सन् 1569 की बात है। दिल्ली से लाहौर जाते समय बादशाह अकबर गोईंदवाल साहिब तीसरे सिख गुरू अमर दास जी से मिलने पहुँचे। उन्होंने गुरूजी की बहुत ख्याति सुनी थी इसलिए उन्हें मिलने के लिए गोईंदवाल साहिब रूक गए। अकबर को दूसरे धर्मों के बारे बहुत दिलचस्पी थी इसलिए गुरू अमर दास के साथ वह वार्तालाप चाहते थे। उनके साथ राजा हरिपुर भी थे। लेकिन वार्तालाप से पहले गुरूजी ने बादशाह और राजा को लंगर में पंगत में बैठा दिया जहाँ सबको जाति, धर्म, स्तर या वर्ग की भिन्नता के बिना एक साथ सादा भोजन करवाया जाता था। बादशाह भी तैयार हो गए और शायद पहली बार उन्होंने आम लोगों के साथ बैठ कर भोजन किया था। अकबर लंगर की प्रथा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अलग लंगर भवन बनाने के लिए ज़मीन देने की पेशकश की जिसे गुरू अमरदास ने नम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। उनका कहना था कि लंगर मेहनत की कमाई है, स्वैच्छिक है, इसलिए शाही जागीर से नही चल सकता।
मैं एतिहासकार नही हूँ, जो भी सिख परम्परा के बारे जानकारी है वह इसलिए है क्योंकि मैं ‘प्राउड पंजाबी’ हूँ और हर पंजाबी की तरह उच्च सिख परम्परा के बारे कुछ जानकारी है। यह लेख मैं इसलिए लिख रहा हूं कि आज देश में इतना कुछ बिगड़ रहा है, इतनी दीवारें खड़ी की जा रही हैं कि महसूस करता हूँ कि हमे अपने गौरवशाली अतीत से सबक़ लेना चाहिए कि बराबरी क्या है? भाईचारा क्या है? सेवा क्या है? नम्रता क्या है? और वास्तव में सर्व धर्म सम भाव का मतलब क्या है?
लंगर की सिख परम्परा यह सब शिक्षा बहुत अच्छी तरह से सिखाती है। लंगर का शब्द कहतें हैं कि फ़ारसी से लिया गया है जिसका अर्थ है ग़रीबों और ज़रूरतमंदों के लिए आश्रय स्थल। सिख परम्परा के अनुसार लंगर का सिद्धांत है जिसे ज़रूरत हो उसे भोजन खिलाना है चाहे उसकी जात, धर्म, आमदन, लिंग, वर्ग कुछ भी हो। जो भी गुरूघर में भोजन के लिए जाता है उसे गुरू का महमान समझा जाता है और इसी को ध्यान में रखते हुए शुद्ध शाकाहारी भोजन खिलाया जाता है, दाल, सब्ज़ी, चावल और रोटी। दूसरे गुरू अंगद देव के समय खडूर साहिब गुरूदारे में खीर भी लंगर के भोजन के साथ जोड़ दी गई। समय, जगह और ज़रूरत के साथ भोजनसूची में कुछ परिवर्तन आया है। कई जगह अब ज़मीन पर बैठने कि जगह कुर्सी मेज़ आ गए हैं। हाथ सफ़ा करने के लिए नैपकिन दिए जाते हैं। विदेशों में पिज़ा और पास्ता भी दूसरों के लिए परोसे जाते है,पर मूल सेवा की भावना में कोई परिवर्तन नही आया।
लंगर के द्वारा गुरू नानक देव जी के सर्वव्यापी भाईचारे के संदेश का आज तक प्रचार हो रहा है। गुरू नानक देवजी के बारे हम स्कूल में भी पढ़ा करते थे कि किस तरह उनके पिता ने उन्हें 20 रूपए दिए थे और शहर से कुछ ख़रीदारी करने को कहा था ताकि कारोबार के बारे कुछ जानकारी हो सके। उनके साथ भाई मरदाना थे। अभी वह कुछ दूर ही गए थे कि रास्ते में एक गाँव में उन्हें भूखे प्यासे बीमार लोग मिले। उन्होने पिता