कांग्रेस के जितिन प्रसाद जो राहुल गांधी के मित्रों में भी गिने जातें हैं, भाजपा में शामिल हो गए हैं। राहुल गांधी के लिए यह व्यक्तिगत आघात है कि वह अपने मित्रों को भी सम्भाल नहीं सके। ज्योतिरादित्य सिंधिया पहले पार्टी छोड़ चुकें हैं और सचिन पायलेट और मिलिंद देवड़ा बेचैन हैं। पार्टी को कमजोर करने में पार्टी के कथित हाईकमान ने भी कसर नही छोड़ी। आख़िर दो साल से पार्टी अध्यक्ष का चुनावलटक रहा है। राहुल गांधी अध्यक्ष के सभी अधिकार सम्भाले हुए हैं पर ज़िम्मेवारी उनकी नही है। वह सही मुद्दे उठातें है पर ट्विटर के बल पर राजनीति नही हो सकती। यहां तो ममता बैनर्जी स्टाईल स्ट्रीट-पॉलिटिक्स सफल रहता है। लेकिन भाजपा को भी जितिन प्रसाद को शामिल कर क्या मिला? बताया जा रहा है कि ब्राह्मण जो उत्तर प्रदेश की जनसंख्या के 13 प्रतिशत हैं, योगी सरकार के कथित ठाकुरवाद से नाराज़ हैं इसलिए एक ‘क़द्दावर ब्राह्मण चेहरा’ पार्टी में शामिल किया गया है। पर क्या जितिन प्रसाद एक क़द्दावर चेहरा हैं भी? जो आदमी लगातार तीन चुनाव हार चुका है वह क़द्दावर नेता है या चला हुआ कारतूस? वैसे भी मुकुल रॉय की तृणमूल कांग्रेस में वापिसी बताती है कि फ़सली बटेर पर अधिक विश्वास नही किया जा सकता।
उत्तर प्रदेश में भाजपा का मुक़ाबला समाजवादी पार्टी से है जिसका पंचायत चुनाव में प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा है। मथुरा, वाराणसी, अयोध्या, गोरखपुर में भाजपा पीछे रही। विपक्ष में मायावती की बसपा दूसरे नम्बर पर है और कांग्रेस दूर कहीं तीसरे नम्बर पर है। उत्तर प्रदेश के चुनाव को भाजपा बहुत गम्भीरता से ले रही है। कोविड की दूसरी लहर से और विशेष तौर पर गंगा में बहती लाशों से छवि को भारी चोट पहुँची है। लोग कष्ट बर्दाश्त कर लेते है पर प्रियजन को मौत को नही भूलते। इसलिए अभी से छवि की मुरम्मत की कोशिश हो रही है। भाजपा नेतृत्व की नज़रें 2022 के विधानसभा चुनाव पर ही नही, 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी लगी हैं। 2019 के चुनाव में भाजपा ने यहाँ से 62 सीटें जीतीं थीं जो केन्द्र में सरकार बनाने में सहायक रहीं। भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन अनिवार्य है। अगर यहाँ हानि हो गई तो इसकी भरपाई किसी भी और राज्य से नही हो सकती। पश्चिम बंगाल तो अनिश्चित बन ही चुका है। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम का प्रभाव मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और बिहार के हिन्दी भाषी राज्यों पर पड़ेगा। किसान आन्दोलन, निम्न स्वास्थ्य सेवांऐं जो समय पर कोरोना से निबट नही सकीं, प्रवासी संकट, विकास दूबे का एंकाउंटर, हाथरस बलात्कार और हत्या जैसे मामले परेशान करते रहेंगे। उपर से यह भी ख़बर है कि पार्टी हाईकमान और योगी आदित्यनाथ के बीच बहुत सद्भावना नही है। प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनकी मुलाक़ात आसामान्य 80 मिनट चली थी। यह भी नोट किया गया है कि योगी के जन्मदिवस पर इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने बधाई का ट्वीट नही किया।
