भारत और पाकिस्तान के रिश्तों मे एक बार फिर ताज़ाहवा बहने लगी है। 740 किलोमीटर लम्बी नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम की घोषणा कर दी गई है। 24-25 फ़रवरी की रात से दोनों तरफ़ से तोपें शांत हो गईं हैं। दोनों देशों के बीच दो दशक पुराना संघर्ष विराम समझौता 2007-2008 से ही उधड़ना शुरू हो गया था पर पिछले पाँच वर्षों से तो दोनो तरफ़ से ख़ूब गोलाबारी हो रही थी। अब तोपों पर कवर चढ़ा दिए गए हैं। क्या रिश्तों में सुखद मोड़ आएगा या पहले कई प्रयासों की तरह यह भी नक़ली सूर्योदय होगा? इसे समझने के लिए देखना होगा, 1. क्या हुआ ? 2. क्यों हुआ? 3. क्या हो सकता है आगे?
- क्या हुआ? 2019 मे पाकिस्तान ने 3300 बार संघर्ष विराम रेखा का उल्लंघन किया था जो पिछले साल बढ़ कर 5100 हो गया। भारत ने बराबर जवाब दिया होगा। इस बेलगाम होती दुष्मनी को रोकने के लिए दोनों कुछ महीनों से गुप्त बातचीत कर रहे थे। जो कुछ छन कर बाहर आया है उसके अनुसार भारत की तरफ़ से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और पाकिस्तान की तरफ़ से प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोइद युसुफ के बीच लम्बी गुप्त वार्ता होती रही है। अजीत डोभाल पाकिस्तान को अच्छी तरह जानते है और उनकी यह भी ख्याति है कि वह कभी हार नही मानते। दिल्ली मे केवल प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, गृहमंत्री और विदेश मंत्री को ही इसकी जानकारी थी। सेना के नेतृत्व को विश्वास में लिया गया था। बैक चैनल पर चल रही इस वार्ता का पहला संकेत पाकिस्तान के शक्तिशाली सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद के इस बयान से मिला था कि, “समय आ गया है कि हम चारों तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाएँ”।
2019 के बालाकोट पर भारत के हमले के बाद जनरल बाजवा का रवैया बढ़ा कर्कश रहा है। पर अब सुर बदला हुआ है। पाकिस्तान में ‘कश्मीर सॉलिडेरिटी डे’ का भारत को कोसने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है,पर इस बार बयानबाज़ी धीमी थी। एक और संकेत तब मिला जब श्रीलंका जाते समयपाकिस्तान के प्रधानमंत्री के विशेष विमान को भारत ने अपने आकाश से गुज़रने की इजाज़त दे दी जबकि पाकिस्तान ने 2019 में राष्ट्रपति कोविंद और फिर प्रधानमंत्री मोदी के विशेष विमानों को अपने आकाश से उड़ने की इजाज़त नही दी थी। पर अब बर्फ़ पिघलने का परिणाम यह हुआ कि दोनों देशों के डायरेक्टर जनरल मिलिटरी आपरेशन (डीजीएमओ) ने संघर्ष विराम की घोषणा कर दी। इस बात का बहुत महत्व है कि दोनों तरफ़ से घोषणा सेना की तरफ़ से की गई नही तो पहले सरकार की तरफ़ से ऐसी घोषणाऐं होती रहीं हैं।
