बात फ़रवरी 1999 की है जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपनी बस यात्रा पर लाहौर गए थे। एक शाम पहले मैं भी मीडिया पार्टी के साथ वहां पहुँचा था। लाहौर का हम पंजाबियों के लिए विशेष आकर्षण है। मेरी तो पैदायश ही लाहौर की है। वहां फ़ुर्सत के समय हम कुछ लोग लाहौर देखने निकल पड़े थे। मशहूर अनारकली भी देखी जो मुझे एक तंग बाज़ार से अधिक कुछ नही लगी। मैं विशेषतौर पर निसबत रोड पर अपना पैतृक घर देखना चाहता था। वह मकान तो मिला नही क्योंकि उसकी जगह एक मार्केट बन गई थी पर उस चौंक में ‘पंजाब बेकरी’ अवश्य नजर आई। हम अन्दर गए तो पता चला कि वह परिवार जालन्धर के बस्ती शेख़ से वहां गया हुआ है। मालिक ने बहुत अच्छी तरह हमारा स्वागत किया और बताया कि लाहौर में ‘जालन्धर मोतीचूर हाऊस’ और ‘जालन्धर स्वीटस’ भी है। विशेष तौर पर ‘जालन्धर मोतीचूर हाऊस’ के लड्डू पूरे पाकिस्तान में मशहूर हैं। यह दुकान वहां 1922 में स्थापित हुई थी और मैंने इंटरनेट पर चैक किया है, आज तक चलती आ रही है। पाकिस्तान के कुछ और शहरों जैसे गुजरॉवाला में भी ‘जालन्धर स्वीटस’ या दूसरे भारतीय शहरों के नामों पर दुकानें आज भी मौजूद हैं। यह सब मैं क्यों लिख रह हूँ, यह मैं नीचे बताता हूँ।
जब लाहौर घूमने निकले तो यह देख कर हैरान रह गए कि कुछ घरों पर ‘श्री’ तो कईयों पर ‘ओम्’ लिखा हुआ था। जिनके घर थे वह तो भारत चले गए पर नए मालिकों ने यह धार्मिक चिन्ह मिटाए नहीं। सोशल मीडिया पर मैंने बलूचिस्तान के मैखतार लोराला का चित्र देखा है जहाँ विभाजन के समय छोड़ कर गए हिन्दू की दुकान पर अभी भी वही ताला लगा हुआ है। किसी ने दुकान को हाथ तक नही लगाया। लाहौर में सर गंगाराम अस्पताल तथा लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित गुलाब देवी अस्पताल आज भी अपने पुराने नाम से चल रहें हैं, किसी ने उन्हे मुस्लिम नाम देने की कोशिश नही की। इसी तरह वहां दयाल सिंह कॉलेज अपने मूल नाम से चल रहा है केवल अब वह सरकारी है। वहां ‘लक्ष्मी चौंक’ भी है और ‘टेम्पल रोड’ भी है। रत्न चन्द रोड भी है। इंटरनेट से मालूम हुआ कि उनके हैदराबाद शहर में ‘बॉम्बे बेकरी’ भी है जो 100 साल पुरानी है और आज भी बराबर लोकप्रिय है। इनके केक के लिए लम्बी लाइन लगती है क्योंकि दैनिक सप्लाई सीमित रखी जाती है। इसकी नींव कुमार थडानी ने रखी थी और आज भी स्वामित्व इसी परिवार के पास है।
पाकिस्तान में इन सब संस्थाओं, सड़कों, दुकानों आदि के नाम नही बदले गए पर हमारे यहाँ कुछ लोग उलटी दिशा में चल रहें हैं और इतिहास पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहें हैं। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जो अधिक उग्रवादी है, अधिक ग़ैरज़िम्मेदार है वह अधिक देश भक्त है। कुछ सप्ताह पहले मुम्बई की मशहूर ‘कराची बेकरी’ बंद हो गई। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने नाम में ‘कराची’ को लेकर बड़ा हंगामा खड़ा किया था। शिवसेना के एक नेता ने ‘कराची स्वीटस’ के नाम से ‘कराची’ हटाने की माँग ही नही की, चेतावनी भी दे दी। ‘कराची बेकरी’ के संस्थापक खानचन्द रमानी विभाजन समय कराची से भारत आए थे और 1953 में उन्होंने हैदराबाद में पहली दुकान खोली थी। बैंगलूरू में भी ‘कराची बेकरी’ है जिसके बाहर पुलवामा के हमले के बाद प्रदर्शन हो चुका है। वह भी नाम से ‘कराची’ हटाने की माँग कर रहे थे लेकिन जब पता चला कि मालिक हिन्दू है तो भीड़ लौट गई।
