
हम कहाँ आ गए? क्यों आ गए? कैसे आ गए? सरकारी आँकड़े बेमायने हो चुकें हैं। शवों के साथ सच्चाई को दफ़नाने का प्रयास हो रहा हैपर फुटपाथों पर जल रही चिताएँ तो देश को असली तस्वीर बताती है। अस्पतालों के बाहर मरीज़ों से भरी एंमबूलेंस की लाइन तो हक़ीक़त बताती हैं। बैड और दवाई के लिए गिड़गिड़ाते मरीज़ और परिवार तो वास्तविकता बतातें हैं। कई परिवार तो अंतिम संस्कार भी नही करवा सके। शमशान और क़ब्रिस्तान में जगह नही रही। कई जगह जल जल कर शमशान की चिमनी पिघलने लगी है। बेंगलूर के एक शमशान ने टोकन सिस्टम शुरू कर दिया है, फ़र्स्ट कम फ़र्स्ट सर्व। कई अस्पतालों में आक्सिजन की कमी के कारण मरीज़ मर चुकें हैं। हरियाणा और दिल्ली की सरकारें एक दूसरे पर टैंकर चोरी का आरोप लगा चुकीं हैं। अब जहाँ भी आक्सिजन के टैंकर जातें हैं पुलिस साथ एस्कॉर्ट् करती है।
और यह वह देश है जो दुनिया की छठी सबसे बड़ी इकॉनिमी है। चौथी सबसे बड़ी सेना हमारे पास है। राफ़ेल है, परमाणु पनडुब्बी है, मंगलयान हम सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में भेज चुकें हैं। एक फ्रैंच कम्पनी के अनुसार दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र भारत में लगने जा रहा है लेकिन यह वह देश भी है जिसकी राजधानी में आक्सिजन के एक टैंकर को लेकर दो नामी अस्पतालों में भिड़ंत हो चुकी है। ‘मेरा टैंकर’, ‘मेरा टैंकर’ हो रहा था। और यह वह अस्पताल हैं जहाँ इलाज के लिए विदेशों से लोग आतें हैं। यहाँ हम डाक्टरों को बेबसी में रोते देख चुकें है क्योंकि आक्सिजन ख़त्म हो रही थी और वह अपने मरीज़ों की जान बचाने में असमर्थ हो रहे थे। कौन हमारे भावी सुपरपावर के दावे को गम्भीरता से लेगा जब राजधानी दिल्ली ही किसी पिछड़े अफ़्रीकी देश की राजधानी लग रही थी? और जब लोग तड़प रहे थे, दर दर की ठोकरें खा रहे थे क्या एक भी कथित नेता अस्पताल या शमशान घाट पर नजर आया? ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा लोकतन्त्र चुनाव लड़ने के सिवाय और कोई कार्य नही करता।
कड़वी सच्चाई है कि हमारी व्यवस्था ढह गई है। हमारा हैल्थ सिस्टम टूट गया है। हम अक्षम पाए गए। और अभी तो इस विशाल त्रासदी का अंत नज़दीक भी नजर नही आ रहा। आँकड़े और भयावह हो सकतें हैं। विशेषज्ञ बता रहें हैं कि मई के मध्य में पीक आएगा पर तब तक कितनी तबाही हो जाएगी? और क्या इन कथित ‘विशेषज्ञों’ पर विश्वास भी किया जा सकता है जो आत्म मुग्ध हो कर कोरोना पर ‘विक्टरी’ के लिए एक दूसरे को बधाई दे चुकें हैं। इनके ग़लत आंकलन की देश ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। एक ऐसे ही श्रीमान अब कह रहें हैं कि घर में मास्क पहनो पर साथ ही कहना है कि ‘बेवजह की घबराहट’ नही होनी चाहिए। उन्हे अपने कथन में विरोधाभास नजर नही आता? न्यूयार्क टाइम्स की टिप्पणी है, “सरकार और उसके नीति निर्धारितों ने समय से पहले विजय की घोषणा कर दी…”। विजय की ग़लतफ़हमी में सरकार ने पहिए से हाथ हटा दिया और हम क्रैश कर गए। प्रधानमंत्री को अब इस टीम को डिसमिस कर देना चाहिए जो इतनी अनाड़ी साबित हुई है। जो आजाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी के बारे लापरवाह रहे, क्या उनकी जवाबदेही तय होगी?
