जिस वक़्त टीवी पर पाँच प्रदेशों के चुनाव परिणाम आ रहे थे उसी वक़्त एक चैनल पर यह एस-ओ-एस फ़्लैश हो रहा था कि दिल्ली के बच्चों के एक अस्पताल में आक्सिजन ख़त्म हो रही है। उसके बाद आप के एक नेता ने उन्हे छ: सिलेंडर पहुँचा भी दिए लेकिन ऐसी अपील की नौबत ही क्यों आए? उससे एक दिन पहले दिल्ली के ही बतरा अस्पताल में आक्सिजन की कमी से 12 मरीज़ मारे जा चुके थे। यह स्थिति तब है जब दिल्ली हाईकोर्ट लगातार केन्द्र और सरकार को फटकार लगाताआर हा है। हाईकोर्ट का यहां तक कहना था कि राज्य नागरिकों के बुनियादी जीवन के अधिकारकी रक्षा करने में असफल रहा है। यह बहुत बड़ा अभियोग है लेकिन सच्चाई है कि चारों तरफ़ राज्य के पतन के प्रमाण मिल रहे हैं।आशाहीन और हताश लोग सिलेंडर या दवा या बैड के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहें हैं। सरकार का अब फिर कहना है कि आक्सिजन की कमी नही है। तो फिर लोग अभाव से क्यों मर रहें हैं? क्या यह सरकार किसी अलग ऑरबिट में घूम रही है और लोग किसी और में ? हालत तो इतनी शर्मनाक बन गई कि न्यूज़ीलैंड और फ़िलिपींस के दूतावासों को यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से सिलेंडर के लिए अपील करनी पड़ी। आख़िर जान सब को प्यारी है ! लोग बीमारी से इतने नही जितने इलाज की कमी से मारे जा रहें है। वह कोविड से ही नही कोविड की ट्रीटमेंट न मिलने से मारे जा रहें हैं। अफ़सोस है कि जो नेता थालियाँ बजाते तस्वीरें प्रकाशित करवाते रहें उन में सें एक भी सड़क पर नजर नही आ रहा, फ़ोटो-ऑप के लिए भी नही ! लोग जोश में लम्बी लाईन में खड़े हो कर वोट देते हैं पर ज़रूरत के समय नेतृत्व को ग़ायब पातें हैं। क्योंकि बार बार व्यवस्था बेसुध,असंवेदनशील और विपदा में उदासीन पाई जाती है इसीलिए मन में यह सवाल उठता है कि क्या हमारा लोकतन्त्र असफल हो रहा है? क्या वह केवल किसी को कुर्सी पर बैठाने या किसी को उतारनेतक ही सीमित रह गया है?
पश्चिम बंगाल में सूती साड़ी और हवाई चप्पल पहने अकेली महिला ने भाजपा के शक्तिशाली रथ को रोका ही नही, बुरी तरह पराजित भी कर दिया। इतने ज़बरदस्त विरोध के बावजूद वह पिछले विधानसभा चुनाव से तीन प्रतिशत वोट अधिक ले जाने मे सफल रहीं। उनके ख़िलाफ़ मोदी- शाह की जोड़ी के साथ दो दर्जन मंत्री, छ: मुख्यमंत्री और हज़ारों कार्यकर्ता मैदान मे उतारे गए। ‘कोबरा’ इसके अतिरिक्त था ! भाजपा के पास साधनों की कोई कमी तो वैसे ही नही। लेकिन व्हील चेयर पर चुनाव प्रचार कर रही इस महिला ने बता दिया कि भाजपा के नेतृत्व और अति चुस्त मशीनरी को भी पराजित किया जा सकता है। भाजपा लगातार मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में कमज़ोर कारगुज़ारी दिखाती आ रही है। प्रदेश चुनावों में पार्टी को वह सफलता नही मिल रही जो लोकसभा चुनाव मे मिली थी। हर चुनाव में उन्हे उतार कर पार्टी अपना और नरेन्द्र मोदी का अहित कर रही है क्योंकि प्रभाव यह जा रहा है कि वह सही शासन देने की जगह राजनीति पर अधिक केन्द्रित है। कोविड के दौरान रैलियाँ करवा उनकी छवि का नुक़सान किया गया है।
