हमने गांधीजी को नही देखा। विनोबा भावे को मैंने बचपन में देखा था, पर कुछ याद नही। अक्तूबर 2010 को जालन्धर में सुन्दरलाल बहुगुणाजी से मिलने का मौक़ा मिला तो एकदम यह आभास हुआ कि मैं एक गांधीवादी महापुरुष के सामने खड़ा हूँ। सरल, सहज, सादे। जाने माने पर्यावरणविद अनिल जोशी का सही कहना है, “बहुगुणाजी के व्यक्तित्व में मैंने गांधीजी के दर्शन कर लिए”। कोविड से उनके निधन से हिमालय की बुलंद आवाज़ ख़ामोश हो गई, पेड़ों का सबसे बड़ा संरक्षक नही रहा।यह भी आभास मिलता है कि आदर्शवादियों का युग ख़त्म हो रहा है। वह शायद अंतिम गांधीवादी थे जिनका विश्वास दृढ़ था, और उस पर अमल करने का साहस था। वह जानते थे कि एक एक पेड़ बहुमूल्य है और अनियंत्रित विकास और प्रकृति से छेड़छाड़ की बेरोक दौड़ की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। वह जनता के ‘चिपको’ आन्दोलन की आत्मा थे जिसने हर पेड़ और हर जंगल को इंसान के लालच और शोषण से बचाने की कोशिश की थी। पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उससे लिपटने के चिपको आन्दोलन को ग्रामीणों, विशेष तौर पर महिलाओं का अधिक समर्थन मिला था। बहुगुणाजी के प्रयासों और चिपको आन्दोलन के कारण इंदिरा गांधी को उनके प्रदेश में पेड़ काटने पर 15 साल की पाबन्दी लगानी पड़ी थी। बहुगुणाजी का स्पष्ट मानना था कि अगर बाढ़ और प्राकृतिक आपदा से बचना है तो पेड़ों का काटना बंद होना चाहिए। उनका सारा जीवन पेड़ों और पहाड़ों को समर्पित था। 1991-92 में लोगों को हरियाली के प्रति जागृत करने के लिए उन्होंने कश्मीर से कोहीमा की 4000 किलोमीटर की पदयात्रा की थी। लेकिन हम अभी तक नही सुधरे। एक रिपोर्ट के अनुसार 2020 में हमारे वन आवरण में 20 प्रतिशत की कमी आई है। आजकल आक्सिजन की ज़रूरत को लेकर बहुत जागरूकता है पर हम विकास के नाम पर पेड़ जो मुफ़्त में आक्सिजन देते हैं, को लगातार बेरहमी से काट रहें हैं। दिल्ली में सेंट्रल विस्टा के लिए ही 400 पुराने पेड़ों को दूसरी जगह लगाया जारहा है। इनमें कई जामुन और नीम के पेड़ है जो 100 साल पुराने है। पता नही कितने बचेंगे। 2001 से 2020 के बीच हमने 20 लाख हैक्टेयर पेड़ों की छत गवाँ दी है। इंसानी क्रूरता और तृष्णा की कोई सीमा नही।
पर्यावरण से छेड़छाड़ की सबसे बड़ी कीमत सुन्दरलाल बहुगुणा के प्रदेश उत्तराखंड में चुकानी पड़ी है जहाँ प्रदेश 2013 में केदारनाथ में आई भयंकर बाढ़ जिसने 5000 से अधिक लोग मारे गए थे, से उबरा ही नही था कि इस साल फ़रवरी में चमोली में ऋषिगंगा में आई भयंकर बाढ़ से भारी हानि हुई है। केदारनाथ की तबाही का एक कारण वहां पर्यटकों के लिए बने अवैध होटल, ढाबे, दुकानें भी हैं क्योंकि उन्होंने प्राकृतिक निकास रोक लिया था। जब पानी आया तो सब बहा कर ले गया। प्राकृतिक प्रवाह को रोकना तबाही को आमंत्रित करना है पर बार बार सबक़ नही सीखा गया। विशेषज्ञ कहतें हैं कि चमोली जैसी त्रासदी अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में विभिन्न परियोजनाओं और इंसान के बढ़ते क़दमों के कारण हुई है। हिमालय सबसे युवा पर्वत ऋंखला बताई