का दिया पैसा इन लोगों के लिए भोजन और पानी पर ख़र्च कर दिया। ख़ाली हाथ जब वह घर पहुँचे तो पिता नाराज़ हुए पर गुरू नानक का कहना था मैंने कुछ ग़लत नही किया, मैंने वास्तव में सच्चा सौदा किया है। गुरूजी की आयु मात्र 18 वर्ष की थी। यह लंगर प्रथा की शुरूआत थी। जो 20 रूपए उस दिन गुरू नानक ने ‘सच्चा सौदा’ पर ख़र्च किए वह आज तक अरबों रूपए का ग़रीबों, बेसहारा, ज़रूरतमंदो, बीमारों, मुसाफिरों को मुफ़्त भोजन खिलाने का साधन बन चुके है। अचानक लॉकडाउन के बाद भी हमने देखा कि लावारिस घरों को लौट रहे प्रवासियों की रास्ते मे कई जगह सिख संगठनों और गुरुद्वारों ने सेवा की। किसान आन्दोलन की शुरआत में उन पुलिस वालों को बैठ कर लंगर खिलाया गया जिन्होंने किसानों को रोका था।
लंगर की प्रथा शुरू करने में गुरू नानक देव जी का मक़सद केवल ज़रूरतमंदों को भोजन खिलाना ही नही था। वह सब, राजा और रंक, को ज़मीन पर एक पंक्ति में बैठा कर ऊँच नीच की मानसिकता को ख़त्म करना चाहते थे। शाकाहारी भोजन परोस कर लंगर को दावत में बदलने से भी रोका गया। फ़्रांसीसी क्रांति के समय Liberty, Equality, Fraternity अर्थात आज़ादी, बराबरी और भ्रातृत्व का नारा दिया गया पर यही बात तो इससे तीन सौ साल पहले गुरू नानक देव जी ने अहिंसक ढंग से अपनी शिक्षा और व्यक्तिगत मिसाल से समझाने की कोशिश की थी। जब सब एक साथ बैठ कर सादा भोजन करतें हैं तो अहम नही रहता, बाँट कर खाना आता है, सेवा भाव भी जन्म लेता है। यही कारण है कि सिखों में वह सेवा भाव देखने को मिलता है जो किसी और समुदाय में नही मिलता। सिखों में सेवा की भावना ने असंख्य ज़िन्दगियाँ बचाई हैं। जब कोरोना महामारी के कारण अचानक फ़्रांस ने इंग्लैंड के साथ सीमा बंद कर दी थी तो कई सौ ट्रक दक्षिण इंग्लैंड में फँस गए थे। इन फँसे हुए ड्राईवरों को सिख समुदाय के लोगों ने मुफ़्त खाना पहुँचाया था। चाहे कोसोवो का गृहयुद्ध हो या गुजरात और उत्तराखंड का भूकम्प,या उड़ीसा और बंगाल का चक्रवात, मदद पहुँचाने में सिख समुदाय के लोग आगे रहते हैं। लंगर का यह भी अनोखापन है कि कोई मजबूरी नही,सब कुछ सेवा की भावना से होता है। कोई भी लंगर बाँट सकता है, वह सिख हो या न हो। खडूर साहिब के प्रसिद्ध गुरुद्वारे, जो दूसरे गुरु अंगद देव जी से सम्बन्धित है,में आज भी आसपास के गाँव वाले लंगर में सेवा के लिए अपना नाम लिखवातें हैं। जिसकी बारी होती है वह पूरा का पूरा परिवार लंगर के लिए सामान लेकर उपस्थित होता है। यहां लंगर हॉल के बाहर लिख कर लगाया गया है, ‘सेवा करिए ते मुकदी नही, जे न करिए तां रूकदी नही’।
