ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री हैरल्ड विलसन ने एक बार कहा था कि ‘राजनीति में एक सप्ताह बहुत लम्बा समय होता है’। उनका अभिप्राय था कि राजनीति में बहुत जल्द परिस्थिति बदल सकती है। यह बात पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह को अच्छी तरह समझ आ रही होगी। कुछ सप्ताह पहले तक किस को पता था कि उनके ख़िलाफ़ इतनी ज़बरदस्त बग़ावत हो जाएगी और उनकी ही कांग्रेस पार्टी के कुछ सांसद, मंत्री और विधायक अपने मुख्यमंत्री का ही विरोध शुरू कर देंगें? प्रकाश सिंह बादल के सेहत, आयु और राजनीतिक धक्कों के कारण पीछे हटने के बाद अमरेन्द्र सिंह पंजाब के सबसे बड़े नेता है। 2017 के चुनाव में उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने बड़ी जीत दर्ज की थी लेकिन इस बार लगातार उनका क़द छोटा करने का प्रयास किया जा रहा है और यह काम उनका विपक्ष कम,उनकी पार्टी के अपने लोग अधिक कर रहें हैं। मुलाहिज़ा फ़रमाएँ…
अमरेन्द्र सिंह के ख़िलाफ़ पहला पत्थर नवजोत सिंह सिद्धू ने उछाला था। उन्होंने अपने ही सीएम को ‘नाकाबिल’ कह दिया और आरोप लगाया कि अमरेन्द्र सिंह बादल परिवार के साथ ‘फ्रैंडली मैच’ खेल रहें हैं। एक और कांग्रेसी नेता जिसकी सिद्धू की ही तरह अमरेन्द्र सिंह की कुर्सी पर नजर है, राज्यसभा सदस्य प्रताप सिंह बाजवा, का कहना है कि अगर ‘ पार्टी को बचाना है तो अमरेन्द्र सिंह और सुनील जाखड़ को हटाना होगा’। उन्होंने तो मुख्यमंत्री को अल्टीमेटम दे दिया है कि वह 45 दिन में हालात सुधार लें नही तो ‘वे भी आजाद हैं, हम भी आजाद हैं’। वरिष्ठ मंत्री सुखजिन्दर सिंह रंधावा का कहना है, ‘ हमारी लड़ाई बेअदबी मामले के दोषियों को सज़ा दिलवाना है। पता नही कौन इस मामले को दबाना चाहता है’। इशारा किधर है सब जानतें हैं। एक और सांसद रवनीत सिंह बिट्टू का बेअदबी के मामले के बारे कहना है, ‘ कैप्टन साहिब अब कुछ कर लो नही तो पीछे रह जाओगे’। विधायक और परगट सिंह की खुली शिकायत है कि चार साल से सरकार माफ़िया पर शिकंजानही कस सकी। एक तल्ख़ बहस के बाद प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ और मंत्री सुखजिन्दर सिंह रंधावा इस्तीफ़े की पेशकश कर चुकें हैं। अमरेन्द्र सिंह के समर्थक भी इकटठे हुए है पर वह उतने मुखर और दबंग नही जितने उनके विरोधी हैं। आम तौर पर शांत रहने वाले अमरेन्द्र सिंह भी परेशान लगतें हैं जो इस बात से पता चलता है कि उन्होंने अपनी ही पार्टी के नेता सिद्धू को पटियाला से अपने ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने की चुनौती दे डाली है। नवजोत सिंह सिद्धू अविश्वसनीय और अवसरवादी अवश्य है पर लोकप्रिय है और उन पर भ्रष्टाचार का एक भी छींटा नही। और बेअदबी का मुद्दा उठा कर उन्होंने कैप्टन की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। अब यह देखना है कि घोर अनुशासनहीनता के लिए उन्हे पुरस्कृत किया जाता है या सज़ा मिलती है?