जाती है, जिस कारण वह जल्द अस्थिर हो जाता है। बेख़बर और बेपरवाह ‘विकास’ जिसने स्थानीय ज्ञान और भावना की अनदेखी की है ,के कारण केदारनाथ और चमोली जैसे हादसे होतें हैं। विकास चाहिए पर नाज़ुक पर्यावरण का ध्यान रखा जाना चाहिए। विकास से रोजगार मिलता है, बिजली और सड़के दूरस्थ इलाक़ों तक पहुँचते हैं। पर्यटन विकास होता है पर याद रखने की बात है कि केदारनाथ के हादसे का बड़ा कारण पर्यटन के नाम पर किए समझौतें हैं जिसने त्रासदी को आमंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। इंसान कितना लापरवाह हो गया है यह इस बात से पता चलता है कि नेपाल की एक टीम ने एवरेस्ट के बेस कैम्प से 2.2 टन कूड़ा करकट हटाया है। शिखर पर अभी और है। पर्यावरण स्वयंसेवक दावा स्टीवन शेरपा जो 2008 से इस महापर्वत से गंदगी उठाते आ रहा है का कहना है, “ पर्वत हमारा आध्यात्मिक घर है और इसे बचाना हमारा अधिकार और ज़िम्मेवारी है’। ऐसी भावना पहाड़ी लोगों में हैं पर मैदानी इसे समझते नही।
यह बहुत पुरानी बहस है कि विकास या पर्यावरण? यह बहस आज तक चल रही है क्योंकि विकास के कारण ग्लोबल वार्मिंग से पर्यावरण में बहुत असंतुलन पैदा हो गया है। आस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देश लगातार एक तरफ़ जंगल की आग तो दूसरी तरफ़ तूफ़ानों से जूझ रहें हैं। बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण तूफ़ान, सूखा, बाढ़, पिघलते ग्लेशियर, अत्याधिक वर्षा, जंगल की आग सामान्य हो गए हैं। समुद्र का स्तर धीरे धीरे बढ़ रहा है। हाल ही में अरब सागर में भयंकर टॉकटे चक्रवात आकर हटा है। 185 किलोमीटर की रफ़्तार से हवाओं ने भारी तबाही की है, असंख्य पेड़ उखाड़ दिए। यह अरब सागर में मानसून से पहला चौथा ऐसा समुद्री तूफ़ान है। पहले हम यही समझते थे कि चक्रवात और तूफ़ान बंगाल की खाड़ी में आतें हैं और देश का अरब सागर वाला पश्चिमी तट सुरक्षित है। अब इस तरफ़ बराबर ध्यान देना पड़ेगा। बंगाल की खाड़ी में फिर भयंकर ‘यास’ तूफ़ान आया है।
उत्तराखंड में बड़े छोटे 58 बाँध प्रस्तावित है जिनमें बनने वाली सुरंगों की लंबाई 1500 किलोमीटर बताई जाती है। यह 30 लाख आबादी को प्रभावित करेंगे। केदारनाथ के हादसे के बाद बैठाई गई कमेटी ने उत्तराखंड के 26 परियोजनाओं को ख़तरनाक बताया था जिनमें चमोली की परियोजना भी है जोऋषिगंगा में बह गई है। यह परियोजना ग्लेशियर के मुहाने पर बनाई गई थी और जब ग्लेशियर फटा तो इन दो परियोजना को इस तरह फाड़ कर साथ बहा ले गया जैसे गत्ते के बने डिब्बे हों। और अगर 1500 किलोमीटर की सुरंगें खोदी जानी है तो अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि पहाड़ों को कितना आघात पहुँचेगा। कई विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इतनी उच्चाई पर डैम बनाना समझदारी नही है लेकिन विकास की दौड़ में पहाड़ों को केवल डैम बनाने के लिए ही नही कुरेदा जाता। सड़क निर्माण, जो जरूरी भी है, से भी बहुत कुछ हिल रहा है क्योंकि पहाड़ों को खोदा जा रहा है और सैंकड़ों पेड़ काटे जा रहे है। मलबा उठा कर नदियों और नालों में डाला जा रहा है जिससे पानी का निकास प्रभावित हो रहा है। केदारनाथ,बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की चार धाम यात्रा के लिए 900 किलोमीटर की बड़ी सड़कें बनाई जा रही है। इससे श्रद्धालुओं को बहुत सुविधा हो जाएगी लेकिन पर्यावरण का भारी नुक़सान होगा।
