वैसे तो यह तय माना जाता है कि जिसकी सरकार हो स्थानीय निकाय पर उसी का क़ब्ज़ा होता है पर फिर भी पंजाब के स्थानीय चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में जिस तरह एकतरफ़ा परिणाम आया है और भाजपा को होलसेल रद्द कर दिया गया है, वह हैरान करने वाला है। हम एक प्रकार से भाजपा मुक्त पंजाब देख रहें हैं जहाँ कांग्रेस को लगभग 70 प्रतिशत सीटें मिली हैऔर भाजपा 2 प्रतिशत वार्ड में ही जीत सकी है। मुक्तसर, जहाँ अधिकतर भाजपा उम्मीदवारों को 20 से भी कम वोट मिलें हैं, की मिसाल हालत बयान करती है। 22 में से 10 जिंलों में भाजपा शून्य नही तोड़ सकी। इसका असर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में देखने को मिलेगा।कांग्रेस को शहरों में भी भारी समर्थन मिला है जिसका अर्थ है कि किसान आन्दोलन के प्रति केन्द्र का जो रवैया रहा है उसे पंजाब के हर वर्ग ने नापसन्द किया है।
यह अमरेन्द्र सिंह की कांग्रेस की जीत है,कांग्रेस की दिल्ली का कोई योगदान नही इसलिए पार्टी के अन्दर नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेता उनका कोई बिगाड़ नही सकेंगे। और यह उस वक़्त है जब आर्थिक तंगी के कारण विकास की गति बहुत धीमी है। शहरों में विकास बिलकुल रूका हुआ है। अगर इस के बावजूद यहाँ कांग्रेस को छप्पड़ फाड़ कर समर्थन मिला है तो यह बताता है कि पंजाब में केन्द्र के प्रति कितनी नाराज़गी है। पंजाब मूलत: एक कृषि प्रधान समाज और अर्थ व्यवस्था है,इसीलिए नाराज़गी अधिक है। 53 वर्ष के बाद अकाली दल के गढ़ बठिंडा में कांग्रेस को सफलता मिली है। अकाली दल का अतीत उसका पीछा नही छोड़ रहा। भाजपा के साथ रिश्ता तोड़ने का भी नुक़सान हुआ, जैसे भाजपा का भी हुआ है। आप की भी हवा निकल गई। वह कांग्रेस का विकल्प बनने का ख़्वाब देख रहे थे, पर केवल 3 प्रतिशत सीटें ही जीत सके। प्रदेश में कोई लोकप्रिय नेता न होने के कारण पंजाब में आप को खारिज कर दिया गया है। हैरानी है कि अरविंद केजरीवाल जैसा स्मार्ट नेता बार बार आंकलन की ग़लती खा रहा है। यह कैसे सोच लिया कि राघव चड्ढा जिन्हें पंजाब में कोई नही जानता, के रोडशो से समर्थन मिलेगा? दिल्ली से किसी को पैराशूट से उतारने के दिन लद गए। केजरीवाल की राष्ट्रीय महत्वकांक्षा एक बार फिर पंक्चर हो गई,बेहतर है वह दिल्ली पर ही ध्यान दें।
लेकिन असली कहानी पंजाब में भाजपा के पतन की है। अभी तक भाजपा अकाली दल के भरोसे चुनाव लड़ती रही। वास्तव में ‘परजीवी’ कहा जा सकता है। भाजपा के केन्द्र ने ही यहां स्थानीय नेतृत्व को अपने पैरों पर खड़े नही होने दिया। न ही कोई सिख ‘फेस’ है जिसकी विश्वसनीयता हो,न ही पार्टी कोई प्रभावी दलित चेहरा ही प्रस्तुत कर सकी। अब विजय साम्पला को आगे किया जा रहा है जबकि पहले उन्हें चुनाव में टिकट नही दिया गया था। शहरी इलाक़ा तो भाजपा का गढ़ समझा जाता है पर सब जगह पार्टी का बोरियाँ बिस्तर गोल कर दिया गया है। स्थाई तौर पर पंजाब ‘भाजपा मुक्त’ नही होने जा रहा जैसे देश ‘कांग्रेस मुक्त’ नही हुआ, पर अगले साल चुनाव में प्रासंगिक रहने के लिए भी बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।
