अमेरिका में अराजकता, दुनिया के लिए सबक़, Lesson From America

‘अमेरिका कभी भी बाहर से नष्ट नही होगा। अगर हम लड़खड़ाने लगे और अपनी आज़ादी खो बैठे तो इसका कारण यह होगा कि हमने ख़ुद को नष्ट कर लिया’ –अब्राहम लिंकन

अमेरिका के 16वें  राष्ट्रपति की यह भविष्यवाणी 160 सालों के बाद 6 जनवरी को लगभग सही साबित हो गई जब अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति डानल्ड ट्रंप के उकसाने पर एक भड़की हुई भीड़ ने अमेरिकी लोकतन्त्र की सबसे पावन संस्था, उनकी संसद, पर ही हमला बोल दिया। बेक़ाबू भीड़ से बचाने के लिए सांसदों, उपराष्ट्रपति समेत, को सुरक्षित स्थान पर ले जाना पड़ा। कुछ दंगाईयों ने कॉनफैडरेसी के झंडे उठाए हुए थे जिसने दास प्रथा समाप्त करने के विरोध में 1865 में युद्ध किया था, और अब्राहम लिंकन के नेतृत्व में संघ की सेना से पराजित हुए थे। अब मसला और है। ट्रंप और उनके उन्मत समर्थक पिछले साल चुनाव में पराजय को बलपूर्वक बदलना चाहते हैं।

इससे पहले केवल एक बार वाशिंगटन में कैपिटल अर्थात संसद पर हमला हुआ था, जब 1812 में युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना ने इसे जला दिया था। उसके बाद से यह वहाँ सबसे गम्भीर और बलात् क़ब्ज़ा था। अफ़सोस कि  ऐसा उस व्यक्ति के उकसाए पर  हुआ जिसने अमेरिकी संविधान की रक्षा की शपथ ली थी। उनके ख़िलाफ़ महाभियोग का जो प्रस्ताव तैयार किया गया है उसमें लिखा है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने ‘राजद्रोह को उकसाया था’। स्पीकर नैंसी पेलोसी का कहना है कि ‘राष्ट्रपति ख़ुद राज द्रोही थे’। अब ट्रंप का कहना है कि वह ज़ख़्म भरने और सुलह में और  ‘व्यवस्थित सत्ता हस्तांतरण’ में विश्वास रखतें हैं,पर इसी हस्तांतरण के ख़िलाफ़ तो  चुनाव हारने के बाद उन्होंने ज़हरीला अभियान चलाया था। उनका बार बार कहना था कि चुनाव उनसे ‘स्टील’,अ र्थात चुराया गया है। अब जब उनके कार्यकाल का अंत आ गया है, ट्विटर ने उन्हें बैन कर दिया है, लेकिन उससे पहले कई सप्ताह सोशल मीडिया ने ट्रंप को चुनाव परिणाम के ख़िलाफ़ लोगों को गुमराह करने और उकसाने का पूरा मौक़ा दिया। जब बात बनती नज़र नही आई तो अमेरिका के राष्ट्रपति ने अपने लोगों कों संसद पर मार्च करने के लिए कह दिया। 20 दिसम्बर को उन्होंने ट्वीट किया था कि 6 जनवरी को ‘वाशिंगटन में भारी प्रदर्शन होगा, वहाँ पहुँचो। ‘यह प्रदर्शन प्रचंड होगा’।

