एशिया में ग्रेट गेम शुरू हो चुकी है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जापान के प्रधानमंत्री योशिहीदे सुगा तथा आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के बीच पहली वर्चुअल शिखिर वार्ता दुनिया और विशेष तौर पर एशिया में सामरिक संतुलन बदलने की क्षमता रखती है। ‘क्वाड’ अर्थात चतुष्कोण की बैठक में फ़ैसला लिया गया कि भारत वैक्सीन निर्यात का बड़ा केन्द्र बनेगा। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन तथा हिन्द-प्रशांत महासागर में जहाज़ों के निर्बाध आवागमन पर चारों देशों के बीच ज़बरदस्त सहमति बनी है। लेकिन असली सहमति उस देश की ब्लैकमेल को रोकने पर बनी है जिस का संयुक्त बयान मे नाम नही लिया गया, चीन। चीन के आक्रामक रवैया और हठधर्मिता से सब परेशान हैं यही कारण है कि नए अमेरिकी राष्ट्रपति के पद ग्रहण करने के दो महीने के अन्दर इस वार्ता का आयोजन किया गया। यह चार लोकतान्त्रिक देश बदलती विश्व परिस्थिति में चीन की समस्या का इलाज निकालना चाहतें है। और चीन यह जानता है।
क्वैड की शुरूआत 2004 में हुई थी जब चारों देशों ने मिल कर सुनामी प्रबन्ध में हिस्सा डाला था। 2007 में पहली बार चारों के बीच रणनीतिक वार्ता हुई थी। पहली बार बंगाल की खाड़ी में चारों देशों का मालाबार नौसेना अभ्यास हुआ था जिसमें सिंगापुर भी शामिल था। लेकिन चीन के विरोध के कारण यह सहयोग यहीं रूक गया। भारत ने क़दम पीछे हटा लिया और चीन से आर्थिक युद्ध से बचने के लिए आस्ट्रेलिया का जोश भी ठंडा पड़ गया। लेकिन चीन की धौंस बढ़ती गई। अपनी बढ़ी आर्थिक ताकत के बल पर चीन ने दूसरे देशों को स्पष्ट कर दिया कि जहाँ तक उसके अपने हितों का सवाल है उसे किसी की आपति की चिन्ता नही। उस वक़्त अमेरिका भी ख़ुद में उलझा हुआ था। चीन ज़रूरत से अधिक आश्वस्त हो गया और लगभग सब पड़ोसियों के साथ झगड़ा ले उसने एशिया की वर्तमान व्यवस्था को चुनौती दे दी।उसकी ‘बेल्ट एंड रोड’ जैसी महत्वकांक्षी योजनाओं से भी सब चिन्तित हो गए कि आगे चल कर इस आर्थिक गलियारे का सैन्यकरण हो सकता है। बाक़ी कसर वुहान से शुरू कोरोना वायरस, जिसे छिपाने का चीन ने प्रयास किया, ने पूरी कर दी। परिणाम था कि दुनिया की प्रमुख राजधानियों में चीन को लेकर चिन्ता की लकीरें बढ़ने लगी।
शी जिंपिंग भी ज़रूरत से अधिक जल्दी में हैं। ताकत पूरी तरह से स्थापित किए बिना अपनी वैश्विक महत्वकांक्षा के पत्ते खोल दिए। अब इसे ही पीछे धकेलने के लिए यह चार बड़े देश इकट्ठे आ रहे हैं चाहे इसे विधिवत गठबन्धन का नाम नही दिया गया। चीन ने अपनी हरकतों से ख़ुद ही अपने विरोधी एकजुट कर लिए पर अब मिर्ची लग रही है जो उनकी मीडिया में हो रही टिप्पणियाँ से पता चलता है। चीन के सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने सम्पादकीय में हमें नसीहत दी है कि, ‘यह भारत के हित में नही है कि वह ख़ुद को अमेरिका के चीन विरोधी रथ के साथ बाँध ले’। अख़बार यह भी शिकायत करता है कि