मुम्बई में पहले बेकरी के उपर लिखा ‘कराची’ ढकने की कोशिश की गई पर अब बेकरी बंद कर दी गई है चाहे तंगी इसका बहाना बताया जा रहा है। कारण कुछ भी हो ‘कराची’ को लेकर हंगामा क्यों हो? पुलवामा हमले से इसका क्या सम्बन्ध? केवल नारेबाजी से तो देश मज़बूत नही होगा। हमारे यहां तुरन्त-देशभक्त बहुत हैं, पर इनमें से कितने अपनी औलाद को सीमा पर भेजने के लिए तैयार हैं? ‘कराची बेकरी’ का नाम बदलने के प्रयास ने पाकिस्तान की सैनेटर शैरी रहमान को हमे यह नसीहत देने का मौक़ा दे दिया, “बॉम्बे बेकरी हमारे हैदराबाद में फलफूल रही है। कोई नाम बदलने के बारे सोचता भी नही। अपना अतीत मिटाने के प्रयास से अदूरदर्शी मानसिकता फैलती है”। निकाय चुनाव में प्रचार कर रहे योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की कि हैदराबाद का नाम बदल कर ‘भाग्यनगर’ रखा जाएगा ताकि विकास की नई बुलंदियों पर इसे ले जाया जा सके। सवाल तो यही है कि क्या ‘विकास की नई बुलंदियों’ पर लेजाने के लिए शहर का नाम बदलना जरूरी है? कईयों को शिकायत है कि हैदराबाद अपनी ‘ निज़ामी-नवाबी’ संस्कृति में डूबा हुआ है पर क्या वहां के लोग इसे बदलना भी चाहते हैं? यह भी तो हो सकता है कि वह अपनी उस तहज़ीब से संतुष्ट हो जो उन्हे स्पेशल बनाती है? पाकिस्तान के अख़बार एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने कुछ समय पहले यह टिप्पणी की थी, ‘ पहले पाकिस्तान को असहनशील समझा जाता था…पर अब भारत में अभियान नजर आता है कि जो विवेकशील है उसे नष्ट कर दो’। यह अतिशयोक्ति हो सकती है पर यहाँ भी बहुत लोग हैं जो कट्टरवाद में पाकिस्तान की नक़ल करना चाहतें हैं।जो उनका विरोध करतें हैं उन्हे यह कह कर चुप करवा दिया जाता है कि ‘पाकिस्तान जाओ’।
हम कौन हैं? क्या हैं? कहाँ जाना है? यह बहुत लम्बी बहस है। फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखा था, ‘काफिले गुज़रते गए हिन्दोस्तान बनता गया’। हमारा भी अतीत है। बाहर का बहुत प्रभाव, अच्छा बुरा, हम पर है। हम इसे नकार नही सकते न ही दफ़ना सकते हैं, न ढक सकते हैं। विदेशी हुकूमत सदैव अत्याचारी होती है पर वह कई चीज़ें अच्छी भी छोड़ गए हैं। अगर हम अपनी संस्कृति को अच्छी तरह समझे तो हमारा दर्शन बहुत उदार है पर कुछ तत्व जिन्हें ज़रूरत से अधिक प्रचार मिलता है,के कारण हमारी छवि एक अनुदार लोकतन्त्र की बनती जा रही है। मुझे अहसास है कि पाकिस्तान में अभी तक मंदिर तोड़े जा रहें है और हिन्दू और सिख लड़कियों को अगवा कर धर्म परिवर्तन करवा कर जबरन निकाह करवाया जा रहा है। पर हमने पाकिस्तान नही बनना। कोई भी मुस्लिम देश प्रगतिशील नही है। पाकिस्तान दिवालिया हो चुका है जबकि एक समय वह हमसे आगे थे। मुस्लिम देशों की यह हालत क्यों है? इसलिए कि उन्होंने बाहर की ताज़ा हवा के लिए दिमाग़ की