एक साल पहले प्रधानमंत्री मोदी ने कोरोना वायरस से लड़ने के लिए राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा की थी। देश को केवल चार घंटे का नोटिस दिया गया था। भगदड़ मच गई थी। फिर हमने लाखों की तादाद में प्रवासी मज़दूरों को पैदल घर जाते देखा। बेसहारा, वह देश की लावारिस औलाद है, तब भी थी और अब भी है। भारत के अनियमित सेक्टर मे लगभग 50 करोड़ लोग काम करतें है जिनके पास कोई सुरक्षा कवच नही है। अचानक लॉकडाउन ने उनकी हालत दयनीय बना दी। काम ही नही रहा। बहुत समय न सरकारों ने परवाह की, न मालिक ने और न ही समाज ने। सबने आँखें बंद कर लीं जिस पर प्रमुख दार्शनिक नोम चेयस्की की टिप्पणी थी, “भारत के विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग की बेरुख़ी उल्लेखनीय है”।
देश में रोजगार का गम्भीर संकट पैदा हो गया है। कोरोना के कारण बेरोज़गारी की जो दर फ़रवरी में 8.8 प्रतिशत थी अगले ही महीने 23.5 प्रतिशत तक पहुँच गई। अर्थ व्यवस्था में रिकार्ड 24 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। लेकिन इस त्रासदी का एक प्रशंसनीय पक्ष भी है जिसे प्राप्त मान्यता नही दी गई। लाखों लोग कई सौ किलोमीटर दूरअपने घरों के लिए चल रहे थे, भूखे प्यासे बेसहारा। कईयों के पास बिलखते बच्चे थे। एक ने बूढ़े बाप को कंधे पर उठाया हुआ था। जेब ख़ाली थी। यह भी मालूम नही था कि आगे रोज़ी रोटी का प्रबन्ध कैसे होगा लेकिन सारे रास्ते एक दुकान लूटी नही गई, एक जगह दंगा नही हुआ। विदेशों में अनाज की दुकानें लूटी जा चुकीं हैं। न्यूयार्क और शिकागो जैसे शहरों में बिजली चले जाने के बाद कई मॉल लूटी गईं। जार्ज फलौयड की मौत के बाद दंगों में अमेरिका में देश भर में शीशे तोड़ कर मॉल और स्टोर लूटे जा चुकें हैं। पर हमारे यहाँ ग़रीब प्रवासी जिन्हें सरकार और समाज दोनों ने दुतकार दिया था, इन क्रूर शहरों को छोड़ कर चुपचाप पैदल चले जा रहे थे, अनिश्चित भविष्य की तरफ़। ग़ज़ब का संयम दिखाया गया। यह असली भारत है, शांत और सभ्य। प्रवासी मज़दूरों के इस दर्दनाक पलायन के दृश्य इस देश को सदैव कचोटते रहेंगे।
अब फिर कोरोना से हालत ख़राब हो रही है। इतनी तेज़ी से बढ़ रहा है कि आँकड़ो की बात करना ही फ़िज़ूल है क्योंकि अगले दिन ही वह बेमतलब हो जातें हैं। सारांश यह है कि हम कोरोना की दूसरी लहर में है। बड़े शहरों में आईसीयू बेड कम पड़ने लगे हैं। विशेषज्ञ बताते है कि यह कोरोना का दूसरा अवतार, ‘डबल म्यूटैंट’ है जो अधिक फैलता है। अभी भी इस महामारीकी गहराई,प्रसार और प्रभाव के बारे विशेषज्ञ अनिश्चित हैं। स्टेट बैंक की रिपोर्ट के अनुसार यह लहर फ़रवरी मे शुरू हुई थी और मई तक चलेगी। मई के बाद यह थम जाएगी या कुछ देर के बाद तीसरी लहर शुरू हो जाएगी,यह भी मालूम नही। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री फिर लॉकडाउन लगाने की धमकी दे रहे हैं पर लॉकडाउन भी कोई स्थाई इलाज नही है क्योंकि उसके खुलते यह वायरस फिर फैल जाएगा। इस लहर को रोकना है तो बराबर टीकाकरण की लहर शुरू करनी होगी। सामूहिक टीकाकरण के कारण अमेरिका में जो केस जनवरी में 250000 दैनिक थे वह पिछले सप्ताह 50000 दैनिक रह गए। ब्रिटेन में टीकाकरण से जो दैनिक केस जनवरी में 60000 थे अब सिर्फ़ 5000 दैनिक रह गए हैं। इसीलिए भारत सरकार से भी कहा जा रहा है कि वह यहाँ टीकाकरण अभियान तेज़ करें। कुछ क़दम उठाए भी गए है पर इस सारे मामले में हमारी सरकार ने ग़ज़ब की सुस्ती और प्रशासनिक संकोच दिखाया है। पिछले साल जो प्रो-एक्टिव सरकार थी वह नजर नही आ रही। इस मामले में तीन आपतियां हैं:
एक, सरकार ने टीके की पात्रता का मानदंड दस वर्ष कम कर45 वर्ष कर दिया है,पर बहुत देर कर दी मेहरबाँ आते आते ! यही क़दम कुछ सप्ताह पहले उठाया होता तो शायद इस दूसरी लहर को कुछ रोका जा सकता पर कई सप्ताह बर्बाद कर दिए। एक तरफ़ सरकार कहती है कि हमारे पास सरपल्स वैक्सीन है फिर नख़रों के साथ आयु सीमा कम क्यों की जा रही है? हम दुनिया में टीका के सबसे बड़े उत्पादक है फिर यह सुस्त चाल क्यों है? लोग वैक्सीन माँग रहे है पर इसे सरकारी किश्तों में बाँटा जा रहा है। जब योजना आयोग बंद किया गया तो जायज़ तर्क था कि ज़रूरत से अधिक केन्द्रीयकरण हो रहा है लेकिन अब लगता है कि कुछ नही बदला केवल फट्टी बदली गई है, मानसिकता वही है। सब कुछ दिल्ली से चलाने की कोशिश हो रही है। पात्रता भी दिल्ली ही तय कर रहा है जबकि प्रदेशों को आज़ादी होनी चाहिए कि अपने मुताबिक़ वह जिसे चाहे टीका लगवाएं।
45 वर्ष के लोगों के लिए टीका खोला गया पर सवाल है कि 40 वर्ष या 35 या 30 या 25 या 20 वर्ष के लिए क्यों नहीं? स्वास्थ्य मंत्रालय के अपने अनुसार देश मे 25 से 44 वर्ष की आयु वाले 40 प्रतिशत युवा कोरोना की चपेट में हैं। इन्हें वैक्सीन क्यों न मिले ? यह वर्ग है जो सबसे अधिक बाहर निकल रहा है, सबसे अधिक लापरवाह है और सबसे अधिक संक्रमण फैला रहा है। इन्हें टीका लगाने की सबसे अधिक ज़रूरत हैपर नही, दिल्ली के बड़े दफ़्तरों में बैठे बड़े लोग नही समझते कि यह अभी इस के अधिकारी हैं,जबकि जब तक इन्हें टीका नही लगता यह चेन तोड़ी नही जा सकती। विशेषज्ञ देवी शेट्टी के अनुसार अगर हम 20 से 45 वर्ष के वर्ग को टीका लगवा दें तो छ: महीने में इस वायरस पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। लेकिन जिस कछुआ चाल से यह सरकार निर्णय ले रही है इनकी बारी आते तो बहुत देर हो चुकी होगी और वायरस दिन दुगनी रात चौगुनी दर से छलाँग लगा रहा होगा। हम कितने पिछड़े है यह इस बात से पता चलता है कि अभी तक 100 में से केवल 3-4 को ही टीका लगा है।