अगले साल फ़रवरी में पंजाब विधानसभा चुनाव है और यह छिड़ी लम्बी जंग कांग्रेस और अमरेन्द्र सिंह को कमज़ोर बना रही है। और यह उस समय हो रहा है जब सरकार का सारा ध्यान कोविड से लड़ने पर लगना चाहिए था पर सारा जोर कुर्सी को सम्भालने या कुर्सी से उतारने पर लग रहा है। अमरेन्द्र सिंह के कष्ट के कई अतिरिक्त कारण भी हैं। 2017 के चुनाव के समय अमरेन्द्र सिंह ने घोषणा की थी कि यह उनका अंतिम चुनाव है लेकिन अब 79 की आयु में उनका कहना है कि वह एक पारी और खेलने को तैयार हैं। इस कारण सिद्धू, बाजवा, रंधावा, बिट्टू जैसे महत्वकांक्षी नेता बेताब हो रहें हैं। यह अलग बात है कि वह सब ख़ुद एक नाम पर सहमत नही होंगे पर इस वक़्त तो अमरेन्द्र सिंह को कमजोर करने में व्यस्त हैं। पंजाब सरकार की कारगुज़ारी भी विशेष नही रही। जो वायदे किए थे वह पूरे नही हुए। भ्रष्टाचार पर कोई लगाम नही। रेत,शराब,ड्रग, ट्रांसपोर्ट माफिए पर नियंत्रण नही किया गया। लेकिन अमरेन्द्र सिंह की असली मुसीबत 2015 का श्री गुरू ग्रंथसाहिब की बेअदबी और फ़ायरिंग का मामला है जिसके दोषियों को चार साल में भी सज़ा दिलवाने में उनकी असफलता ने उनके विरोध में तूफ़ान खड़ा कर दिया है। उनके अपने सहयोगी चेतावनी दे रहे हैं कि इस मामले में अगर उन्होंने न्याय नही करवाया तो कांग्रेस का हाल भी अकाली दल जैसा हो जाएगा। इस मामले में अमरेन्द्र सिंह अलग थलग पड़ गए हैं। यह प्रभाव किउनका अकाली नेतृत्व के प्रति नरम रवैया है, चुनावी वर्ष में आत्मघाती रहेगा।
अमरेन्द्र सिंह की एक और बड़ी समस्या है उनका हाईकमान है। अब डैमेज कंट्रोल के लिए तीन मैम्बर कमेटी बनाई गई है जो विधायकों से दिल्ली में बात कर रही है लेकिन कई सप्ताह पंजाब में पार्टी का जलूस निकलता रहा और कथित हाईकमान तमाशा देखता रहा। घोर अनुशासनहीनता को बर्दाश्त किया गया। अब कहा गया है कि कोई लक्ष्मण रेखा पार न करे पर पहले तो विरोधी होलसेल लक्ष्मण रेखा पार कर चुकें हैं। न सोनिया गांधी, न राहुल गांधी और न ही प्रियंका गांधी ने उन्हे रोकने के लिए उँगली तक ही उठाई। कांग्रेस के हाईकमान का बहादुर शाह ज़फ़र रवैया चकित करने वाला है। यह नही कि काबुल तक इनकी सल्तनत है इसलिए एकाध राज्य चले भी जाए तो बड़ी समस्या नही। जो थोड़ा बहुत बचा है उसे भी सम्भालने की तत्परता नहीऔर मुकाबला भाजपा की कुशल राजनीतिक मशीन से है! इसी तरह इन्होंने असम खोया था। हिमंता बिस्वा सरमा ने बताया है कि जब वह असम की समस्या पर राहुल गांधी से विचार करने के लिए गए थे तो सारी मुलाक़ात में उनसे बात करने की जगह राहुल अपने कुत्ते पिडी से खेलते रहे थे। उपेक्षित सरमा कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए और आज न केवल असम के मुख्यमंत्री हैं बल्कि सारे उत्तर पूर्व में उनके कारण भाजपा के पैर जम गए हैं।