अमेरिका के नेतृत्व वाले क्वैड के नज़दीक जाने से नई दिल्ली ने ‘भारत-चीन और भारत-रूस रिश्ते को और बिगाड़ लिया है’। यह भी चेतावनी दी गई कि ‘अगर इसी तरह भारत अमेरिका के नज़दीक जाता रहा तो अपनी सामरिक स्वायत्ता खो बैठेगा और चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका का ‘हैचट मैन’ (कुल्हाड़ा चलाने वाला) बन कर रह जाएगा’। भारत को यह भी बताया गया कि वह ‘ब्रिक्स’ जैसे संगठन में अपनी प्रासंगिकता खो बैठेगा क्योंकि उसने गुट निरपेक्षता छोड़ दी है।
लेकिन भारत इस जगह पहुँचा कैसे? जिस भारत ने 2007 के बाद चार देशों के मालाबार अभ्यास में दिलचस्पी छोड़ दी थी वह इस समूह का उत्साही सदस्य कैसे बन गया? वैसे तो 1962 से ही भारत चीन के इरादों के प्रति आशंकित रहा है पर इस सरकार की नीति में बुनियादी बदलाव चीन द्वारा पूर्वी लद्दाख में अतिक्रमण और विशेष तौर पर गलवान की घटना जहाँ हमारे 20 जवान शहीद हो गए, के बाद आया। समझा गया कि हमे अपमानित करने का प्रयास किया गया कि हम चीन के बराबर नही हैं। चीन के वर्चस्व वाले एक ध्रुवीय एशिया के खतरे को भी ठीक तरह समझ लिया गया। लेखक और विशेषज्ञ जैफ स्मिथ ने लिखा है, “चीन के नीति योजनाकार भारत को अधीनस्थ मध्यम ताकत समझतें हैं जो कभी कभी शरारत करता है और जिसे कभी कभी उसकी जगह दिखानी पड़ती है”।
केवल इस बार ‘जगह दिखाने’ का प्रयास उलटा पड़ गया। बातचीत से तापमान कम करने की जगह भारत ने चीन का जवाब अभूतपूर्व सैनिक जमावड़े से दे दिया इस संदेश के साथ कि भारत भी टकराव के फैलाव से पीछे नही हटेगा। जिस तरह भारत ने पैंगांग झील के दक्षिण में ऊँचाइयों पर क़ब्ज़ा कर लिया था उस से स्पष्ट हो गया कि टकराव पीड़ाहीन नही होगा और चीन को भी कीमत चुकानी पड़ेगी। अगर सीमा अस्थिर रहेगी तो रिश्ते भी अस्थिर रहेंगे। अब चीन को भी समझ आगई होगी कि भारत के साथ रिश्तों का आकार बदल गया है। भारत अब चार देशों के समूह में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहा है जिसका असली मक़सद चीन को रोकना है। जो चीन नही चाहता था वही हो रहा है क्योंकि हम भी समझते है कि हमे सहयोगी चाहिए। चीन भी पैंगांग क्षेत्र से वापिस चला गया है पर देपसॉग, हॉट स्प्रिंग और गोगरा क्षेत्र से वापिस जाना लटका रहा है।
तिब्बत, हांगकांग, ताइवान, उइगर मुसलमान का उत्पीड़न,कई ऐसे मसले हे जहाँ चीन ने बहुत दादागिरी दिखाई है। जापान के सेंकाको द्वीप पर चीन दावा कर रहा है। दक्षिण चीन सागर में कृत्रिम द्वीप बना चीन अपना वर्चस्व क़ायम करने के प्रयास कर रहा है। आस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ व्यापार प्रतिबंध लगाए गए। दुनिया में कोविड बीमारी भी इन्होंने ही फैलाई जिसकी जिम्मेवारी वह लेने को तैयार नही। लेकिन उनके अनुमान की सबसे बड़ी ग़लती भारत के साथ उस वक़्त झगड़ा शुरू करना था जब पहले ही अमेरिका के साथ उनके सम्बन्ध तनावपूर्ण थे। उसी का परिणाम है कि पुराने साथी रूस को एक तरफ़ छोड़ भारत क्वैड में शामिल