भाजपा ने ममता बैनर्जी को हराने के लिए क्या नही किया? उनके विधायकों का दलबदल करवाया गया पर 16 दलबदलू हार गए। ‘दीदी-ओ-दीदी’ कह कर उनका मज़ाक़ उड़ाने का प्रयास किया गया लेकिन यह सब उलटा पड़ गया क्योंकि प्रभाव यह गया कि बाहरी लोग अकेली बंगाली महिला के पीछे पड़े हैं। महिलाओं का भारी समर्थन उन्हे मिला है। भाजपा को हराने के लिए मुसलमानों ने एकजुट हो कर तृणमूल को वोट दे दिया जिस प्रक्रिया में वाम और कांग्रेस भी साफ़ हो गए। कोलकाता जिसका झुकाव भाजपा की तरफ़ समझा गया वह भी तृणमूल की तरफ़ झुक गया। मामला बंगाली अस्मिता का बन गया और लोगों ने ममता बैनर्जी के साधारण शासन और पंचायत चुनावों में हिंसा और धाँधली को माफ़ करते हुए बंगाल के क़िले को बचाने के लिए उन्हे दो तिहाई से अधिक सीटें दे दी।बंगाली उपराष्ट्रवाद के सामने भाजपा का ‘बाहरी’ नेतृत्व टिक नही सका।
ममता बैनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की जीत हमारी वर्तमान राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ है। विपक्ष को आक्सिजन मिल गई ! इस चुनाव से देश में राष्ट्रीय विकल्प उभरने की प्रक्रिया तेज़ होगी जिसकी बहुत ज़रूरत भी है। ममता बैनर्जी की जीत बता गई है कि मोदी- शाह की जोड़ी अजय नही और हिन्दुत्व की राजनीति की सीमा है। अगर तृणमूल को 48 प्रतिशत मत मिलें हैं तो निश्चित तौर पर बड़ी संख्या में हिन्दू मत भी मिलें हैं। ममता बैनर्जी राजनीतिक आकाश में स्टार बन कर उभरीं हैं। अभी से भाजपा को चुनौती देने के लिए कांग्रेस को छोड़ कर फैडरल फ़्रंट की चर्चा शुरू हो गई है। द्रमुक और स्टेलिन की तमिलनाडु में जीत इसे बल देगी। कांग्रेस और उसके नेतृत्व के लिए बुरी ख़बर है कि वह केरल और असम में सत्ता में नही आ सके, बंगाल में सफ़ाया हो गया और पुडीचेरी हाथ से निकल गया। राहुल गांधी बात अच्छी करते है पर ट्विटरसे चुनाव नही जीते जा सकते। संघर्ष कैसे किया जाता है यह उन्हे ममता बैनर्जी से सीखना होगा। ऑफ़-ऑन लीडरशिप नही चलेगी। पार्टी में असंतोष बढ़ेगा।
लेकिन असली कहानी भाजपा की पराजय की है। बंगाल जीतने पर इतना ज़ोर दिया गया कि वहां पार्टी का अपना संतोषजनक प्रदर्शन दब गया। पिछले विधानसभा चुनाव से भाजपा ने अब 28 प्रतिशत अधिक वोट की भारी छलाँग लगाई है। यह मामूली नही लेकिन क्योंकि लड़ाई जीत हार की बना दी गई थीऔर जीत हुई नही इसलिए इसे भारी हार माना जा रहा है। इसी टकराव में असम में भाजपा का बढ़िया प्रदर्शन और दोबारा सत्ता में आना भी पीछे पड़ गया क्योंकि दाव तो सारा ममता को हराने पर लगाया गया। पर भाजपा के लिए यह अच्छा हुआ कि वह हार गए नही तो और बेधड़क हो जाते कि जनता ने हमारी सफलता -असफलता पर मोहर लगा दी है। यह भी समझ बैठते कि जिस तरह वह कोरोना से निबटें हैं उससे लोग ख़फ़ा नही है। अब आशा है कि दिशा में सुधार होगा क्योंकि लोगों का सारा ध्यान कोरोना और जाने बचाने पर लगा है। यह भी याद रखने की बात हैकि पिछले एक साल में लगभग दो करोड़ लोग जो ग़रीबी से उभर चुके थे, वापिस ग़रीबी में लौट चुकें हैं।