दो, जिस तरह सरकार ने उदारता से दूसरे देशों को वैक्सीन भेजी है, वह भी समझ से बाहर है। ठीक है अगर पड़ोसी, नेपाल, बांग्लादेश, भुटान, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान की कुछ मदद करते पर हम तो बह गए और 76 देशों को ‘वैक्सीन मैत्री’ अभियान के अंतर्गत वैक्सीन भेज रहें जबकि हमारे अपने लोग इंतज़ार कर रहें हैं। मैत्री अपनी जगह ठीक है पर जो दरियादिली बाहर भेजने में दिखाई गई वह अपने देश में क्यों नज़र नही आई ? विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित बाहर हमारी ख़ूब प्रशंसा भी हुई। इसे नई ‘कूटनीतिक करंसी’ कहा गया लेकिन आँकड़े क्या बोलते हैं? दूसरे देशों को 6 करोड़ से अधिक डोज़ भेजने वाला भारत अपने लोगों को भी 6करोड़ डोज़ ही लगवा सका है। हम इतने उदार क्यों हो गए कि इंडिया फ़र्स्ट भूल गए ? सरकार ने संयुक्त राष्ट्र को बताया है कि हमने अपने लोगों को वैक्सीन लगाने से अधिक वैश्विक स्तर पर वैक्सीन पहुँचाई है। यह गर्व करने की बात कैसे हो गई? हमने तो कैनेडा की रिकवैस्ट पर वैक्सीन भेज दी क्योंकि उन्हे कम पड़ गई थी। सोचिए कि अगर हमे ज़रूरत पड़ती तो वहां खालिस्तानी तत्वों पर लगाम लगाने से इंकार करने वाले ट्रूडो साहिब हमारे प्रति भी इतनी ही उदारता दिखाते? वैक्सीन को लेकर ब्रिटेन और ईयू में ज़बरदस्त खींचातानी चल रही है पर हमने तो बोलिविया को भी टीका भेज दिया। यह बोलिविया है कहाँ, यह गूगल मैप पर देखना पड़ा ! क्या विदेशों में कम भेज कर यही टीका अध्यापको या गृहिणियों को नही लगाया जा सकता था ताकि बच्चों को ख़तरा कम हो जाता ? हम दुनिया को बचाने निकले हैं जबकि हमारे मुम्बई महानगर में वायरस अनियंत्रित हो रहा है। मुम्बई को अतिरिक्त वैक्सीन भेजने पर विचार क्यों नही हुआ?
तीन, लोगों से कहा गया है कि मास्क पहने, दूरी रखें पर हमारे राजनेता मज़े से चुनाव प्रचार में लगे रहे जहाँ इन पाबन्दियाँ की धज्जियाँ उड़ाई गई। असम और बंगाल में 40 से अधिक रैलियाँ और रोडशो हो चुकें है। इसी अनुपात से तमिलनाडु और केरल में भी रैलियाँ और रोडशो किए गए। क्या कोरोना को रिश्वत दी गई थी कि उधर न भटके? चुनाव आयोग ने भी ग़ौर नही किया। देश के कुछ हिस्सों में रात का कर्फ़्यू है पर कुछ हिस्सों में प्रचार बेख़ौफ़ और बेमास्क चलता रहा। हरिद्वार मे महाकुम्भ में 3-5 करोड़ लोग आएँगे। पहले मुख्यमंत्री ने जो पाबन्दियाँ लगवाईं थीं वह नए ने हटा दी। तीर्थ सिंह रावत का कहना था कि आस्था कोरोना से बचाएगी पर ‘आस्था’ उन्हें तो बचा नही सकी और वह कोरोना ग्रस्त हो कर अस्पताल पहुँच गए। हमारे देश में ऐसी अवैज्ञानिक सोच वाले लोग उपर तक कैसे पहुँच जाते हैं?
किसान आन्दोलन जारी है। धार्मिक आयोजन हो रहे है। कई जगह ख़ूब मस्त होली मनाई गई। लोग सहयोग नही देते तो कोरोना रूकेगा कैसे? इलाज केवल टीकाकरण और अधिक टीकाकरण है,नही तो जिस रफ़्तार से यह वायरस फैल रहा है वह हमारी स्वास्थ्य सेवाओं को दबा देगा। पर जनता बेपरवाह है और सरकार कोरोना ‘फटीग’ अर्थात कोरोना थकावट दिखा रही है। टीकाकरण की हमारी अधूरी कहानी बहुत तकलीफ़ देने वाली है।