हम अकथनीय, अकल्पनीय और अंतहीन त्रासदी में प्रवेश कर चुकें है। लोग अपने अस्तित्व और अपनी जान के लिए संघर्ष कर रहें हैं। जिनका यह काम है उन पर भरोसा नही रहा क्योंकि उन्हे राजनीति में अधिक दिलचस्पी है। सत्ता के ज़रूरत से अधिक केन्द्रीयकरण के कारण भी हम फँस गए। हमारी इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि दुनिया में सबसे अधिक टीका बनाने वाला देश जो उदारता के सैलाब में बह कर विदेश में 7 करोड़ टीका बाँट चुका है,अब विदेशों से टीका ख़रीदने के लिए मजबूर है? 72 घंटों के नख़रों के बाद अमेरिका मदद के लिए आगे आया है पर पहले तो उन का कहना था ‘अमेरिका फ़र्स्ट’। वैक्सीन के लिए बजट में 35000 करोड़ रूपए अलग रखे गए जो 90 करोड़ लोगों को टीका लगवाने के लिए पर्याप्त होने चाहिए। फिर प्रदेशों या अस्पतालों को बोझ उठाने के लिए क्यों कहा जा रहा है? यह पैसा कहाँ गया? वैक्सीन की तीन क़ीमतें बताई जा रही हैं जिससे असमंजस बना हुआ है। सरकारें तो जरूरी दवाईयां की कालाबाज़ारी नही रोक सकी। ऐसे राष्ट्र विरोधी अवसर पर क्यों छापे नही डाले गए?
यही घपला आक्सिजन के बारे नजर आ रहा है। पिछले साल 162 आक्सिजन प्लांट लगाने तय किए गए थे पर सिर्फ़ 33 लगे। इन पर केवल 200 करोड़ रूपए का मामूली ख़र्च आना था पर सरकारी जड़ता में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। अगर यह घोर लापरवाही न होती तो असंख्य जाने बचाई जा सकती थी। अब प्रधानमंत्री ने 551 आक्सिजन प्लांट लगाने की घोषणा की है पर यह तो प्यास लगने पर कुआँ खोदने जैसी बात होगी। विडम्बना है कि दूसरों के साथ पाकिस्तान भी मदद की पेशकश कर रहा है। निश्चित तौर पर हंस रहे होंगे कि यह मियाँ सुपरपावर बनने चले थे पर रेत के पैर निकले। हमारी इससे बड़ी दुर्गति क्या हो सकती है कि बांग्लादेश ने भी भारतीय नागरिकों के प्रवेश पर पाबन्दी लगा दी है ? इस वक़्त एक प्रकार से सारी दुनिया ने हम पर बैन लगा दिया है।
यह संतोष की बात है कि कई हाईकोर्ट बहुत सक्रिय हैं और सरकारों की ख़ूब खिंचाई कर रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने तो स्पष्ट कर दिया कि आक्सिजन का प्रबन्ध करना सरकार की ज़िम्मेवारी है। खेद की बात है कि चुनाव आयोग ने अपनी भूमिका सही नही निभाई। पश्चिम बंगाल में इतने लम्बे चुनाव की ज़रूरत क्या थी? और जब पता चल गया था कि महामारी विकराल रूप धारण कर रही है चुनाव को संक्षिप्त करने का प्रयास क्यों नही किया जैसे मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी बार बार माँग कर रही थीं? न ही आयोग ने प्रचार के दौरान यह ही देखा कि कोरोना-प्रोटोकॉल का सही पालन हो रहा है या नही? केवल काग़ज़ी चेतावनियाँ दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी गई। अब कोलकाता में हर दूसरा आदमी संक्रमित पाया जा रहा है। पश्चिम बंगाल में 93 गुना मरीज़ बढ गए हैं। मद्रास हाईकोर्ट का कहना है कि कोरोना के फैलाव के लिए चुनाव आयोग ज़िम्मेवार है, उसके अधिकारियों के ख़िलाफ़ हत्या का मामला चलना चाहिए। अर्थात लापरवाही या समर्पण की कीमत चुकाने का समय आ रहा है।
जब लोग जीवन मरन के संघर्ष मे लगे हुए थे जोश से राजनीतिक प्रचार जारी रख नेतृत्व ने बुरी मिसाल क़ायम की है। स्कूल बंद, परीक्षा रद्द पर चुनाव रैली चलती रही। सड़कों पर बिना मास्क के चालान काटे जा रहे थे पर रोडशो मे बिना मास्क के नेता लोगों पर फूल बरसा रहे थे। अगर नेता लापरवाह होंगे तो जनता क्यों ज़िम्मेवार बनेगी? यथा राजा तथा प्रजा ! इसी तरह कुंभ की इजाज़त दे कर धार्मिक आयोजनों को हरी झंडी दे दी गई। कोरोना अब गाँव गाँव में फैल रहा है। ब्रिटेन में प्रिंस फ़िलिप के अंतिम संस्कार में केवल 30 लोग शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री जॉनसन भी शामिल नही हुए। यह आत्म अनुशासन हममे कब आएगा ? अजीब सिग्नल गया है, लोगों के लिए लॉकडाउन नेताओं के लिए रैलियाँ ! थाईलैंड के प्रधानमंत्री को मास्क न पहनने का 190 डालर जुर्माना लगा है। ज़रा सोचो!
