एक महत्वपूर्ण क़दम उठाते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति डानल्ड ट्रंप ने उस क़ानून पर हस्ताक्षर कर दिए हैं जो तिब्बतियों के महामहिम दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चुनने के अधिकार की पुष्टि करता है,और बीच में चीन के किसी प्रकार के दखल का विरोध करता है। बीजिंग ने अमेरिका के इस क़ानून का कड़ा विरोध किया है और उसे अपने ‘आंतरिक मामले’ में दखल क़रार दिया है। तिब्बती परम्परा के अनुसार दलाई लामा अवतार लेतें हैं, पर यह कौन होगा इसकी तलाश बौद्ध परम्परा के अनुसार की जाती है। सितम्बर 2011में दलाई लामा ने अगले दलाई लामा के चयन के बारे स्पष्ट दिशा निर्देश दे दिए थे ताकि किसी प्रकार की शंका या धोखा न हो। चीन यह मानने के लिए तैयार नही क्योंकि वह अगले दलाई लामा का चयन ख़ुद करना चाहता है ताकि उसके द्वारा बेकाबू तिब्बती समुदाय पर कुछ नियंत्रण किया जा सके। तिब्बतियों को अपने धार्मिक मामले में यह दखल बिलकुल स्वीकार नही है।
85 वर्षीय दलाई लामा ने यह भी कहा है कि जब वह 90 वर्ष के होंगे तो वह बौद्ध परम्परा के प्रमुख लामा तथा तिब्बती जनता की सलाह से यह तय करेंगें कि उनके बाद दलाई लामा की परम्परा जारी रखी जाए या नही? वह तो यह भी कह चुकें हैं कि उनकी उत्तराधिकारी एक महिला भी हो सकती है। वैसे यह तय है कि 15वें दलाई लामा का चयन वर्तमान दलाई लामा के विश्वस्त अधिकारी करेंगे लेकिन चीन की शरारत की क्षमता को देखते हुए तिब्बती समुदाय में चिन्ता है। चीन की व्याकुलता साफ़ है। वह मुस्लिम उइघर को ज़बरी सम्भालने में सफल रहें हैं पर तिब्बती विरोध को ख़त्म नही कर सके। दलाई लामा के धर्मात्मा व्यक्तित्व के कारण तिब्बतियों को अंतरराष्ट्रीय समर्थन भी मिल रहा है। वह गांधीजी की अहिंसा की परम्परा को जारी रखे हुए हैं और उन्होंने देश और विदेश में करोड़ों लोगों को अपने संदेश से प्रेरित किया है। वह भारत और तिब्बत की साँझी बौद्ध विरासत के भव्य प्रतीक हैं इसीलिए भारत में भी उनकी बहुत इज़्ज़त है।
चीन की समस्या है कि दलाई लामा और तिब्बती नेतृत्व को भारत में आश्रय मिला हुआ है और वह चीन की पकड़ से दूर हैं। दलाई लामा को चीन अलगाववादी कहता है जबकि दलाई लामा उत्तेजना से दूर रह शान्ति और भाईचारे का संदेश देते हैं। दलाई लामा न केवल भारत स्थित तिब्बतियों बल्कि तिब्बत के 60 लाख निवासियों के दिलों पर भी राज करतें हैं। चीन को वह काँटे की तरह चुभतें हैं। मई 1995 में तिब्बत के धार्मिक मामले मे हिंसक दखल देते हुए चीन ने उनके दूसरे महत्वपूर्ण नेता पंचम लामा का अपहरण कर लिया था। उनकी उम्र केवल छ: वर्ष थी लेकिन चीन को उनमें भी ख़तरा नज़र आ रहा था। तब से उन्हें और उनके परिवार को देखा नही गया। मानवाधिकार संगठन उन्हें ‘दुनिया का सबसे छोटा राजनीतिक क़ैदी’ कहतें हैं। उनकी जगह चीन ने अपना पंचम लामा नियुक्त किया है जिसे तिब्बती अपना नेता नही मानते। असली पंचम लामा का जो हश्र हुआ उसको देखते हुए अगले दलाई लामा का चयन गुप्त रखा गया है। अगर चीन कोई पालतू दलाई लामा बनाता है उसे तिब्बती जनता स्वीकार नही करेगी।
