गणतन्त्र दिवस पर दिलली की घटनाएँ बहुत विचलित करने वाली हैं। जो किसान आन्दोलन अपनी शान्ति और व्यवस्था के लिए दुनिया के लिए मिसाल था, अचानक नियंत्रण से बाहर हो गया। न केवल बैरिकेड तोड़े गए बल्कि अनुशासन में रहने के वादे भी तोड़ दिए गए। जिन मार्ग पर जाने का वादा किया था उन्हें छोड़ते हुए दिलली में घुस गए। आन्दोलन पर किसी का नियंत्रण नही रहा। संयुक्त किसान मोर्चे के नेता जो रोज़ टीवी पर नज़र आते थे, ग़ायब हो गए क्योंकि कोई उनकी सुन नही रहा था। लेकिन ज़िम्मेवारी तो उनकी बनती है। जब ट्रैक्टर मार्च के लिए हज़ारों किसानों को राजधानी में इकट्ठा किया गया तो यह सम्भावना तो सदैव थी कि कुछ नियंत्रण से बाहर हो जाएँगे और कुछ शरारती तत्व भी घुस जाएँगे। आन्दोलन का गांधीजी जैसा कोई नेता नही है। गांधीजी जब भी आन्दोलन या सत्याग्रह शुरू करते तो वापिसी की गुंजाइश रख कर चलते थे। उनकी बात सब मानते भी थे। कई बार उन्होंने सत्याग्रह वापिस भी लिया। किसान आन्दोलन में तो सब ही नेता है, कोई एक ऐसा नेता नही जिसकी सब बात मान ले। सरकार से बात करने के लिए 40 लोग आते थे। अब उन्हें मेहरबानी करनी चाहिए और 1 फ़रवरी का संसद मार्च रद्द कर देना चाहिए, वह भी नियंत्रण से बाहर हो सकता है। अगर वह आन्दोलन जारी रखना चाहें तो उन्हें पहले की तरह दिलली के बार्डर पर जमना चाहिए। अगर फिर दिलली में प्रवेश किया तो हाल का इतिहास दोहराया जा सका है।
हर प्रकार की हिंसा निन्दनीय है। पुलिस वालों पर ट्रैक्टर चढ़ाने का प्रयास किया गया। सबसे निन्दनीय लाल क़िले पर धावा था। लाल क़िला तो देश का प्रतीक है, उसकी अवमानना की गई। राष्ट्रीय प्रतीक का इस तरह घोर उल्लंघन बिलकुल अमान्य है। यह जगह पवित्र है। याद है वह नारा, ‘लाल क़िले से आई आवाज़, सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज़’। यह वही लाल क़िला है जिसे दूषित किया गया। आज़ादी के बाद पहला तिरंगा यहीं ही फहराया गया और इसी की प्राचीर पर धावा बोल दिया गया। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है। बैरिकेड तोड़ना भी स्वीकार, मार्ग बदलना भी स्वीकार, थोड़ी बहुत हिंसा भी स्वीकार पर लालक़िले पर हमला स्वीकार नही। ऐसी हरकतें सारा समर्थन और सहानुभूति ख़त्म कर जाऐंगी। लाल क़िला ऐतिहासिक इमारत है किसी के घर का छज्जा नही कि उपर चढ़ कर हुड़दंग करो और मनपसन्द झंडा लहरा दो।
आगे क्या ? कोई निश्चित नही कह सकता। किसान आन्दोलन की जीती हुई बाज़ी मंगलवार की घटनाओं के बाद अनिश्चित हो गई है। सरकार तो कह सकती है कि बात किससे करें, यहाँ तो कोई नेता नही जिसके साथ मामला तय किया जा सके, और सरकार की बात ग़लत भी नही होगी। एक भी किसान नेता नही जिसकी बात सब सुन लें। लेकिन किसानों को दिलली ख़ाली कर देनी चाहिए, जितनी देर और वह यहाँ रहेंगे बदनामी और होगी। जहाँ तक केन्द्रीय सरकार का सवाल है, पहले तो उन्हें दिलली में क़ानून और व्यवस्था निश्चित करनी चाहिए। सही सवाल उठ रहे है कि इस अव्यवस्था की इजाज़त क्यों दी गई ? विशेष तौर पर लालक़िले पर चढ़ने क्यों दिया गया? मैं स्वीकार करता हूँ कि दिलली पुलिस का काम बहुत मुश्किल था लेकिन कहीं तो लक्ष्मण रेखा खींची जानी चाहिए थी। यह बल बार बार असफल हो रहा है, बेहतर होगा कि राजनीति एक तरफ़ रख इसे अपना काम करने दिया जाए। दूसरा, डेढ़ साल क़ानून पर अमल रोकने का जो प्रस्ताव सरकार ने रखा था उसे सरकार को एकतरफ़ा लागू कर देना चाहिए, कोई माने या न माने। इस दौरान स्थाई समाधान ढूँढने का ईमानदारी से प्रयास होना चाहिए। बेहतर होगा कि मामला प्रदेश सरकारों पर छोड़ दिया जाए। कृषि वैसे भी प्रदेश का मामला है। जो प्रदेश इन क़ानूनों को लागू करना चाहें वह कर सकतें हैं, जो न करना चाहें उन्हें मजबूर न किया जाए। मिसाल के तौर पर अगर बिहार लागू करना चाहे तो उनकी इच्छा, अगर पंजाब न करना चाहे तो उनकी मर्ज़ी। केन्द्र को इसे ईगो का मामला नही बनाना चाहिए। पंजाब विधानसभा पहले ही इन्हें वापिस लेने का प्रस्ताव पास कर चुकी है जिसे राज्यपाल दबा कर बैठें हैं।