अब हम देख रहें हैं कि कांग्रेस में एक और बड़े प्रादेशिक नेता का क़द व्यवस्थित ढंग से छोटा किया जा रहा है। सिद्धू की राहुल और प्रियंका गांधी के साथ नज़दीकी से असुखद चर्चा शुरू हो गई है। लेकिन यहाँ याद रखने की बात है कि कैप्टन कमज़ोर नेता नही जिन्हें आप दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक सकते हो। वह हथियार नही फेंकेंगे और उनकी कोशिश होगी कि विरोधियों को ही बाहर फेंक दे। एक कट्टर राष्ट्रवादी की उनकी छवि काम आएगी। दूसरा, बंगाल और केरल की हार के बाद हाईकमान भी बहुत मज़बूत स्थिति में नही है। उन्हे यह भी अहसास होगा कि कैप्टन अगर नाराज़ हो गए तो पंजाब भी हाथ से फिसल सकता है। एक और बात जो कैप्टन के पक्ष में जाती है कि पंजाब में कोई भी और पार्टी इस वक़्त तंदरुस्त नजर नही आती।
शिरोमणि अकाली दल जिसने कई दशक शासन किया है अब अपने पुराने प्रभाव की कमज़ोर छाया रह गया है। 2017 के चुनाव में वह आप के बाद तीसरे नम्बर पर रहे थे और अभी तक अपना खोया आधार हासिल नही कर सके। किसान और पंथक वोट अभी भी उनसे दूर हैं। प्रकाश सिंह बादल के पीछे हटने से भी नुक़सान हुआ है क्योंकि सुखबीर बादल की वह इज़्ज़त और लोकप्रियता नही है। लोग बेअदबी का मामला भूलने या माफ़ करने के लिए तैयार नही। कई बड़े नेता पार्टी छोड़ चुकें हैं। भाजपा से अलग होने के बाद पार्टी को हिन्दू चेहरे नही मिल रहे। पर अगर अकाली दल को हिन्दू चेहरे नही मिल रहे तो भाजपा के लिए सिख चेहरे ढूँढना मुश्किल होगा। भाजपा तो 23 सीटों पर ही लड़ती रही है उनके लिए सभी 117 सीटों पर उम्मीदवार ढूँढना ही मुश्किल होगा। किसान आन्दोलन जिसका सबसे अधिक प्रभाव पंजाब पर रहा है, के कारण देहात में पार्टी अछूत बन गई है। जिस तरह केन्द्र सरकार कोविड से निपटी है उससे शहरी वर्ग भी भाजपा से नाराज़ है।
पंजाब में 32 प्रतिशत दलित को देखते हुए कुछ पार्टियों की नज़रें इस वोट बैंक पर लगी है। भाजपा ने घोषणा की है कि सत्ता में आने पर वह दलित को मुख्यमंत्री बनाऐंगे। सुखबीर बादल की घोषणा है कि वह दलित को उपमुख्यमंत्री बनाऐंगे ( मुख्यमंत्री क्यों नही, सुखबीरजी?)। पर याद रखना चाहिए कि दलित वोट एकजुट हो कर नही भुगतता और सब पार्टियों में बँट जाता है। कांग्रेस और अकाली दल दोनों को आप से चुनौती मिल रही है जो धीरे धीरे क़दम बढ़ा रही है। पिछले चुनाव में वह दूसरे नम्बर पर रहे थे और मुख्य विपक्षी दल बन गए थे। किसान आन्दोलन के द्वारा केजरीवाल पंजाब में घुसने की कोशिश कर रहें हैं पर यहां सही लीडर खड़ा करने में उनकी दिलचस्पी नही लगती। शायद वह बराबर पावर सैंटर खड़ा नही करना चाहते। आप के पक्ष में जाता है कि दिल्ली में उन्होंने अच्छी सरकार दी है और ख़ुद केजरीवाल की छवि अब विश्वसनीय बन रही हैलेकिन चुनाव पंजाब में होना है और आप चार साल में वह चेहरा नही दे सकी जिसे लोग ख़ुशी से वोट दे सकें।
पंजाब में विकल्पहीनता की स्थिति बन रही है। चारों बड़ी पार्टियों में से किसी को भी लोग बहुत पसन्द नही करते लेकिन इस वक़्त तो सुर्ख़ियो में कांग्रेस में जूतमपैजार है। जिस पार्टी के लिए सब कुछ लगभग ठीक चल रहा था उसे मैदान में उतरने से पहले अपनो ने ही टाँग मार दी और रेफ़री हाईकमान ने मुँह फेर लिया था। अब ज़रूर रैफरी सीटी बजा रहा है पर पंजाब में कांग्रेस का हालत को देखते हुए कहा जा सकता है,
बेवफ़ा की महफ़िल में दिल की बात न कहिए
ख़ैरियत इसी में है कि ख़ुद को बेवफ़ा कहिए
राहजन को भी यहाँ रहबरों ने लूटा है
किस को राहजन किस को रहबर कहिए!