चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के चुनाव की घोषणा कर दी है पर जहाँ सब चुनाव अपना अपना महत्व रखतें हैं पश्चिम बंगाल का चुनाव विशेष महत्व और चिन्ता देता है। इसके चार बड़े कारण हैं। एक, ममता बैनर्जी का अपना विशेष जुझारू व्यक्तित्व है। वह स्ट्रीट फाइटर हैं और उन्हें सुर्ख़ियों में बने रहना आता है। दूसरा, भाजपा के नेतृत्व ने इस चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया हुआ है और भाजपा की तीनों प्रमुख तोपें, प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, और पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा वहाँ लगातार गर्ज रहीं हैं। तीसरा, राज्य का हिंसक राजनीतिक इतिहास है। और चौथा, यह चुनाव देश की भावी राजनीति को तय करेगा।
पश्चिम बंगाल के 2016 के विधानसभा चुनाव में मुख्य भिड़ंत तृणमूल कांग्रेस और सीपीएम के बीच थी। तृणमूल को 45, सीपीएम को 21, कांग्रेस को 12 और भाजपा को 10 प्रतिशत वोट मिले थे। तृणमूल को 211, सीपीएम को 32, कांग्रेस को 44 और भाजपा को 3 सीटें ही मिली थीं। भाजपा ने किस तरह वहाँ असाधारण प्रगति की है यह इस बात से पता चलता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने लम्बी छलाँग लगा कर 40.6 प्रतिशत वोट और 18 सीटें जीती थीं जबकि तृणमूल को 43.7 प्रतिशत वोट और 22 सीटें मिली थीं। अर्थात मुक़ाबला बराबार पहुँच गया लगता है। अगर लोकसभा के हिसाब से देखें तो तृणमूल 164 विधानसभा सीटों पर और भाजपा 121 सीटों पर आगे रही है जबकि बहुमत के लिए 148 सीटों चाहिए। गति भाजपा के साथ लगती है तो क्या वह तृणमूल को उखाड़ने की स्थिति में पहुँच गए हैं?
जहाँ भाजपा के वोट में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है वहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि तृणमूल के वोट में भी कोई गिरावट नही आई और वह सम्मानजनक 40 प्रतिशत से उपर रहा है। अगर 2016 और 2019 के चुनावों की बीच भाजपा का वोट प्रतिशत 30 प्रतिशत बढ़ा है तो यह तृणमूल की कीमत पर नही हुआ। भाजपा तृणमूल विरोधी भाजपा और सीपीएम का वोट छीनने में सफल रही है पर जरूरी नही कि जो लोकसभा के चुनाव में हुआ है वह विधानसभा के चुनाव में भी हो। हाल का अनुभव है कि भाजपा लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन विधानसभा चुनाव में दोहराने में असफल रहती है इसीलिए जोड़ तोड़ या ख़रीद फ़रोख़्त से सरकारें बनाने की कोशिश करती है जिससे दुखी हो कर भाजपा के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य शांता कुमार ने भी लिखा है, “शर्मिंदा हूँ कि मेरी पार्टी निर्वाचित सरकारों को गिराने के लिए विधायकों की ख़रीद फ़रोख़्त कर रही है”।