ज़रूरत से अधिक राजनीति का एक और बुरा प्रभाव हुआ है। सरकार ने दूसरों की अकल की बात सुनना बंद कर दिया है। कबीर जी तो कह गए कि निंदक को पास रखा करो, यह सरकार तो तनिक भी आलोचना बर्दाश्त करने को तैयार नही। डा. मनमोहन सिंह ने जब अच्छे सुझाव दिए तो आज तक के सब से असफल हैल्थ मिनिस्टर हर्ष वर्धन को इस सियाने का मज़ाक़ उड़ाने के लिए आगे कर दिया गयाजबकि चाहिए कि हर्ष वर्धन लालबहादुर शास्त्री का रास्ता अपनाते हुए त्यागपत्र दे देते। जब राहुल गांधी ने बंगाल में रैली न करने की घोषणा की तो कैलाश विजय वर्गीय का मज़ाक़ था कि ‘इनकी रैलियों में तो भीड़ नही होती’। यह बात सही हो सकती है पर यह ‘भीड़’ और उसके प्रति सवार धुन वर्तमान हालत के लिए भी ज़िम्मेवार है। और यह लोग माने या न माने कोरोना से निबटने के लिए राहुल गांधी ने जो भी सुझाव दिए थे वह सार्थक हैं और बाद में सरकार ने इन्हें लागू भी किया। राहुल गांधी का सुझाव था कि दुनिया में इस्तेमाल के लिए जो वैक्सीन मंज़ूर है भारत को इनका आयात करना चाहिए। उस वक़्त रविशंकर प्रसाद का कहना था कि राहुल दवाई बनाने वाली कम्पनियों के ‘लॉबिइस्ट’ अर्थात दलाल बन गए है। बाद मे सरकार ने यही किया। शायद समय आगया है कि देश राहुल गांधी को गम्भीरता से लेना शुरू कर दे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री परकला प्रभाकर ने लिखा है, “यह हैल्थ एमरजैंसी है…सियासी पार्टियों के लिए चुनाव जरूरी है और धार्मिक नेताओं के लिए उनकी धार्मिक पहचान… लोगों का जीवन उनके लिए मायने नही रखता”। पाठकों को बता दें कि यह सज्जन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति हैं। और इन्होंने सरकार और शासन की ‘अक्षमता’ और ‘निर्ममता’ की बात भी कही है।
एक दिन यह दौर भी ख़त्म हो जाएगा और लड़खड़ाती ज़िन्दगी पटरी पर लौट आएगी। सरकार भी अब पूरी सक्रियता दिखा रही है और जान गई है कि उसके अस्तित्व का भी सवाल है। रविवार को इन चुनावों के नतीजे भी आजाएंगे। बंगाल के चुनाव पर बड़ा ज़ोर दिया गया। “हम 200 सीटें जीत रहें हैं”। अच्छी बात है, बधाई। पर जो ज़िन्दगी से हार गए, बेमौत मारे गए, उनके प्रियजनो के ज़ख़्म कौन भरेगा?