ज़रूरत से अधिक केन्द्रीयकरण से प्रदेशों के साथ टकराव बढ़ गया है। इस देश में सब कुछ ‘वन- एवरीथिंग’ नही हो सकता। अति राष्ट्रवाद और ध्रुवीकरण की भी सीमा है। हिन्दुत्व पर अत्याधिक ज़ोर भी उलटा पड़ रहा है क्योंकि लोग देख रहें हैं कि विपदा में जिन पर भरोसा था उनका सहारा नही मिला। केवल उन्हे भड़का कर कुछ लोग अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। केरल जैसे शिक्षित प्रदेश में जाकर योगी आदित्यनाथ कि सिंह गर्जना थी कि ‘अगर हम सत्ता में आए तो लव जेहाद पर क़ानून बनाऐंगे’। क्या भाजपा के नेताओं के पास और कोई मुद्दा नही इन फ़िज़ूल बातों के सिवाय? कोरोना, बीमारी, रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार, शिक्षा? सब कुछ ध्रुवीकरण हैं? केरल हमारे उन प्रांतों में गिना जाता है जहाँ अच्छा और संवेदनशील प्रशासन है इसीलिए पिनाराई विजयन के नेतृत्व में लोगों ने 40 साल के बाद किसी पार्टी को दोबारा सत्ता सौंपी है। योगी जी की पार्टी को शून्य मिला है और वह 2016 में जीती एकमात्र सीट भी हार गए हैं। उन्हे अब अपने प्रदेश की चिन्ता करनी चाहिए जहाँ पंचायत चुनाव परिणामबता रहे है कि अयोध्या-वाराणासी-मथुरा जिलों में भाजपा को भारी धक्का पहुँचा है। अगले साल उत्तर प्रदेश, पंजाब और उतराखंड के चुनाव हैं। इन पर कोविड का संकट हावी रहेगा। इन्हें आँकड़े छिपा कर या धमकियाँ दे कर मैनेज नही किया जा सकेगा। न ही ध्रुवीकरण जैसे नुस्ख़े काम आऐंगे।
आक्सिजन का कोटा नही हो सकता। लोगों से कहा नही जा सकता कि कम साँस लो। जिनके हाथ में देश का प्रबन्ध हमने दिया है, आक्सिजन, दवा,डाक्टर, अस्पताल का प्रबन्ध करने की ज़िम्मेवारी भी उन्ही की है। यह भी दुख की बात है कि एक शब्द शोक का, संवेदना का, पश्चात्ताप का, सरकारी असफलता को स्वीकार करने कासुनने को नही मिल रहा। हर्ष वर्धन कह रहें हैं कि हमारा मृत्यु दर बहुत कम है। मंत्रीजी,कृपया कुछ नम्रता दिखाइए। आपकी निगरानी मे देश सबसे बड़ी हैल्थ त्रासदी भुगत रहा है।इसी के साथ वह सवाल उठता है जो मैंने उपर किया है,क्या हमारा लोकतन्त्र असफल हो रहा है? जो व्यवस्था और जो ढाँचा लोगों की रक्षा करने के लिए खड़ा किया उसे हम विफल होते देख रहें हैं। वह लापरवाह हो गया है। क्या लोकतन्त्र केवल कुछ के जीतने और हारने की प्रक्रिया मात्र ही है? ज़मीन पर कुछ नही बदलेगा? यह सवाल और यह आशंकाएँ बेबुनियाद नही हैंपर पाँच राज्यों के चुनाव एक सकारात्मक और सुखद संकेत भी दे गए है। हमारा लोकतन्त्र चाहे त्रुटिपूर्ण है पर कहीं संतुलन कायम करने की क्षमता भी रखता है। बंगाल, तमिलनाडु, केरल के मतदाताओं ने बता दिया कि देश ‘विपक्ष मुक्त’ होने वाला नही और लोग समय आने पर नेतृत्व को शीशा दिखा देते हैं। पश्चिम बंगाल की जायंट-किल्लर ममता बैनर्जी को भी नन्दीग्राम के लोगों ने यह शीशा दिखा दिया है।