ऐसा केवल उत्तराखंड में ही नही, हर पहाड़ी राज्यहिमाचल प्रदेश समेत, में हो रहा है। अगर हम अपनी परियोजनाएँ बनाते समय इनके प्रकृति पर दुष्प्रभाव की अनदेखी करते जाएँगे तो ऐसी तबाही होती जाएगी। ऐसी ही स्थिति के प्रति सावधान करने में सुन्दरलाल बहुगुणा जी और उनके साथियों ने ज़िन्दगी लगा दी थी। अनियंत्रित विकास से भूस्खलन, हिमस्खलन, बाढ़, बादल फटने की स्थिति बन रही है। अगर नाज़ुक क्षेत्र में अंधाधुँध निर्माण किया जाएगा तो एक दिन पछताना पड़ेगा। बार बार पर्वत अपनी नाराज़गी गर्जतें हैं, पर सरकारें इस दहाड़ को सुनने को तैयार नही। जो हाल पर्वतों का है वही दुर्गति हमने नदियों की कर दी है। हर बड़ी नदी जो शहरके पास से गुज़रती है प्रदूषित है। राजीव गांधी के समय से ही हर सरकार गंगा के निर्मल और अविरल प्रवाह की क़समें खाती आरही हैं और अब हम ऐसी स्थिति पर पहुँच गए है कि गंगा में खुलेआम शव बहाए जा रहें हैं। प्राचीन भारतीय धर्म शास्त्रों के विद्वान देवदत्त पटनायक ने बताया है कि हिन्दू पुराण शास्त्रों में पेड़- पौधों की महत्व पूर्ण भूमिका है और उन्हे पूजनीय माना जाता है। बहुगुणाजी इस परम्परा के सबसे बड़े उपासक थे। वह और दूसरे पर्यावरणविद जानते थे कि हिमालय की देश को कितनी आवश्यकता है और यह पेड-पौधे,नदी-नाले उसके संरक्षक हैं इसीलिए बड़े बाँध के वह विरोधी हैं। टिहरी डैम के विरोध में बहुगुणाजी ने पहले 45 दिन और फिर 74 दिन का उपवास रखा था। उनके साथी अनिल जोशी कहतें हैं, “अगर हम समझते हैं कि अंधाधुँध दोहन से हम अपनी अर्थ व्यवस्था को किसी भी उंच्चाई तक ले जा सकतें हैं तो हम नीचे से अपनी ज़मीन को खिसका रहें है…”।
बहुगुणा दम्पति अक्तूबर 2010 को जालन्धर मे कन्या महाविद्यालय द्वारा आयोजित पर्यावरण पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए आए थे। बाक़ी महमानों की तरह उन्हे भी होटल में ठहराया गया। अगले दिन सुबह जब उन्होंने चाय मँगवाई तो साथ दस्तखत के लिए बिल भी आ गया। बिल को देख कर बहुगुणा जी परेशान हो गए और झट आयोजकों को फोन कर दिया कि ‘ मैं ऐसी महँगी जगह नही ठहर सकता’। उन्हे बताया गया कि कांफरेंस का आयोजन सरकार ने किया है और वह ही ख़र्चा कर रही है पर बहुगुणाजी मानने को तैयार नही थे। इतने नाराज़ हो गए कि सामान बाँध कर बाहर आ गए। आख़िर में किसी के घर पर उनके ठहरने का इंतेजाम किया गया, तब जा कर वह शांत हुए। आज ऐसी सादगी, ऐसी ईमानदारी, ऐसी निस्वार्थता कहाँ है? उनके जीवन की मिसाल असंख्य लोगों को पर्यावरण संरक्षण के मार्ग पर चला गई। पहाड़ों में उनका यह नारा गूँजता रहेगा ‘ क्या है जंगल की उपकार, मिट्टी पानी और बयार। मिट्टी पानी और बयार, हैं जंगल के आधार’। नारा भी उनके जैसा सीधा,सरल और सहज।
इस अंतिम गांधीवादी को मेरी सम्मान पूर्ण श्रद्धांजलि।