एक समय भारत और सोवियत यूनियन के रिश्ते इतने घनिष्ठ थे कि उनके पूर्व प्रधानमंत्री निकिता क्रूश्चेवने हमे कहा था, ‘आप हिमालय से आवाज़ लगाओ हम तुरंत चले आएँगे’। यह उन्होंने चीन से हमे मिल रहे खतरे के संदर्भ में कहा था। तब उस देश की नीति इतनी स्पष्ट भारत पक्षीय थी कि पाकिस्तान की उन्होंने कोई परवाह नही की। अब संबंध इतने बदल चुकें हैं कि रूस के विदेश मंत्री सर्गोइ लावरोव अपनी भारत यात्रा के बाद सीधा इस्लामाबाद पहुँचे जहाँ हवाई अड्डे पर उनका स्वागत पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह मुहम्मद क़ुरैशी ने किया। क़ुरैशी साहिब उस बिल्ली की तरह प्रसन्न नजर आ रहे थे जिसने दूध का कटोरा चाट लिया हो! लावरोव ने इमरान खान और जनरल बाजवा से भी मुलाक़ात की। इसके विपरीत जब लावरोव हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर से हैदराबाद हाउस में मिले तो दोनों की बॉडी लैंग्वेज कह रही थी कि सब कुछ ठीक ठाक नही है। अमेरिका के अधिकारियों ने भारत आकर पाकिस्तान जाना छोड़ दिया था ताकि यह प्रभाव ख़त्म हो जाए कि दोनों को बराबर समझा जा रहा है। नईदिलली से इस्लामाबाद जा कर लावरोव ने भारत की दुखती रग पर हाथ रख दिया। संदेश था कि हमे आपकी आपतियों या संवेदनशीलता की अधिक चिन्ता नही रही।
इस यात्रा के दौरान रूस के विदेश मंत्री की प्रधानमंत्री मोदी से भी मुलाक़ात नही हो सकी क्योंकि ‘प्रधानमंत्री बंगाल के चुनाव में व्यस्त थे’। लावरोव से पहले आए अमेरिका के विशेष अधिकारी जॉन कैरी से प्रधानमंत्री की मुलाक़ात हुई थी। चुनाव मे व्यस्त रहने के बावजूद अगर दोनों देश चाहते तो लावरोव से मुलाक़ात का प्रबन्ध हो सकता था। वह एक दिन पहले आकर या बाद में रूक कर प्रधानमंत्री से मिल सकते थे। कि दोनों तरफ़ से अधिक दिलचस्पी नही दिखाई गई आपसी रिश्तों की हालत बयान करती है। इन ऐतिहासिक रिश्तों में गर्माहट नही रही। दिवालिया पाकिस्तान से रूस को मिलेगा क्या, इसके सिवाय कि वह भारत को बताना चाहते थे कि हमारे पास भी विकल्प हैं? लावरोव द्वारा पाकिस्तान को ‘इंम्पॉरटेंट फ्रैंड’ कहना भी यही संदेश देता है। शीत युद्ध में सोवियत यूनियन की पराजय और चीन के उभार ने दुनिया बहुत बदल दी। रूस की ताकत लगातार कम होती जा रही है पर जैसे पूर्व राष्ट्रीय रक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने अपनी किताब ‘चौयसेज़’ में लिखा है, ‘चाहे अंतराष्ट्रीय व्यवस्था को हिलाने की क्षमता रूस में न रही हो या पश्चिम ने इसे रोक लिया हो,इसके बावजूद उनके पास अभी भी गड़बड़ करने की अपार क्षमता है’। रूस अभी भी बड़ी सैनिक ताकत है। हम अपनी रक्षा ज़रूरतों का 60-70 प्रतिशत रूस से पूरा कर रहें हैं। लेकिन इस एक क्षेत्र को छोड़ कर रूस किसी भी और क्षेत्र में अमेरिका या चीन की बराबरी नही कर सकता। हमारी अपनी अर्थव्यवस्था उन पर भारी है। अमेरिका और रूस के रिश्ते लगातार बिगड़ रहें है। राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनकी टीम महसूस करती है कि रूस ने अमरीका के चुनाव में डानल्ड ट्रंप के पक्ष में दखल दिया था। बाइडेन तो पुतिन को ‘किल्लर’ अर्थात हत्यारा कह चुकें हैं। ऐसी स्थिति में जब पश्चिम के देश रूस पर प्रतिबंध भी लगा रहें हैं उसे चीन में ही सहारा नजर आ रहा है।