पश्चिम बंगाल में भी भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के एक दर्जन विधायक और तीन मंत्रियों को पाला बदला ख़ुद में शामिल करवा लिया है। इन में कुछ वह भी हैं जो बदनाम हैं जिस पर तृणमूल का कटाक्ष है कि भाजपा समझती है कि वह एक वॉशिंग मशीन है जहॉं जा कर लोग साफ़ हो जातें हैं ! भाजपा को उत्तर और दक्षिण बंगाल में समर्थन मिल रहा है जिसका मतलब है कि बांग्लादेश से आकर वहां बसे हिन्दू पार्टी को समर्थन दे रहें हैं। आबादी का 12 प्रतिशत हिन्दी भाषी है। हिन्दी वहाँ कितना महत्व रखती है यह इस बात से पता चलता है कि सबसे बड़े बिसनेस हब, बड़ाबाजार, की अधिकतर भाषा हिन्दी ही है। ममता बैनर्जी का सारा ज़ोर ‘बंगाली अस्मिता’ पर है। उनका कहना भी है कि ‘जो बंगाल में रहता है उसे बंगाली सीखनी होगी’। भाजपा ने जिस तरह हिन्दी भाषी क्षेत्र के नेताओं की फ़ौज वहाँ उतार दी है उसका फ़ायदा भी ‘बंगाल की बेटी’ ममता उठाने की कोशिश कर रही है। भाजपा नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ रही है पर यह विधान सभा के चुनाव है लोकसभा के नही। लोग अंतर करना जानते हैं।
कांग्रेस और वामदलों जो एक दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लडतें रहें हैं इस बार अस्तित्व बचाने के लिए इकटठे मिल कर चुनाव लड़ रहें हैं। हैरानी है कि इन कथित सैक्यूलर पार्टियों ने अपने गठबन्धन में फुरफरा शरीफ़ के युवा पीरज़ादा और आईएसएफ़ के प्रमुख अब्बास सिद्दीक़ी को भी शामिल कर लिया है। वहाँ लगभग 30 प्रतिशत मुस्लिम वोट हैं जो तृणमूल को समर्थन देते हैं। इतिहास बताता है कि पश्चिम बंगाल में उसी की सरकार बनी है जिसे मुसलमानों ने समर्थन दिया है क्योंकि वह एकजुट हो किसी को जीताने के लिए तो किसी को हराने के लिए वोट देतें हैं। आज़ादी के बाद यह समुदाय कांग्रेस के साथ रहा और उनकी सरकार बनती रही। फिर इनका झुकाव वामदलों की तरफ़ हो गया और तीन दशक वामदलों ने वहाँ सरकार चलाई, और पश्चिम बंगाल के पतन का कारण बने। सिंगुर और नन्दीग्राम की हिंसक घटनाओं के बाद इस समुदाय का समर्थन ममता बैनर्जी और उनकी पार्टी की तरफ़ हो गया, जहाँ अभी तक वह जमा हुआ है। ममता बैनर्जी भी उनका विशेष ध्यान रखती है यहाँ तक कि हर महीने इमामों को वज़ीफ़ा देती है। जब तुष्टिकरण का आरोप लगने लगा तो ममता ने दुर्गा पूजा पंडालों के लिए 28 करोड़ रूपए देने की घोषणा कर दी। वहाँ की राजनीति बहुत हद तक साम्प्रदायिक है जिसमें अब असदुद्दीन ओवैसी और अब्बास सद्दाकी भी कूद चुकें हैं। यह जितना वोट लेंगे उतना नुक़सान तृणमूल का होगा। ओवैसी पर यदाकदा यह आरोप लगता रहता है कि वह भाजपा की राजनीति करतें हैं क्योंकि वह भाजपा विरोधी वोट को बाँटते हैं।
देखना अब यह है कि तृणमूल के पक्ष में मुस्लिम ध्रुवीकरण होता है या नही क्योंकि हार जीत बहुत कुछ इस पर निर्भर करती है। भाजपा की बड़ी कमज़ोरी है कि उसके पास ममता बैनर्जी के बराबर का कोई चेहरा नही। भाजपा बंगाली आइकॉन, विवेकानन्द, टैगोर, बंकिम चन्द्र चैटर्जी, सुभाष बोस को बहुत याद कर रही है, पर यह नही बता सकी कि ममता का विकल्प उनके पास कौन है? ममता भी जोरशोर से ‘बंगाल की बेटी’ का कार्ड खेल रही हैं जिस पर भाजपा का कटाक्ष है कि अब वह ‘बेटी’ नही ‘पिशी’ हैं। पिशी अर्थात बुआ, उछाल कर वह ममता के भताजे अभिषेक बैनर्जी पर वार कर रहीं हैं जिनके कारण पार्टी में मतभेद है पर जो अपनी बुआ की कमज़ोरी है। पर ममता बैनर्जी को श्रेय जाता है कि लम्बी राजनीतिक पारी के बावजूद उन पर कोई व्यक्तिगत आरोप नही है। तृणमूल का वहाँ मज़बूत संगठन है जिसका मुक़ाबला भाजपा नही कर सकती। आयात किए गए नेताओं के बल पर पार्टी मज़बूत नही हो सकती।