महामारी तेज़ी से कम हो रही है पर उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष स्वतन्त्र देव सिंह ख़ुद स्वीकार कर चुकें हैं कि उनकी पार्टी को आभास नही था कि महामारी गाँवों में भी फैल जाएगी। केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगवार मुख्यमंत्री से शिकायत कर चुकें हैं कि अस्पतालों में स्थिति अच्छी नही है। पंचायत चुनाव के दौरान कोरोना से अध्यापकों की मौतों से भी प्रदेश में बेचैनी है। इस सब के बीच योगी आदित्यनाथ और उनके कामकाज करने का ढंग है,जो विवादित है। मंत्री और विधायक शिकायत करते हैं कि मुख्यमंत्री किसी की बात नही सुनते। यह भी बडी शिकायत है कि वह जाति वाद की राजनीति करतें है। पिछले चुनाव में भाजपा ने जातिवाद का बैरियर तोड़ दिया था। यादव वोट को छोड़ कर बाकी ओबीसी को साथ लेजाने में सफल रहे थे लेकिन अब शिकायत है कि ‘महाराज’ ने ठाकुर राज लाद दिया है। दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ के पक्ष में जाता है कि वह मेहनती और कार्यशील हैं। उनके जैसी सक्रियता तो शायद केवल अरविंद केजरीवाल ही दिखातें हैं। जहाँ उनके अधिकतर मंत्री और विधायकघरों में दुबके बैठे रहे वहां मुख्यमंत्री मास्क लगा और दस्ताने पहन कर प्रदेश भर में घूमते रहे। कोविड के दौरान तो अखिलेश यादव और मायावती भी घर से नही निकले। अखिलेश ने तो यह कह कर कि ‘मैं भाजपा का टीका नही लगवाऊँगा’ अपरिपक्वता का परिचय दिया है। अब तो उन्होंने टीका लगवा लिया है पर सवाल उठता है कि ऐसा अज्ञानीव्यक्ति प्रदेश को सम्भाल सकता है? योगी आदित्यनाथ को यह भी श्रेय जाता है कि पहले लॉकडाउन के समय उन्होंने अपने लोगों और छात्रों को घर वापिस लाने में बहुत सक्रियता दिखाई थी।
योगी आदित्यनाथ के बारे यह शिकायत अवश्य है कि वह स्वभाव से अक्खड़ है आलोचना को आसानी से बर्दाश्त नही करते। सडीशन (राजद्रोह) के क़ानून का बेवजह इस्तेमाल किया गया। रोमियो सक्वाड जैसे अनावश्यक संगठन खड़े किए गए। यह भी शिकायत है कि वह ख़ुद को प्रोजैक्ट करने पर बहुत ख़र्च कर रहें हैं। संघ के साथ तनाव इसीलिए भी है कि संघ व्यक्ति पूजा में विश्वास नही रखता जबकि योगी को आत्म-प्रचारका बहुत शौक है। वह ख़ुद को ऐसे युवा हिन्दू आइकॉन प्रस्तुत कर रहे है जिसका विकासात्मक एजेंडा है। वह यह भी प्रभाव दे रहें हैं कि उनकी महत्वकांक्षा लखनऊ तक ही सीमित नही,वह ख़ुद को मोदी का उत्तराधिकारी भी समझते हैं। योगी आदित्यनाथ की ऐसी आकांक्षा है या नही, यह वह ही जानते है पर अंग्रेज़ी पत्रिकाओं में उनके बड़े बड़े विज्ञापन प्रकाशित हो रहें हैजो चर्चा को बल देते हैं। इन विज्ञापनों में केवल उनके ही चित्र होते हैं,नरेन्द्र मोदी के भी नही। प्रदेश में इंवैस्टमैंट समिट हो चुकी है, हवाई अड्डे, हाईवे और मैडिकल कालेज बन रहें हैं। योगी आदित्यनाथ की देश में जो जगह बनी है इसके पीछे भाजपा के नेतृत्व का आशिर्वाद भी रहाहै। चुनावों में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के बाद योगी आदित्यनाथ स्टार प्रचारक थे। दूर केरल तक उन्हे भिजवाया गया। लेकिन अब भाजपा की चिन्ता है कि भगवा वस्त्रधारी योगीको कैसे आज्ञाकारी बनाया जाए? सारे मामले पर गम्भीर पुनर्विचार हो रहा है। वह सामान्य मुख्यमंत्री नही उन्हे ज़बरदस्ती पद से हटाया नही जा सकता जैसे उतराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के साथ किया गया था। पहले भी एक और हिन्दू आईकॉन कल्याण सिंह को हटाने के बाद पार्टी बहुत वर्ष भटकती रही। भाजपा जानती है कि इस समय उन्हे हटाने का नुक़सान होगा इसलिए असहज संघर्ष विराम कर लिया गया है।