यह प्रदर्शन कितना प्रचंड था दुनिया ने देख लिया। जैसे न्यूयार्क टाईम्स ने भी लिखा है, अमेरिका के इतिहास में इस बात की कोई मिसाल नही कि राष्ट्रपति के उकसाने पर इस तरह बाग़ियों ने संसद पर हमला किया हो। ट्रंप ने तो उपद्रवी भड़की हिंसक भीड़ को ‘महान देशभकत’ कह दिया। एक स्वार्थी, अस्थिर और सत्ता में मदहोश नेता ने अपने देश का चैन नष्ट कर दिया। अमेरिका आज एक डरा हुआ, बुरी तरह विभाजित, क्षतिग्रस्त  और भविष्य के प्रति आशंकित देश है। ट्रंप में संवेदना की कमी, उनकी तानाशाही प्रवृत्ति, उनके ग़रूर, सच्चाई पर उनके हमले और लगातार झूठ का सहारा लेने के कारण उन्होंने देश को टूट के कगार तक पहुँचा दिया है। अमेरिका इस क़दर विभाजित है कि समाज और राजतंत्र में आई दरारें भरना अगले प्रशासन के लिए बहुत बहुत मुश्किल काम होगा। इतिहास इस मानसिक तौर पर असंतुलित शख़्स के प्रति निर्मम रहेगा लेकिन यह इतना महत्वपूर्ण नही जितना यह है कि अमेरिका की दिशा क्या होगी? उनका लोकतन्त्र लहूलुहान है। सोशल मीडिया पर ऐसे संदेश पोस्ट किए जा रहें हैं, ‘अगर आप गोली चलाना नही जानते तो आपको सीखना चाहिए’। वाशिंगटन फूँकने की धमकी दी जा रही है। 20 तारीख़ को नए राष्ट्रपति जो बाइडेन के शपथ ग्रहण समारोह के समय व्यापक हिंसा की आशंका जताई जा रही है। उन्हें और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को ट्रंप के उग्र समर्थकों से गम्भीर ख़तरा है। न्यूयार्क टाईम्स में पॉल क्रुगमैन लिखतें है कि यह नही माना जा सकता कि संसद को निशाना बनाने वाले लोग जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद शांत हो जाएँगे।

यह ख़तरनाक आँकड़ा याद रखना चाहिए कि ट्रंप को 7.4 करोड़ लोगों ने वोट दिया था जो बाइडेन को मिले 8.1 करोड़ वोट को छोड़ कर, वहां किसी भी राष्ट्रपति को मिले वोट से अधिक है।अर्थात ट्रंप की ख़तरनाक विचारधारा को वहाँ व्यापक समर्थन प्राप्त है। बाइडेन  की बड़ी समस्या है कि उन्हें वह देश और समाज मिला है जो ट्रंप की नापाक हरकतों के कारण बुरी तरह से दो बराबर हिस्सों मे बँटा हुआ हैऔर यह हालत तब है जब वहाँ कोरोना बेक़ाबू है। अमेरिका सबको लोकतन्त्र का लैक्चर देता है पर दुनिया की नज़रों में अमेरिका गिरा है। चीन और रूस का मीडिया अमेरिका क्लेश पर आनन्द ले रहे हैं। इस आशंका को बिलकुल रद्द नही किया जा सकता कि वाशिंगटन में संसद पर हमला एकमात्र घटना न हो बल्कि निरंतर दुःस्वप्न का हिस्सा हो। ट्रंप को जिन्हें ‘व्हाइट सुपरामिस्ट’ अर्थात वह गोरे जो अपनी नस्ल का प्रभुत्व चाहतें हैं, का अंधा समर्थन प्राप्त है। वह अधिकतर बहुत पढ़े लिखे नही, आधुनिक टैकनालिजी से दूर वह अतीत में रह रहें हैं। वह पढ़े लिखे प्रवासियों से ख़तरा महसूस करते हैं कि वह नौकरियाँ छीन रहें हैं। ट्रंप में उन्हें वह नेता मिल गया जो उनकी असुरक्षा की भावना और पूर्वा ग्रह को बढ़ावा देता है। उन्हें भयभीत किया गया कि प्रवासी, अश्वेत, उदारवादी उन पर छा जाएँगे,उनका ‘वे ऑफ़ लाइफ़’ खतरें में है।