खिड़की दरवाज़े बंद कर रखें हैं। यूएई जैसे देशों में आधुनिक ज़रूरतों के कारण अब बदलाव की बयार देखी जा रही है। अबू धाबी में पहले हिन्दू मंदिर की नींव पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी ने रखी थी। वहां तो अब अविवाहित जोड़ो को साथ रहने की इजाज़त दे दी गई है। पर हमारे यहाँ तो महिलाओं द्वारा फटी जीन्स पहनने पर आपति की गई। मैं ख़ुद फटी जीन्स को बदसूरत फ़ैशन समझता हूँ। ऋषि कपूर की टिप्पणी याद आती है कि हाथ में भीख का कटोरा भी पकडवा दो ! लेकिन मामला व्यक्तिगत आज़ादी का है। अगर युवा फटी जीन्स पहनना चाहतें है तो किसी और को आपति क्यों हो जिस तरह अगर कोई ‘कराची बेकरी’ नाम रखना चाहे तो उसे रोका क्यों जाए? हमारे यह स्वयंभू संरक्षक हर जगह क्यों उग रहें हैं ? हमें गर्व है कि न्यूज़ीलैंड की संसद के लिए चुने गए भारतीय मूल के गौरव शर्मा ने संस्कृत में शपथ ग्रहण की। यह उदारता हमें पसन्द है पर क्या किसी और भाषा के प्रति ऐसा सम्मान दिखाने को हम तैयार हैं? असम के मुख्यमंत्री सर्बानन्द सोनोंवाल का कहना है कि ‘मुग़लों के असम पर हमलें जारी हैं’। आज के चुनाव में मुग़ल कहाँ से टपक गए? वैसे भी असम में मुग़लों की दखल बहुत मामूली थी पर फिर भी साज़िशें खोदी जा रही हैं।
हमारी 5000 साल पुरानी सभ्यता है जो सदैव नए नए विचारों के लिए खुली रही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने तभी व्यक्तिगतऔर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ज़ोर दिया है। किसान आन्दोलन में टूलकिट मामले में देशद्रोह का मामला झेल रही दिशा रवि को ज़मानत देते हुए अतिरिक्त सैशन जज धर्मेन्द्र राणा ने बहुत बढ़िया फ़ैसला दिया है। योग्य जज लिखतें हैं, “किसी लोकतान्त्रिक देश में नागरिक सरकार की अंतरात्मा के संरक्षक हैं …संवाद की कोई भुगौलिक रूकावट नही होती…नागरिकों का मूल अधिकार है कि उसका इस्तेमाल करें जिन्हें वह सबसे अच्छा समझतें हैं”। योग्य जज अपने फ़ैसले में ऋग्वेद के श्लोक का वर्णन करतें हैं जिसका अर्थ है, ‘हमारे पास चारों तरफ़ से कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हे किसी से बंधित न किया जा सके और अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों’। अर्थात हमारी संस्कृति विभिन्न विचारों का सम्मान करती है। यह हमारी शक्ति है जो प्राचीन समय से चलती आ रही है और जो हमे महान और अनूठा बनाती है। स्वामी विवेकानन्द ने भी लिखा था, ‘मैं कौन हूँ? एशियाई, यूरोपियन या अमरीकी? मुझे अहसास है कि मेरे अन्दर व्यक्तित्वों का मिश्रण है”। यह वही विचारधारा है जो ऋग्वेद के श्लोक में प्रकट की गई। हमारे दिमाग़ के दरवाज़े खिड़कियाँ सब प्रकार के विचारों के लिए खुले रहने चाहिए। वसुधैव कटुम्बकम ! हम दुनिया को यह नसीहत देते रहतें हैं पर ख़ुद अन्दर से संकुचित, असुरक्षित और अनुदार हो रहें हैं। यह दौर बदलने की ज़रूरत है नही तो भारत अपना अनोखापन खो देगा। ऐसी हालत क्यों बन जाए कि चुनाव अभियान के बीच एक मुख्यमंत्री को अपना गोत्र बताना पड़े?
बहरहाल ‘कराची बेकरी’ मुम्बई में बंद हो गई। अब ‘कराची हलवा’ का क्या करना है?