2.क्यों हुआ? दोनों इसकी ज़रूरत महसूस कर रहे थे। पाकिस्तान के फटे हाल, भारत का चीन के साथ तनाव, जो बाइडेन के अमरीकी राष्ट्रपति बनने के बाद बदले परिदृश्य ने दोनों देशों को टकराव छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। लद्दाख में टकराव के बाद हमारी राजनीतिक और रक्षा व्यवस्था मानने लगीं हैं कि असली चुनौती उत्तर से है, पश्चिम में पाकिस्तान बहुत कमज़ोर पड़ चुका है। पैंगांग क्षेत्र से दोनों की सेनाऐं वापिस जा चुकी है पर बाक़ी जगह से वापिस जाने में चीन रूचि नही दिखा रहा है। अब हमारी सामरिक दिशा बदली है। पूर्व रॉ प्रमुख ए एस दुल्लत, ने लिखा है, “ युद्ध तो दूर की बात,हम तो दो मोर्चों पर टकराव भी बर्दाश्त नही कर सकते। पाकिस्तान की समस्या हम से अधिक है इसलिए अपने दो पड़ोसियों में से पाकिस्तान के साथ दोस्ती करना आसान रहेगा”। भारत को भी अपनी अर्थव्यवस्था सही करने और कोविड टीकाकरण अभियान सही चलाने के लिए समय और चैन चाहिए।
पाकिस्तान की समस्या हम से कहीं अधिक है। अर्थ व्यवस्था जर्जर है और इमरान खान की सरकार अस्थिर हो चुकी है। बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद पाकिस्तान को आशा थी कि नीति परिवर्तन होगा पर इस क्षेत्र में बाइडेन डॉनल्ड ट्रंप वाली चीन विरोधी नीति पर चल रहें हैं। पाकिस्तान अंतराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग पड़ चुका है। तुर्की और चीन के सिवाय कोई मित्र नही। हालत इतनी ख़राब है कि कोरोना वैक्सीन ख़रीदने के लिए पैसे नही है। देश पर विदेशी क़र्ज़ा और देनदारी भारी 113 अरब डालर है। भीख का कटोरा लेकर पहले वह साउदी अरब के दरबार में हाज़िर होते थे पर अब उनके साथ सम्बन्ध बिगड़ने के बाद चीन से लगातार क़र्ज़ा माँग रहे है। वह जान गए हैं कि वह भारत के स्तर के नही रहे और भारत के साथ लम्बा टकराव वह झेल नही सकते।
जब नरेन्द्र मोदी सरकार ने धारा 370 ख़त्म करने का एतिहासिक क़दम उठाया और जम्मू कश्मीर का स्टेटस बदल दिया तो पाकिस्तान बहुत छटपटाया था। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने यह अनिश्चितता ख़त्म कर दी, सदा के लिए। पाकिस्तान को आशा थी कि भारत पर दबाव क़दम वापिस लेने को मजबूर कर देगा। उन्होंने अपने लोगों को भी यही समझाया था पर अब समझ आ गई है कि यह क़दम वापिस होने वाला नही। पाकिस्तान ख़ुद गिलगित-बालटीस्तान, जो 1947 तक जम्मू कश्मीर रियासत का हिस्सा रहा है और जिसे हम अपना क्षेत्र मानते है, को अपना पाँचवां राज्य बनाने के बारे सोच रहा है। अगर ऐसा होता है तो कश्मीर समस्या ख़ुद ही ख़त्म हो जाएगी। जो हमारे पास है वह हम रखेंगे और जो उनके पास है वह रखेंगे।
अतीत में भी दोनों सरकारें कई बार इस फ़ार्मूले पर विचार कर चुकीं हैं पर सफल नही हुई क्योंकि यह सरकारों के बीच सहमति थी, पाकिस्तान की सेना की मोहर नही लगी थी। जिस समझौते पर पाकिस्तान की सेना दस्तखत नही करती उसका पालन भी नही करती। इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद कारगिल हो गया और नरेन्द्र मोदी की अघोषित लाहौर यात्रा के बाद पठानकोट, उरी और पुलवामा के हमले हो गए। भारत सरकार की दिशा में भी परिवर्तन आया है कि इमरान खान जैसी किसी कठपुतली सरकार से बात करने से बेहतर है कि जो असली ताकत है, उनकी सेना,से सीधी बात की जाए। दोनों तरफ़ से डीजीएमओ के बीच वार्ता का भी मतलब है कि दोनों तरफ़ से सेना ने बातचीत की है। पूर्व राजदूत विवेक काटजू ने लिखा है कि, “ यह तथ्य कि यह प्रक्रिया दोबारा दोनों सेनाओं के बयानों से शुरू हो रही है, साबित करती है कि पाकिस्तान की सेना का इस प्रक्रिया को समर्थन है”।