किसान आन्दोलन के कारण पंजाब में बहुत नाराज़गी है। भयानक जाड़े में जिस तरह किसानों को खुले आसमान के नीचे बैठने दिया गया उस से बहुत ग़लत संदेश गया है। हमारे इतिहास में तो भाई कन्हैया का नाम आता है जो युद्ध के बाद सभी घायल सैनिकों को अपनी मशक से पानी पिलाते थे,चाहे वह सिख थे या हमलावर। पर आधुनिक भारत में अपने ही लोगों का पानी काट दिया गया! फिर कीलें लगा कर बार्डर बंद कर दिया गया जैसे किसी विदेशी सेना को रोका जाता है। आन्दोलन बहुत लम्बा चल गया है पर जो दिल्ली के बार्डर से लौट रहें हैं वह सरकार के प्रति नाराज़गी साथ बाँध कर ला रहें हैं और समझतें है कि उन्हें नीचा दिखाया गया। उपर से कुछ लोगों ने कथित खालिस्तान का शोर मचा कर मामला और जटिल बना दिया है। सरकार शायद समझती है कि पंजाब से 13 सांसद ही हैं और पहले भी भाजपा के तो केवल दो सांसद ही हैं इसलिए अधिक फ़र्क़ नही पड़ेगा। चाहे प्रदेश छोटा है पर लोगों की नाराज़गी और खीज परेशान कर सकती है। अमरेन्द्र सिंह बार बार सावधान कर रहें हैं कि पंजाब सीमावर्ती प्रांत है यहां स्थाई नाराज़गी महँगी रहेगी।
गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव जहाँ भाजपा को भी छप्पड़ फाड़ कर समर्थन मिला है, बतातें हैं कि जरूरी नही कि इस विवाद का असर सारे देश में हो पर यह आर्थिक-समाजिक आन्दोलन अब उत्तर भारत की राजनीति को प्रभावित कर रहा है। हरियाणा की सरकार पहले ही रक्षात्मक है। भाजपा का तीखा विरोध हो रहा है और महापंचायतें में भारी इकट्ठ देखने को मिल रहा है। अनुमान है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 50 लोकसभा सीटों पर इस आन्दोलन का प्रभाव पड़ेगा। पंजाब के अतिरिक्त हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट-लैंड केन्द्र की नीतिसे ख़फ़ा है। पिछले विधानसभा चुनाव में यूपी के जाटों ने भाजपा को भारी समर्थन दिया था। पहले जाट और मुसलमान एकजुट वोट करते थे पर 2013 के मुज़फ़्फ़रपुर के दंगों के बाद जाट भाजपा के पक्ष में हो गए और उन्होंने अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल से नाता तोड़ लिया। लेकिन अब माहौल उलट गया है। जाट और मुसलमान इकटठे भाजपा के ख़िलाफ़ लामबंद हो रहें हैं। अगले साल चुनाव का सामना कर रहे योगी आदित्यनाथ के लिए बड़ी सरदर्द बनने वाली है। शामली की महापंचायत में भारी संख्या में मुसलमान मौजूद थे। जयंत चौधरी की सभाओं में भारी भीड़ वर्षों के बाद इकट्ठा हो रही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा की 136 सीटों और लोकसभा की 27 सीटों पर जाट वोट निर्णायक रहता है। इस वकत इन में से 70 प्रतिशत पर भाजपा का क़ब्ज़ा है पर अब ज़मीन नीचे से खिसक रही है। हरियाणा में केन्द्र की मदद से खटटर सरकार किसी तरह बची हुई है पर दुष्यंत चौटाला के 10 विधायक बेचैन है और स्थिति नाज़ुक है। जाट हरियाणा की जनसंख्या का 27 प्रतिशत हैं पर उनका प्रभाव उनकी संख्या से अधिक है। उपर से रोज़ाना पेट्रोल और डीजल की कीमत सरकार बढ़ा रही है। इससे असंतोष और महँगाई दोनों बढ़ रहे हैं। सरकार मिडल क्लास की बहुत परवाह नही करती पर महँगाई तो सब को प्रभावित करती है। कई जगह पेट्रोल सौ रूपए को पार कर चुका है। यह पाकिस्तान से लगभग दोगुना है। केन्द्र और प्रादेशिक सरकारें अपना भारी टैक्स कम कर लोगों को राहत क्यों नही दे सकते?