अमेरिका-रूस -चीन के त्रिकोण में रिश्ते लगातार बदलते रहें हैं। जर्मनी के ख़िलाफ़ अमेरिका और सोवियत यूनियन एकजुट हुए थे। फिर सोवियत यूनियन के विरूद्ध अमेरिका और चीन दोस्त बने थे। अब अमेरिका से दोनों को मिल रही चुनौती के कारण चीन और रूस अभिन्न मित्र बन चुकें है। यह सम्बन्ध भविष्य में बदल भी सकतें है पर इस वक़्त तो रूस चीन को सीनियर पार्टनर मान रहा है जो भारत के साथ रिश्तों में आई ठंडक का बड़ा कारण है। इस बदलती दुनिया और चीन से मिल रही चुनौती के कारण भारत और अमेरिका भी नज़दीक आ रहें हैं। रूस को यह सामरिक नज़दीकी बिलकुल पसंद नही, जो बात वह साफ़ भी कर चुकें हैं। लावरोव ने तो अमेरिका-भारत-जापान-आस्ट्रेलिया के ‘क्वाड’ पर आपति करते हुए उसे ‘एशिया नाटो’ कह दिया है जिस पर जयशंकर का तल्ख़ जवाब था कि किसी देश के पास दूसरों के साथ हमारे संबंधों पर वीटो नही है। नई दिलली स्थित रूसी राजदूत ने भी आपति की है कि इंडो-पैसेफिक (भारत-प्रशांत महासागर) रणनीति का मक़सद ‘शीत युद्ध का ढाँचा फिर से खड़ा करना है’।
भारत की विदेश नीति में निश्चित तौर पर बड़ा बदलाव आया है जो समय और ज़रूरत के अनुसार आना भी चाहिए। विदेश नीति गतिहीन नही हो सकती। रूस भी चीन से हमारे प्रति रवैये में बदलाव नही करवा सके। अब रूस की दिलचस्पी भारत को रक्षा सामान के निर्यात मे ही रह गई है। विशेष तौर पर वह नही चाहते कि भारत उनसे आयात होने वाले एस-400 एंटी मिसाइल सिस्टम की ख़रीद से मुकर जाए। दुनिया को देखने का दोनो का नज़रिया भी बदल गया है। रूस के लिए अमेरिका खलनायक है तो हमे चीन से चुनौती है। ‘क्वाड’ पर रूस चीन की भाषा बोल रहा है। अफ़ग़ानिस्तान के मामले में भी वह हमारे हितों की चिन्ता नही कर रहे। “रूस का सारा ध्यान पश्चिम के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा पर है। इस में अगर चीन उनकी मदद करता है तो यह उन्हे स्वीकार है”, यह बात विशेषज्ञ हर्ष वी पंत का कहना है। पुतिन कह चुकें हैं कि चीन के साथ सांझेदारी ‘अभूतपूर्व’ स्तर तक पहुँच चुकी है। चीनी मीडिया जो लगातार हमे रगड़ा लगाता रहता है का कहना है कि रूस के साथ रिश्तों का यह ‘सुनहरा काल’ है। अमेरिका के ख़िलाफ़ रूस को चीन की बैसाखी की ज़रूरत है। स्वाभाविक तौर पर भारत जो सीमा पर चीन का सामना कर रहा है को यह बढ़ती घनिष्ठता बिलकुल रास नही आ रही। रूस ने यह भी बता दिया है कि ‘इंडो-पैसिफ़िक’ की हमारी अवधारणा उन्हे स्वीकार नही। लावरोव ‘एशिया-पैसिफ़िक’ की बात कर रहें हैं। कूटनीतिक भाषा में मतभेद स्पष्ट किए जा रहे है।