भाजपा के लिए किसान आन्दोलन और कोविड बहुत बडी समस्या है। किसान आन्दोलन का असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर पड़ेगा। और अगर कोरोना की तीसरी लहर शुरू हो गई, जैसी चेतावनी विशेषज्ञ दे रहें हैं, तो समस्या खड़ी हो जाएगी और दूसरी लहर का बुरा अनुभव फिर जीवित हो उठेगा। पर अभी आठ महीने चुनाव में पड़े हैं। बहुत कुछ टीकाकरण की रफ़्तार पर निर्भर करता है। अगर वर्षांत तक बडी संख्या को टीका लग गया तो बहुत बचाव हो जाएगा। मुस्लिम मतदाता जो 19 प्रतिशत है, वह विरोध करेंगे। इस वक़्त वह बिखरें हुए हैं पर पश्चिम बंगाल ने बता दिया कि मुसलमान एकजुट वोट कर सकतें हैं। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी जैसे कुछ मैदान में उतर सकतें हैं पर बंगाल का अनुभव है कि इन्हें घास नही डाली गई।अयोध्या में ज़मीन की ख़रीद का विवाद परेशान कर सकता है क्योंकि मामला आस्था से जुड़ा है और अभी तक इसका अकाट्य स्पष्टीकरण सामने नही आया।
उत्तर प्रदेश की असली समस्या और है। यह प्रदेश बहुत बड़ा है और बहुत लोग हैं। डेटा वैज्ञानिक एरॉन स्टरैंडबर्ग के अनुसार अफ़्रीका, योरूप और दक्षिण अमेरिका के किसी भी देश में इतनी जनसंख्या नही जितनी यूपी की है। इसका क्षेत्रफल ब्रिटेन के बराबर है पर 20-21 करोड़ की जनसंख्या तीन गुना है। यह जनसंख्या पाकिस्तान और बांग्लादेश से अधिक है। अगर उत्तर प्रदेश एक देश होता तो सबसे ग़रीब देशों में गिना जाता। दक्षिण भारत से तो कई बार आवाज़ उठ चुकी है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य बोझ हैं। एक पूर्व मुख्यमंत्री ने शिकायत की थी इतने जिले हैं कि सभी डीएम के नामयाद नही रहते। प्रदेश अत्यन्त पिछड़ा है। यह कितना पिछड़ा है यह इस बात से पता चलता है कि जहाँ तमिलनाडु में 253 के पीछे एक डाक्टर है, वहां उत्तर प्रदेश में 3700 लोगों के पीछे एक डाक्टर है। और यूपी में डाक्टर भी अधिकतर शहरों में है गाँव भगवान भरोसे हैं। प्रदेश इतना बड़ा है कि एक मुख्यमंत्री चाहे वह योगी आदित्यनाथ हों या कोई और,इसे अच्छी तरह सम्भाल नही सकता चाहे कितनी भी मेहनत कर ले। इसलिए प्रदेश का विभाजन होना चाहिए ताकि ऐसे छोटे राज्य बन जाऐं जो शासनीय हो। प्रदेश के पिछड़ेपन ने समस्या और गहरी कर दी है। 2011 में मायावती की सरकार के समय विधानसभा ने प्रदेश के चार हिस्से,पूर्वींचल, अवध प्रदेश,बुंदेलखंड और पश्चिम प्रदेश,करने का प्रस्ताव पारित किया था लेकिन बात आगे नही बढ़ी। इस प्रस्ताव या ऐसे किसी और प्रस्ताव पर फिर से विचार करने की ज़रूरत है ताकि इतने विशाल प्रदेश की जगह दो, तीन या चार प्रबन्धनीय राज्य बन सके। अगर जम्मू कश्मीर का पीड़ाहीन विभाजन हो सकता है तो उत्तर प्रदेश का क्यों नही? हरियाणा, उतराखंड, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना आदि छोटे राज्यों के गठन का परीक्षण अच्छा रहा है। ऐसा ही परीक्षण उत्तर प्रदेश में करना चाहिए यह याद रखते हुए कि उत्तर प्रदेश का विशाल आकार और जनसंख्या उसे तरक़्क़ी नही करने देते जो देश की तरक़्क़ी में बाधा है। प्रगति के हर सूचकांक में उत्तर प्रदेश और बिहार अंतिम रहतें हैं। यह स्थिति कब तक बर्दाश्त की जाएगी?