हो गया है। हम जानते है कि रूस की अब वह ताकत नही कि वह चीन के उत्पात को रोक सके। न केवल यह चार देश बल्कि इस क्षेत्र के वियतनाम, फ़िलिपींस, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, न्यूज़ीलैंड सब देश समझते है कि विस्तारवादी चीन से इस क्षेत्र को ख़तरा है। उसे रोकने का समय अब है, एक प्रकार से अभी नही तो कभी नही की स्थिति बन रही है। या चीन को रोकना होगा या ऐसी विश्व व्यवस्था की कल्पना करनी होगी जिसका नेतृत्व चीन के पास होगा।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन बहुत पहले बता चुकें हैं कि ‘चीन के साथ लम्बे समय प्रतिस्पर्धा चलेगी जो आसान नही होगी’। अमेरिका का सुर भी लगातार तीखा होता जा रहा है कि जैसे वह चीन को सबक़ सिखाना चाहतें है। अमेरिका को पीटने के लिए एक न एक विलेन चाहिए। कभी यह जर्मनी था, फिर सोवियत यूनियन, फिर सद्दाम हुसैन और अल क़ायदा। उनकी नज़रों में अब विलेन चीन है। अमेरिका के विदेश मंत्रीएंटनी बलिंकन का कहना है, “जब चीन दादगिरी और आक्रामकता का इस्तेमाल करेगा तो हम उसे पीछे धकेलेंगे”। चीन के और उत्थान को रोकने के लिए अमेरिका उसे आधुनिक टेक्नोलॉजी से वंचित रखना चाहता है लेकिन उनकी भी समस्या है कि दोनों देशों की अर्थव्यवस्था बहुत जुड़ी हुई है एकदम रिश्ता तोड़ा नही जा सकता। चीन के बढ़ते क़दम रोकने के लिए अमेरिका को भारत की ज़रूरत है। इसीलिए उनके रक्षा मंत्री जनरल लॉयड ऑस्टिन ने अपनी पहली विदेश यात्रा में भारत को भी शामिल किया हैऔर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ वार्ता के बाद दोनों ने ‘सैन्य सांझेदारी’ पर सहमति व्यक्त की है। ‘सैन्य सांझेदारी’ बहुत अहम परिभाषा है। दोनों का रिश्ता कितनी तेज़ी से बढ़ रहा है यह इस बात से पता चलता है कि रक्षा सामान की ख़रीद 2008 में शून्य से बढ़ कर 2020 में20 अरब डालर तक पहुँच गई थी और यह लगातार बढ़ रही है। चीन विरोधी समूह का भविष्य भारत-अमेरिका रिश्ते पर निर्भर करता हैं।
चीन पर आधारित एशिया की व्यवस्था से चीन के सभी पड़ोसी आतंकित हैं पर भारत का रूख निर्णायक होगा। भारत की नीति में बुनियादी परिवर्तन आगया है। लेकिन सवाल यह ही नही कि हम कहाँ पहुँचे हैं, सवाल यह भी है कि हमने किधर तक जाना है? क्या चीन के विरूद्ध उसके सताए हुए देशों का औपचारिक गठबंधन बनेगा? चीन की प्रतिक्रिया क्या होगी? क्या अमेरिका चीन के साथ हमारे सीमा विवाद में उतनी दिलचस्पी दिखाएगा जितनी उसे हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र में है? अगर फिर चीन अतिक्रमण करता है तो अमेरिका की भूमिका क्या होगी? इस क्षेत्र की एक और बड़ी ताकत रूस की प्रतिक्रिया क्या होगी? इससे भारत रूस के रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा? भारत किस हद तक चीन विरोध में जाएगा? बहुत से सवाल है जिनका जवाब आने वाला समय ही देगा। अभी तो ‘पीछे धकेलने’ की शुरूआत है। अभी तो ममता दीदी की भाषा में कहा जा सकता है, खेला होबे !