भारत तिब्बत का रिश्ता प्राचीन है। दलाई लामा तो भारत को तिब्बत का ‘गुरू’ कहतें हैं। न केवल दलाई लामा बल्कि बौद्ध तिब्बती समुदाय के चार समुदाय के प्रमुख नेता किसी न किसी समय भारत में आश्रय ले चुकें हैं। वर्तमान दलाई लामा 31 मार्च 1959 को मैकमोहन लाइन पार कर भारत में दाख़िल हुए थे। अक्तूबर 1950 को चीन ने तिब्बत पर हमला कर दिया था। नौ साल युवा दलाई लामा लहासा के भव्य पटोला पैलेस में बैठे देख रहे थे कि किस तरह चीन अपना क़ब्ज़ा मज़बूत कर रहा है। तिब्बत में पाँच लाख चीनी सैनिक भेज दिए गए थे। 1958 में खामपा लडाकूओ ने विद्रोह किया था लेकिन इसे सख़्ती से कुचल डाला गया। उसके बाद दमन शुरू हो गया और दलाई लामा को सलाह दी गई कि वह वहां से निकल जाएँ। भारत भूमि में उन्होंने पहली रात तवांग के बौद्ध विहार में व्यतीत की जो लहासा के पोटाला पैलेस के बाद तिब्बतियों का सबसे बड़ा मठ है। तवांग अरुणाचल प्रदेश में स्थित है। उस प्रदेश पर चीन के दावे का एक कारण यह प्रसिद्ध बौद्ध विहार भी है।
इतिहास में तिब्बत चीन का हिस्सा रहा है, और नही भी। कई शताब्दी वह आज़ाद रहा है। 1914 में तिब्बत आज़ाद देश था जैसे लालकृष्ण आडवाणी ने भी अपनी किताब में लिखा है। चीन के हमले से चार दशक पहले तक तिब्बत आज़ाद था। इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के अनुसार 1947 के एशिया सम्मेलन में चीन और तिब्बत ने अलग अलग प्रतिनिधि मंडल भेजे थे। चीन द्वारा तिब्बत पर क़ब्ज़ा करने के कारण भारत के लिए स्थिति असुखद बन गई थी। यहाँ वह मुहावरा याद आता है कि छोटे लोगों की ग़लतियों की चिन्ता नही क्योंकि दुष्प्रभाव भी छोटा होता है पर बड़े लोगों की ग़लतियों की चिन्ता है क्योंकि उनके दुष्परिणाम बड़े होते हैं। निजी तौर पर जवाहरलाल नेहरू समझते थे कि चीन ने मूर्खता वाला क़दम उठाया है, लेकिन सार्वजनिक तौर पर नेहरू चीन के ख़िलाफ़ सख़्त रवैया अपनाने के ख़िलाफ़ थे। सरदार पटेल ने चीन के इरादों के प्रति विशेष तौर पर चेतावनी दी थी पर नेहरू का आदर्शवाद चीन का सीधा विरोध करने से उन्हें रोकता रहा।
7 नवम्बर को नेहरू को लिखे अपने पत्र में पटेल सावधान करतें हैं, “चीन की सरकार ने अपने शांतमय इरादों के दावों से हमे धोखे में रखा है…चाहे हम ख़ुद को चीन का दोस्त मानते है, चीन हमें दोस्त नही समझता”। पटेल चेतावनी देतें हैं, “तिब्बत का ग़ायब हो जाना और चीन के हमारे दरवाज़े तक पहुँच जाने की स्थिति का अब हमे सामना है। अपने इतिहास में हम उत्तर पूर्व की सीमा के बारे कम ही चिन्तित रहें हैं…अब हमें कम्युनिस्ट चीन का सामना करना पड़ेगा जिसकी दृढ़ महत्वाकांक्षा है, लक्ष्य है और जो किसी भी तरह हमारे प्रति मैत्री पूर्ण नही”। सरदार पटेल की भविष्य वाणी आज तक सार्थक है। लेकिन नेहरू यथार्थवादी नही थे और भारत ने तिब्बत के चीरहरण को स्वीकार कर लिया। तिब्बत दोनों के बीच बफर ज़ोन अर्थात मध्यवर्ती क्षेत्र था, दोनों देशों की सीमाएँ एक दूसरे से लगती नही थी। अब तिब्बत बीच से हटा दिया गया जिसकी कीमत हम आज तक चुका रहें हैं।