कांग्रेस कमज़ोर हो चुकी है जो बात उसके बेचैन जी-23 नेताओं ने भी स्वीकारी है। कांग्रेस शिखिर पर विभाजन के कगार पर खड़ी नज़र आती है पर बहुत कुछ इन पाँच चुनावों पर निर्भर करता है। राहुल गांधी अगर चिन्तित हैं तो इसका बहुत प्रदर्शन नही कर रहे। उनकी दिलचस्पी तमिलनाडु और केरल के चुनाव में है जहाँ हर चुनाव के बाद सरकार बदलती है। इसीलिए केरल के वह मच्छुआरों के साथ समुद्र में कूद गए और तमिलनाडु में पुश अप कर अपनी शारीरिक ताकत दिखा रहे हैं ! केरल में इस बार कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ़ गठबंधन की बारी है पर कांग्रेस की हालत को देखते हुए कुछ नही कहा जा सकता। तमिलनाडु में कांग्रेस द्रमुक के आसरे है, भाजपा वहाँ मामूली है। असली लड़ाई जयललिता और करूणानिधि की विरासत के कथित दावेदारों के बीच है। शशिकला अन्ना द्रमुक का खेल बिगाड़ सकती है। वहाँ भी सत्ता बदलती रहती है इसलिए इस बार द्रमुक का दाव लग सकता है। असम जो पूर्वोत्तर की राजनीति की धुरी है में 35 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं जो एनआरसी के कारण भयभीत हैं। यहाँ कांग्रेस और वामदलों के साथ बदरूद्दीन अजमल की पार्टी के आने से भाजपा को गम्भीर चुनौती मिल रही है। साम्प्रदायिक राजनीति दोधारी तलवार है, यह पक्ष में भी चलती हैऔर कई बार विपक्ष में भी।
लेकिन असली महत्व पश्चिम बंगाल के चुनाव का है जो देश की भावी राजनीति को तय करेगा। अगर भाजपा जीत गई तो राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की चुनौती और कमज़ोर पड़ जाएगी पर अगर ममता बैनर्जी भाजपा को पराजित करने मे सफल रहीं तो वह नरेन्द्र मोदी के सामने ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष का चेहरा हो सकती है। ममता दीदी की दिल्ली-महत्वकांक्षा किसी से छिपी भी नही। उनके इलावा साधन सम्पन्न शरद पवार भी नेता बनना चाहतें हैं पर उनकी आयु साथ नही दे रही। ममता के उबार का मतलब राहुल गांधी की अवनति हो सकती है। यही कारण है कि कांग्रेस का हाईकमान उनके प्रति बेरुख़ी दिखा रहा है और पश्चिम बंगाल में अब्बास सिद्दीक़ी के साथ मोर्चा बना कर उनके मुस्लिम समर्थन को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है।
क्या बंगाल जिसकी राजधानी कोलकाता 1773-1911 तक ब्रिटिश राज की राजधानी रही है, का पुराना वैभव लौट आएगा? कई बार कोलकाता को ‘गेटवे टू ईस्ट’ बनाने की चर्चा हुई पर अस्थिर राजनीति के कारण बात आगे नही बढ़ी। प्रदेश में बहुत अधिक तनाव है जो प्रगति और निवेश में बाधा है। क्या यह चुनाव यह बदलेगा? चुनाव के दौरान वहाँ व्यापक हिंसा होती है। लोग 1972 का चुनाव याद करतें हैं जब सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने व्यापक धाँधली की थी और 1977 तक शासन किया था पर उसके बाद से आज तक कांग्रेस वापिस सत्ता में लौट नही सकी। तृणमूल कांग्रेस का भी वामदलों की तरह हिंसक इतिहास है जबकि भाजपा के पास केन्द्र की सरकार है ,इसलिए घबराहट है कि कहीं जय बांग्ला या सोनार बांग्ला की कल्पना करते हुए हम ‘ हिंसक-बांग्ला’ पर फिर न पहुँच जाऐं !