अमेरिका ख़तरनाक चौराहे पर खड़ा है। पुलिस में ही नस्ली भावना घर कर चुकी है। अश्वेत शिकायत कर रहें हैं कि अगर संसद पर हमला हमारे लोगों ने किया होता तो ख़ूब गोली चलती पर क्योंकि हमलावर गोरे थे तो पुलिस संसद उनके हवाले कर भाग खड़ी हुई। ट्रंप के अभियान और उनकी नीतियों के कारण अमेरिका में नफरत और नस्ली भावना जो पहले दबी हुई थी अब सतह पर आ गई है। ट्रंप चाहे हट जाऐंगे पर ‘ट्रंपवाद’ ज़िन्दा रहेगा और लम्बे समय के लिए अमेरिका को परेशान करता रहेगा। अमेरिका में  उग्रवाद के तांडव से जो क्षति हुई है वह उन सब समाज को चेतावनी है जहाँ उग्रवाद को बढ़ावा दिया जाता है और नेता पर अंधविश्वास किया जाता है। उग्रवाद का यह जिन्न जब बोतल से बाहर निकल आए तो वापिस नही जाता और कई बार पैदा करने वाले के अंत का ही कारण बन जाता है। हिटलर भी एक वक़्त बहुत लोकप्रिय था लेकिन वह न केवल जर्मनी बल्कि अपने विनाश का कारण भी बना। हमारे देश में इंदिरा गांधी ने जब एमरजैंसी लगाई तो बहुत ने उन्हें समर्थन दिया था। अमेरिका में यह ध्रुवीकरण उन्हें बहुत तंग करेगा। हमारे देश में भी हर चुनाव से पहले ध्रुवीकरण की कोशिश की जाती है। हमें भी सावधान रहना चाहिए कि यह जिन्न भी कहीं वापिस बोतल में जाने से इंकार न कर दे।

आख़िर में अमेरिका बच गया क्योंकि ट्रंप के भारी दबाव के बावजूद उनकी संस्थाओं ने झुकने से इंकार कर दिया।  उपराष्ट्रपति माइक पेंस जो चार साल ट्रंप के वफ़ादार साथी रहे,ने उनका यह आदेश मानने से इंकार कर दिया कि वह चुनाव परिणाम की विधिवत घोषणा न करें, जो उपराष्ट्रपति की संवैधानिक ज़िम्मेवारी है। मीडिया के एक वर्ग जिसमे न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, सीएनएन जैसी प्रभावशाली संस्थाएँ शामिल है,ने शुरू से ट्रंप की मनमानी और उन्माद का डट कर विरोध किया और अपने लोकतंत्र को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदालतों ने निभाई जिन्होंने ट्रंप के चुनाव परिणामों को अदालत द्वारा पलटने के प्रयास को सफल नही होने दिया और एक बेलगाम राष्ट्रपति की अवैध महत्वकांक्षा से देश को बचाए रखा। अदालतों ने ट्रंप की टीम द्वारा किए 60 केस रद्द किए। कई जज ऐसे भी है जिन्हें ट्रंप ने नियुक्त किया पर व्यक्तिगत वफादारी को एक तरफ़ रखते हुए उन्होंने अपनी संवैधानिक ज़िम्मेवारी निभाई।उनके द्वारा नियुक्त कई अधिकारी उन्हें छोड़ गए क्योंकि वह अपने कर्तव्य से समझौता नही करना चाहते थे। शेक्सपीयर के नाटक ‘जूलियस सीज़र’ का वह प्रसंग याद आता है जब ब्रूटस अपने मित्र और रोम के सम्राट जूलियस सीज़र के ख़िलाफ़ बग़ावत का यह स्पष्टीकरण देता है, ‘यह नही कि मैं सीज़र से कम प्यार करता हूँ, पर मैं रोम से अधिक प्यार करता हूँ’।

 ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अशुतोष वर्शने ने सही लिखा है, “दुनिया को बता दिया गया कि एक आज़ाद और निर्भीक न्यायपालिका बेलगाम राजनेताओं के पर क़तर सकती है”। अमेरिका की संस्थाएँ मज़बूत हैं, न्याय पालिका निर्भीक है, मीडिया आज़ाद है और वहाँ वास्तव में वह लोग हैं जो ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ में विश्वास रखतें हैं। इतिहासकार रोमिला थापर ने कहा है, ‘जब वह संस्थाएँ जिनका काम लोकतन्त्र की रक्षा करना है संविधान के अनुसार काम करना बंद कर देतीं हैं, तब नागरिकों का नुक़सान होता है और लोकतन्त्र मुरझा जाता है’। जो चेतावनी लिंकन ने अपने देश के बारे दी थी, उसके बारे दूसरे देशों को भी सावधान रहना है। अमेरिका के दुर्भाग्य पूर्ण घटनाक्रम में यह गहरा सबक़ छिपा है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.