सब से बड़ी हैरानी है कि यह सरकार अजब असुरक्षा की भावना प्रकट कर रही है। मज़बूत नेतृत्व है, मज़बूत सरकार है, मज़बूत देश है। हम चीन को पैंगांग क्षेत्र से वापिस भेज कर हटें हैं।कोई राष्ट्रीय विकल्प नही पर कहीं घबराहट है। आख़िर नन्ही पुडुचेरी की कांग्रेस सरकार गिरा कर क्या प्राप्त हुआ?बार बार उनके ख़िलाफ़ कड़े क़दम क्यों उठाए जा रहे है जो सरकार की आलोचना करते हैं, चाहे वह राजनेता हों या मीडिया वाले या आम लोग या सक्रिय युवा हों? दंड तंत्र से देश को चलाने की ज़रूरत क्या है जब सब आपके पक्ष में चल रहा है? कोई चुनौती नही है। बार बार ‘सडीशन’ अर्थात राजद्रोह के क़ानून का इस्तेमाल किया जा रहा है जबकि 2019 में इसके अधीन केवल 3 प्रतिशत को ही सज़ा मिला है। विशेष तौर पर जब से कुछ जलवायु एक्टिविस्ट के ख़िलाफ़ क़दम उठाए गए है उनसे विदेशों में असहनशीलता का संदेश गया है कि सरकार आलोचना को बर्दाश्त नही कर रही, उसे हर जगह ‘अंतरराष्ट्रीय साज़िश’ नज़र आ रही है। अदालत का भी कहना है कि ‘ देशद्रोह का क़ानून असंतोष को चुप करवाने के लिए नही होना चाहिए’। यह क़ानून अंग्रेज़ों ने बनाया था इसका अब क्यों इतना इस्तेमाल हो रहा है? इंदिरा गांधी की ही तरह यहाँ भी हर समस्या के पीछे ‘फॉरन हैंड’ नज़र क्यों आता है ? अगर बाहर बैठे कुछ लोग साज़िश कर रहें है तो उनका प्रत्यर्पण करवा क़ानून के आगे खड़ा करना चाहिए पर सरकार को बाहर बैठे इन देश विरोधियों और अपने युवाओं में अंतर करना चाहिए और उदारता दिखानी चाहिए। यह प्रभाव नही फैलना चाहिए कि यह सरकार उन युवाओं के प्रति नकारात्मक है जो सवाल पूछतें हैं। दिशा रवि के मामले में भी योग्य जज क़ायल नही हुए कि उसके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला बनता है। उनकी सख़्त टिप्पणी है कि सबूत ‘निम्न और अधूरे हैं’। फिर उसे गिरफ़्तार क्यों किया गया?
एक बड़े अमेरिकी नेटवर्क एनबीसी न्यूज़ ने दिशा रवि के मामले में टिप्पणी की है कि, “22 वर्षीय जलवायु एक्टिविस्ट भारत सरकार की विरोध के ख़िलाफ़ दमन का प्रतीक बन कर उभरी है”। ऐसी आवाज़ें अब अकसर विदेशों से हमारे बारे सुनी जा रही है। याद रखना चाहिए कि इंटरनेट के युग में विचारों, अच्छे-बुरे, का प्रचार या प्रसार दबाया नही जा सकता। रूस में भी दमन के बावजूद पुटिन का विरोध ख़त्म नही हो रहा। लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी इस देश की विशेषता रही है अगर यह कमज़ोर पड़ गईं तो भारत एकआम देश बन कर रह जाएगा। दिसम्बर 1948 को संविधान सभा में बोलते हुए के एम मुंशी ने सही कहा था, “वास्तव में लोकतन्त्र का निचोड़ सरकार की आलोचना है”। इसे दंडे से दबाने की कोशिश नही होनी चाहिए।