा गया पर आपने रेंगना शुरू कर दिया!’ कथित लव जेहाद के नाम पर नया तमाशा खड़ा किया जा रहा है जबकि किसी के पास आँकड़ा नही कि ऐसे मामले कितने है? इसकी आड़ में असमाजिक तत्व क़ानून को हाथ में ले रहे है। लेकिन एक के बाद एक भाजपा शासित प्रदेश यह क़ानून बन रहा कि जैसे ऐसी कुछ दर्जन शादियां रोकना उनके लिए सबसे महत्व का विषय है। हाथरस में हमने देखा कि प्रशासन कितना क्रूर और अंधा हो सकता है कि माँ बाप को दिखाए बिना बलात्कार की पीड़ित बेटी का आधी रात को संस्कार कर दिया।

लेकिन इस वर्ष को और आने वाले वर्ष को परिभाषित किसान आन्दोलन कर गया जब इकटठे मिल कर आम किसानों ने सर्वोच्च सत्ता को समझा दिया कि आपका इरादा कुछ भी हो आप वह नही थोप सकते जो लोगों को स्वीकार नही। संसद में बहुमत ही पर्याप्त नही, लोगों की सहमति भी चाहिए विशेष तौर पर जब ऐसे क़दम उठाए जाऐं जो लोगों के जीवन मे बुनियादी बदलाव करते हों।संसद वैसे ही कमज़ोर हो गई है जो शीतकालीन सत्र के रद्द होने से पता चलता है। पर जहाँ विपक्ष कमजोर और दिशाहीन है वहां किसानों ने इकटठे आ कर सरकार की मनमानी को रोक दिया है। उन्हें बदनाम किया गयालेकिन किसानों ने आपा नही खोया। उन्होंने एकपक्षिय सरकारी फ़रमानों के आगे प्रभावी अविरोधक खड़ा कर दिया है। नेताओं को भी समझना चाहिए कि केवल चुनाव जीतना ही काफ़ी नही। जनता के साथ संवाद की कमी है, एकतरफ़ा भाषण पर्याप्त नही। सत्ताधीशों को यह साल उनकी सीमा बता गया और समझा गया कि आप भी अचूक नहीं।

दिल्ली के लोग किसान की मानसिकता को समझ नही सके जिसकी कीमत उन्हें और किसानों को चुकानी पड़ रही है। इस क्षेत्र के लोगों की पृष्ठ भूमि, इनके इतिहास और इनके जज़्बे को भी ठीक तरह से नही समझा गया। यहाँ का तो लम्बा संघर्ष का इतिहास है।  अगर पंजाब तनावग्रस्त हो गया तो बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।  सीमा पर तनाव के बीच लम्बा खींचा आंतरिक टकराव समस्या उलझा सकता है। प्रतिष्ठा का प्रश्न न बना कर इसे सुलझाना चाहिए। इस विवाद का अंत कैसे होता है यह न केवल भावी आर्थिकता बल्कि राजनीति भी तय करेगा। प्रधानमंत्री मोदी सही बात कहतें हैं, जैसे उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कहीं पर ज़मीन पर उनकी सेना यहाँ तक कि कई मंत्री और मुख्यमंत्री,वह मसले उठाते है जो लोगों को बाँटते हैं। इन्हें रोकने की ज़रूरत है।

आगे क्या है? क्या निजी और राजनीतिक फ़ासले कम होंगे? क्या रिश्ते फिर जुड़ेंगे, अनिश्चितता, अलगाव और तनाव कम होंगे? क्या देश कम बँटा हुआ और व्यवस्था अधिक संवेदनशील,कम हठी और कम घमंडी बनेगी?आगे वैक्सीन है। भारत में कोरोना गिरता नज़र आ रहा है। अर्थ व्यवस्था फिर उठती नज़र आ रही है, जिससे चारों तरफ़ बेहतरी होगी।  सब कुछ भविष्य के गर्भ में है पर यह साल हम सब को समाजिक जुड़ाव और रिश्तों की अहमियत और असलियत समझा गया, और बता गया कि ज़िन्दगी की वास्तविक ख़ुशियाँ क्या हैं?

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About Chander Mohan 739 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.