नेहरू ने पटेल की चेतावनी का जवाब यह दिया था, “यह दुख की बात है कि तिब्बत को बचाया नही जा सका”। लेकिन उनका साथ यह भी मानना था कि “इस बात की कोई सम्भावना नही कि चीन भारत पर हमला करेगा … यह सोच ही ग़लत है कि हिमालय के पार कोई पागलपन वाला दुस्साहस करेगा”। बड़े लोगों की आंकलन की ग़लती की हमने बड़ी कीमत चुकाई है। हिमालय को पार कर, सड़कें और पुल बना कर चीन हमारे दरवाज़े तक आ पहुँचा है। वह तो नेपाल में भी हमें तंग कर रहा है। लेकिन इस हालत के लिए केवल पहले प्रधानमंत्री ही नही, एक और प्रधानमंत्री भी ज़िम्मेवार हैं। अपनी 2003 की चीन यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी चीन को ख़ुश करने के लिए ‘तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग’ स्वीकार कर लिया था। उनके सहायक सुधीन्द्र कुलकर्णी ने तब लिखा था, “कई विदेश नीति के विशेषज्ञ इस मान्यता के पक्ष में नही थे …लेकिन वाजपेयी का मानना था कि हक़ीक़त को स्वीकार करना आपसी सम्बन्ध बेहतर करने में सहायक होगा”।
नेहरू की ग़लती पर वाजपेयी ने मोहर लगा दी ! जापान टाईम्स ने लिखा था ‘ वाजपेयी घुटनो के बल पर चीन के आगे झुक गए’। पहली बार भारत ने स्पष्ट तौर पर तिब्बत पर चीन के क़ब्ज़े को मान्यता दी थी। नेहरू इस क़ब्ज़े पर चुप रहे थे, वाजपेयी ने तिब्बत को चीन की भूमि का हिस्सा स्वीकार कर लिया। इन दो प्रधानमंत्रियों का चीन के सामने समर्पण हमे आज तक परेशान कर रहा है। चीन तिब्बत के ‘चीनीकरण’ का प्रयास कर रहा है और अपने लोगों को वहां बसा रहा है। तिब्बतियों के धार्मिक, समाजिक और राजनीतिक अधिकारों को कुचला जा रहा है। अमेरिका ने अवश्य मामला फिर भड़का दिया है पर ‘गुरू’ भारत चीन द्वारा भारी उत्तेजना के बावजूद तिब्बत कार्ड खेलने से हिचकिचाता है। चीन को नाराज़ न करने की नीति पर चलते हुए सभी सरकारों, वर्तमान समेत, ने तिब्बत के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण नही अपनाया। चीन हर मंच से पाकिस्तान की बोली बोलता है, सीमा पर बार बार टकराव करता है,पर हम चीन की ‘सैन्सिटीविटी’ का ध्यान रखतें हैं। हमारे नेता दलाई लामा से मिलने से कतराते हैं। हम तो यह भी स्पष्ट नही कहते कि उत्तराधिकारी के बारे दलाई लामा की इच्छा का हम सम्मान करेंगें, और अगर कोई कठपुतली दलाई लामा बनाया गया तो हम उसे स्वीकार नहीं करेंगे। पर चीन की बार बार शरारतों को देखते हुए यह समय आ गया है कि इतिहास की एक और हिचकिचाहट को त्याग कर तिब्बत और तिब्बती लोगों के अधिकारों के प्रति हम स्पष्ट नीति अपनाएँ।