सरकार को समझना चाहिए कि इस अति दुर्भाग्य पूर्ण घटनाक्रम के लिए वह भी दोषमुक्त नही है। जिस तरह यह तीन कृषि क़ानून थोपे गए उसी में टकराव का बीज छिपा था। संसद में सही बहस नही हुई। मामला सिलेक्ट कमेटी को नही भेजा। कई सप्ताह किसान पंजाब में आन्दोलन करते रहे, केन्द्र सरकार की सेहत पर कोई असर नही पड़ा। फिर वह दो महीने भीषण सर्दी में दिल्ली की सीमा पर पड़े रहे और सरकार उन्हें बैठकों में उलझाए रखने कि कोशिश करती रही। 70 के क़रीब किसान मारे गए। सारे देश ने उनकी दुर्दशा देखी पर सरकार टस से मस नही हुई। बीच में उन्हें खालिस्तानी, और टुकड़े टुकड़े गैंग तक कहा गया। एक मंत्री का कहना था कि वह चीन और पाकिस्तान के इशारे पर काम कर रहें हैं। प्रधानमंत्री ने ख़ुद को वार्ता से दूर रखा। यह भी देखना चाहिए कि सारी दुनिया में कृषि क्षेत्र को सब्सिडी दी जाती है। चीन का आँकड़ा 185 अरब डालर का है, अमेरिका का 49 अरब डालर जबकि भारत का आँकड़ा 11 अरब डालर है। इंडोनेशिया जैसा देश भी हम से अधिक 30 अरब डालर कृषि क्षेत्र को सब्सिडी देता है। अर्थ शास्त्री कौशिक बसु का कहना है कि हम वैश्वीकरण के युग में हैं नीति बनाते समय हमे वह भी देखना है जो बाक़ी दुनिया में चल रहा है। अर्थात कृषि क्षेत्र को खड़े रखने के लिए सरकारी मदद लाज़मी है। सरकार कारपोरेट के हवाले कर पीछे नही हट सकती।
26 जनवरी नज़दीक आने पर अवश्य सरकार ने डेढ़ साल इन क़ानूनों पर अमल रोकने की पेशकश कर दी। तब तक बहुत अविश्वास बढ़ चुका था। यही पेशकश अगर कुछ समय पहले की होती तो शायद बात बन जाती। दुख की बात है कि केन्द्र सरकार 26 जनवरी का दिन भी सही समभाल नही सकी। मालूम नही कि किसान नेताओं पर क्यों इतना विश्वास किया गया क्योंकि अनुभव है कि ऐसे विशाल आन्दोलन हाथ से निकल जातें हैं। जो बवाल देखा गया उससे निबटने की पहले क्यों तैयारी नही की गई? विशेष तौर पर जो लाल क़िले पर हुआ उसे हर हालत पर रोका जाना चाहिए था। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डानल्ड ट्रंप की यात्रा के दौरान भी दिल्ली जलती रही। अब फिर 9 घंटे दंगाईयों को खुल खेलने दिया गया, जैसा कुछ कुछ हाल ही में वाशिंगटन में कैपिटौल में देखा गया। लेकिन आख़िर में 26/1/2021 को जो देश की राजधानी में हुआ उसकी सारी ज़िम्मेवारी उनके कथित नेतृत्व पर है। उन्होंने देश से धक्का किया और अपने जायज़ आन्दोलन को हानि पहुँचाई। हो सकता है कि अराजक तत्व घुसपैंठ कर गए हों पर ज़िम्मेवारी तो आयोजकों की ही बनती है। योगेन्द्र यादव का कहना है कि युवकों की हताशा फूट पड़ी, उनका धैर्य समाप्त हो गया। यह कोई बहाना नही हो सकता। 26 जनवरी के दिन का चुनाव ही ग़लत था क्योंकि राष्ट्रीय पर्व में किसी प्रकार की ख़लल माफ़ नही की जाती।
जो कुछ हुआ उससे किसान आन्दोलन कमज़ोर हुआ है और विरोधियों को कहने का मौक़ा मिल गया कि हमने तो पहले ही कहा था। अब नेतृत्व अपने को इस उपद्रव से अलग कर रहा है पर इसका क्या फ़ायदा जब वह देश का भरोसा खो बैठे हैं। उन्हें 1 फ़रवरी का संसद मार्च रद्द कर देना चाहिए कहीं वह भी हाथ से निकल न जाए और अनहोनी हो जाए। जहाँ तक सरकार का सवाल है, उन्हें भी समझना चाहिए कि किसी वर्ग में स्थाई कड़वाहट देश हित में नही। पंजाब विशेष तौर पर बहुत संताप झेल चुका है इसे शान्त करने की ज़रूरत है। हरियाणा भी बेक़ाबू हो रहा है। किसानों की जायज़ शिकायत है जिसका समाधान होना चाहिए। केवल ‘रिफार्म’ ‘रिफार्म’ रटने से कुछ नही होगा जब जिनके लिए यह क़ानून लाए गए हैं वह इसके क़ायल नही। महाराष्ट्र और बैंगलूरू में किसानों के समर्थन में निकले प्रदर्शन बताते है कि तकलीफ़ वहाँ भी है। यह गतिरोध टूटना चाहिए। सरकार को ही उदारता दिखानी चाहिए,यह देखते हुए कि किसानों के बड़े और महत्वपूर्ण वर्ग को यह तीन क़ानून स्वीकार नही। बेहतर होगा मामला प्रदेशों पर छोड़ दिया जाए।