दुनिया एक बार फिर दो ध्रुवों में बँटती जा रही है। एक तरफ़ अमेरिका तो दूसरी तरफ़ अपनी बढ़ती ताकत से मदमस्त चीन। पाकिस्तान,ईरान, रूस , तुर्की जैसे देशों का झुकाव चीन की तरफ़ है। पूर्व एशिया में भी कुछ देश चीन की बढ़ती ताकत से घबरा उस तरफ़ झुक रहें हैं। दूसरी तरफ़ वाजपेयी के समय से ही अमेरिका के साथ हमारे सम्बंध सुधर रहें हैं। बुश और मनमोहन सिंह के समय हुए परमाणु समझौते ने इसे घनिष्ठ बना दिया है जिसे ट्रंप और मोदी ने और बढ़ाया है। बाइडेन भी इसी नीति को बढ़ा रहें हैं। भारत और अमेरिका के बीच भी रिश्तों का ‘सुनहरा काल’ नज़दीक आ रहा है। चीन हमारे लिए भी कोई विकल्प नही छोड़ रहा।
पाकिस्तान अमेरिका के लिए अपना महत्व खो चुका है। नए अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो अभी तक इमरान खान को फ़ोन नही किया। फ़्रांस के साथ भी हमारी दोस्ती बढ़ रही है और वह तेज़ी से हमारी रक्षा ज़रूरतों को पूरा कर रहा है। आने वाले समय मे रूस पर सैनिक सामान की निर्भरता कम हो सकती है जबकि रूस की चीन पर निर्भरता लगातार बढ़ रही है। सदा ऐसा नही रहेगा क्योंकि महाशक्तियों में समीकरण बदलते रहतें हैं। भारत की सैनिक ताकत इन तीनों के बराबर नही पर हम दुनिया की छठी इकॉनॉमी हैं और भुगोल में हमारी स्थिति हमे और महत्व देती है। समुद्र के प्रमुख गलियारे हमारे नीचे से गुज़रते हैं। हमारी उपेक्षा नही हो सकती जिसका अब अमेरिका को पूरा अहसास है। पिछले साल एक लेख में एस जयशंकर ने लिखा था, “एक नई महाशक्ति का उत्थान कभी भी आसान नही होता…भारत को इस चुनौती का सामना समकालीन रिश्ते बना कर करना है”। यह भारत कर रहा है,जिसे रूस नापसंद कर रहा है।
यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि भारत और रूस में दूरियाँ बढ़ रही है। हमारे अतीत में बहुत कुछ साँझा है। पुतिन के सलाहकार व्याचसलव निकोनव का कहना था, “ लावरोव की पाकिस्तान यात्रा को गम्भीरता से नही लेना चाहिए”, पर साथ ही उनका कहना था “यह भारत को बदलती विश्व प्रणाली का सिगनल है”। अर्थात भारत को सिगनल है कि अगर वह दोस्त बदलेगा तो रूस से भी वफ़ादारी की आशा नही रखनी चाहिए। रूस को आशंका है कि अमेरिका जो रूस विरोधी गठबंधन तैयार कर रहा है उसमें भारत शामिल हो सकता है। पर रूस को भी समझना चाहिए कि आपसी संबंध ‘वन वे स्ट्रीट’ नही होते। अगर रूस चीन के साथ नत्थी होना चाहता है तो हमारे पास भी विकल्प हैं। आशा है कि वर्षांत तक मोदी और पुतिन के बीच शिखिर वार्ता से रिश्तों में सुधार आएगा क्योंकि यह दूरी दोनों के हित में नही है।
हमारी असली चिन्ता चीन से मिल रही चुनौती है। पैंगांग झील के क्षेत्र, जहाँ हमारा हाथ उपर था, से दोनों देशों के सैनिकों की वापिसी के बाद चीन ने अब पूर्वी लद्दाख में हॉट स्प्रिंगस, गोगरा और देपसांग से वापिस लौटने से इंकार कर दिया है। पहले चीन यहाँ से धीरे धीरे हटने के लिए तैयार था अब मुकर गया। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार हमे बता दिया गया है कि जो हो चुका उसी से संतुष्ट रहो। लगता है चीन को समझने में भारत की एक और सरकार धोखा खा गई है।