भारत के साथ वार्ता की चाबी जनरल बाजवा के पास है। वास्तव में वहाँ अमेरिका, चीन, भारत, साउदी अरब, अफ़ग़ानिस्तान के साथ विदेश नीति पर पाकिस्तान की सेना का वीटो है। जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने भी प्रयास किया था। उनके और डा.मनमोहन सिंह के बीच कश्मीर के समाधान को लेकर वार्ता काफ़ी आगे बढ़ गई थी, पर जब तक किसी निष्कर्ष पर पहुँचती मुशर्रफ की स्थिति कमज़ोर हो चुकी थी। अब पाकिस्तान में एक और जनरल आगे आया है और शान्ति की बात कर रहा है। जनरल बाजवा ने यह भी देख लिया होगा कि चीन भी भारत के साथ टकराव को एक सीमा से अधिक नही बढ़ा रहा और नए अमेरिकी राष्ट्रपति ‘क्वैड’ को बराबर महत्व दे रहें है। अफ़ग़ानिस्तान को लेकर चल रही वार्ता में अमेरिका भारत को भी शामिल करना चाहता है। आतंकवाद को समर्थन देने के कारण पाकिस्तान ख़ुद ‘फाटा’ में फँसा हुआ है। पाकिस्तान की सेना के रवैये में आए परिवर्तन का एक कारण यह भी है कि सामना नरेन्द्र मोदी की सरकार से है। यह मनमोहन सिंह की सरकार नही जो मुम्बई पर हमला बर्दाश्त कर गई थी, नरेन्द्र मोदी की सरकार ने वास्तव में घर में घुस कर मारा था।
3.आगे क्या ?भारत-पाक सम्बन्धों की डगर सदा ही कठिन रही है। दोनों देशों ने एक दूसरे के ‘कोर’ अर्थात मूल मुद्दों का ध्यान रखने की बात कही है। भारत के लिए यह ‘कोर’ मुद्दा आतंकवाद है और पाकिस्तान के लिए कश्मीर। कश्मीर के बारे कोई भारत सरकार अधिक रियायत नही दे सकती। कश्मीर का विशेष दर्जा अब बहाल नही होगा,अधिक से अधिक राज्यत्व बहाल किया जा सकता है। पाकिस्तान की सरकार के लिए यह सुखद नही होगा। वहाँ पीढ़ियाँ भारत विरोध और ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ पर पली हैं। जिसे नज़रिया-ए-पाकिस्तान कहा जाता है,उसका ‘कोर’ मुद्दा भारत विरोध है। पाकिस्तान के अन्दर जो जिहादी कारख़ाना चल रहा है उसे एकदम बंद करना भी आसान नही होगा। एक आतंकी घटना सारी प्रक्रिया को पटरी से उतार सकती है। और जनरल बाजवा पर कितना भरोसा किया जा सकता है? अगर वह ईमानदारी से शान्ति का प्रयास करना भी चाहतें है तो क्या उन्हें करने भी दिया जाएगा?
सामरिक विशेषज्ञ सी राजा मोहन का सही कहना है कि “भारत और पाकिस्तान के बीच साँप और सीड़ी के खेल में नीचे फिसलना बहुत आसान है”। लेकिन फिर भी प्रयास होना चाहिए क्योंकि समय बहुत कम है। जनरल बाजवा का सेवाकाल, अगर वह तख़्ता नही पलटते,नवम्बर 2022 में ख़त्म हो जाएगा। उनके उत्तराधिकारी का क्या रवैया रहता है कहा नही जा सकता। अगर सब कुछ सामान्य रहा तो पाकिस्तान में आम चुनाव 2023 में और भारत में 2024 में होंगें। अर्थात रिश्तों को पटरी पर लाने के लिए यह दो वर्ष ही बचें हैं क्योंकि चुनाव के दौरान विवेक दुर्घटना ग्रस्त हो जाता है। खिड़की ताज़ा हवा के लिए खुली तो है, पर थोड़ी और थोड़े समय के लिए। रिश्तों में जो विरोधाभास है वह चैन से नही बैठने देगा। मैं नउम्मीद तो,नही पर उम्मीद पर भी कितना भरोसा हो सकता है?