समाज से पूर्वा ग्रह मिटाने के लिए शुरू की गई लंगर की यह संस्था आज भी दुनिया के लिए मिसाल है। जिसका कोई सहारा नही उसके लिए गुरूधाम के दरवाज़े खुले रहतें हैं। अमृतसर के श्री हरिमंदिर साहिब के लंगर में रोज़ाना 50000 लोगों को गर्म भोजन मिलता है। छुट्टी के दिन यह संख्या 100000 तक पहुँच जाती है। और सारा काम स्वेच्छा से है कोई मजबूरी नही। यह दुनिया की सबसे बड़ी स्वैच्छिक रसोई है जिसकी कोई मिसाल कहीं नही मिलती। सेवा और बराबरी की यह भावना सिखों में अद्वितीय है। ईसाइयों में भी चैरिटी की भावना है पर ऐसी बराबरी नही, और न ही ऐसी सहभागिता है। मदर टेरेसा ने बहुत समाजसेवा की थी। वह तो नालियों में पड़े लोगों को गले लगा लेती थी पर वह एक मिनट के लिए भी नही भूली की वह जो कर रहीं हैं वह जीसस का काम है। उनका कहना था, “बहुत लोग मुझे समाजसेवी कहतें हैं। मैं समाजसेवी नही हूँ। मैं जीसस की सेवा कर रही हूं और मेरा काम ईसाइयत का प्रचार करना है और लोगों को उसमें शामिल करवाना है”। अपने धार्मिक विचारों के बारे मदर टेरेसा कभी भी शरमाई नही। उनके द्वारा समाज सेवा जीसस का संदेश फैलाने के लिए की गई जबकि लंगर और सिख प्रथा ‘सरबत दे भले’ के लिए हैं। जो गुरुद्वारे मे शरण लेता है उसे सिख बनने के लिए प्रेरित नही किया जाता। लेकिन मान्यता इतनी है कि किसी भी दिन अमृतसर में श्री हरिमंदिर साहिब में ग़ैर सिख श्रद्धालु की संख्या सिखों के बराबर रहती है। अफ़सोस है कि हम हिन्दुओं में यह समाज सेवा की भावना बहुत कमज़ोर है। मैंने मदर टेरेसा के विचारों पर आपति की है, पर हमारे कितने संत है जो उनकी तरह ग़रीबों को या मरीजों को गले लगाने के लिए तैयार हैं? जो आजकल उपदेश देते नज़र आतें हैं वह तो सब मर्सीडिज में घूमते फिरते है। अरबों रूपए के धार्मिक साम्राज्य हैं लेकिन जो अभागे हैं उन पर पैसा ख़र्च करने के लिए नही है। वैसे भी हम हिन्दुओं को अपने व्यक्तिगत उद्धार की चिन्ता रहती है निष्काम सेवा की भावना कमज़ोर है। बराबरी की भावना भी बिलकुल नही है इसीलिए जात पात से हम उभर नही सके।
जरूरत है कि लंगर जैसी उच्च मानवीय परम्परा के बारे स्कूलों में पढ़ाया जाए ताकि बच्चों में बराबरी और सेवा की भावना बचपन से पैदा हो सके। साँझ की यह भावना हमे किसान आन्दोलन को दौरान भी देखने को मिली जब सिख समुदाय ने व्यवस्थित ढंग से दिल्ली बार्डर पर डटे किसानों की मदद की। अब कुछ ग़लत तत्व, जिन्होंने विशेष तौर पर लाल क़िले में दंगा किया, के कारण सारे आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। बार बार ‘ख’ शब्द का लापरवाही से इस्तेमाल किया जा रहा है जबकि जितनी पंजाब और सिखों ने देश के लिए क़ुर्बानी दी है उतनी किसी और ने नही दी। विदेश में बैठे पाकिस्तान के कुछ दिहाड़ीदार अपनी हरकतों से सारे समुदाय को बदनाम कर रहे है जबकि यहाँ सिख अलगाववाद जैसी क़तई कोई भावना नही है। अफ़सोस है कि कई मीडिया वाले भी लापरवाही दिखा रहें हैं पर अनावश्यक अविश्वास पैदा कर वह देश की कोई सेवा नही कर रहे। सिखों को कथित खालिस्तान की मुहिम के साथ जोड़ने का प्रयास न केवल उनके साथ अन्याय है बल्कि राष्ट्र विरोधी गतिविधि है। उच्च सिख परम्परा देश के लिए वरदान है। याद रखना चाहिए कि सिखों ने न केवल ज़िन्दगियाँ बचाई हैं बल्कि देश के लिए सब से ज़्यादा ज़िन्दगियाँ क़ुर्बान भी की हैं।