यह एक जानबूझकर सोची समझी उकसाहट थी। एक साल पहले पूर्वी लद्दाख में गश्त कर रही 16 बिहार रैजीमैंट की टुकड़ी जिसका नेतृत्व कर्नल संतोष बाबू कर रहे थे, पर चीनी सैनिकों ने हिंसक हमला कर दिया था। कर्नल बाबू और हमारे 19 सैनिक शहीद हुए थे। हमारे जवानों ने ज़बरदस्त मुक़ाबला किया और कई महीने चीन ने नही बताया कि उसके कितने हताहत हुए थे। बाद में चार मारे गए स्वीकार किए जबकि अमेरिकी और रूसी ख़ुफ़िया सूत्र 35-45 हताहत बता रहें हैं। चीन के साथ टकराव चलता रहता है पर चार दशक के बाद पहली बार था कि चीनी सैनिक हमारा ख़ून बहाने की तैयारी कर आए थे। भारत और चीन के रिश्तों में गलवान एक निर्णायक मोड़ रहेगा क्योंकि ख़ूनी झड़प करवा चीन और उसके अघोषित सम्राट शी जिनपिंग हमें और दुनिया को संदेश दे रहे थे कि एशिया की म्यान में केवल एक तलवार रह सकती है, और वह भारत नही है। 2013 में शी जिनपिंग के चीन के राष्ट्रपति बनने के बाद दोनों देशों के बीच टकराव बढ़ा है। यह भी संदेश है कि अहमदाबाद-वुहान-मामल्लपुरम जैसी शिखर वार्ता चीन की दिशा में परिवर्तन नही कर सकते।
चीन की पूर्वी लद्दाख में कार्रवाई से हम ‘सरप्राइज़’ रह गए पर ऐसा बार बार क्यों हो रहा है? 1962 से लेकर 1999 में कारगिल से अब पूर्वी लद्दाख में घुसपैंठ के बारे हमारे पास पूर्व ख़ुफ़िया जानकारी क्यों नही थी? नार्दरन आर्मी के पूर्व कमांडर लै.जैनरल बी एस जसवाल कहतें हैं, “चीन के प्राचीन दर्शन शास्त्र में धूर्तता और धोखे की प्रमुख जगह है। चीन के वर्तमान रणनीतिकार और योजनाकार इसी नीति पर चल रहें हैं”। कारगिल के समय भी हम सोए पाए गए और पाकिस्तान ने कई किलोमीटर पहाड़ियों पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हे वहां खदेड़ने की कीमत 500 जवानों ने शहीदी दे कर चुकाई। 2020 के अप्रैल मई में चीन अपनी सेना की कई डिवीज़न सीमा पर ले आया था पर हम सावधान नही हुए। यह माना नही जा सकता कि हमारे विशेषज्ञों ने चीन का इतिहास और दर्शन नही पढ़ा जिसमें लक्ष्य प्राप्ति पर ही जोर दिया गया है, माध्यम पर नही। वह गांधीवादी नही है फिर उन्हे भाँपने में हम बार बार धोखा क्यों खा जाते हैं?
थल सेना प्रमुख जनरल नरवणे का कहना है, “किसी क़िस्म का अतिक्रमण नही हुआ” पर जैसे रक्षा विशेषज्ञ उदय भास्कर ने भी सवाल किया है, “ अगर वास्तव में अतिक्रमण नही हुआ तो हम इस बात पर क्यों अड़ रहें हैं कि गलवान से पहले की स्थिति बहाल की जाए?” हक़ीक़त को ढकने का प्रयास नही होना चाहिए क्योंकि लोग समझदार हैं और पूर्ण सहयोग देंगे। चीन को सबक़ सिखाने के लिए हमारी सेना ने बेमिसाल बहादुरी दिखाते हुए पैंगांग झील के पास कैलाश रेंज की पहाड़ियों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इस बार चीन ‘सरप्राइज़’ हुआ। चीन ने समझौते और सेनाओं की वापिसी की बात शुरू कर दी और भारत को इन ऊँचाई से हटने के लिए मना लियालेकिन चीन ने अपना वायदा पूरा नही किया और हॉट स्प्रिंग, गोगरा और डेपसांग आदि इलाक़ों से अपने सैनिक वापिस नही बुलाए। और अब हमे यह संदेश भेजा जा रहा है कि और कोई वापिसी नही होगी, जहाँ हम हैं वहां ही हमारी सीमा है। इस वक़्त दोनों की 50000-60000 सेनाऐं वहां तैनात है और नियंत्रित तनाव की स्थिति है। विदेश मंत्री जयशंकर का कहना है कि दोनों देशों के रिश्ते चौराहे पर हैं। अर्थात वह किसी भी दिशा में जा सकतें हैं पर चीन कोई संकेत नही दे रहा कि वह बंदा बन कर सही दिशा में चलने को तैयार है। उसे ज़रूरत भी नही।चीन के आँकड़ो के अनुसार 2021 की पहली तिमाही में दोनों देशों के बीच व्यापार में 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जिस वक़्त सेनाएँ आमने सामने हैं चीन हमारा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। 2020 में चीन का हमारे स्मार्ट फ़ोन के क्षेत्र में हिस्सा 71 प्रतिशत से बढ़ कर 75 प्रतिशत हो गया था जबकि यह बड़ा संवेदनशील क्षेत्र है। 2019 में अमेरिका नम्बर 1 ट्रेड पार्टनर था, अब चीन है। अगर टकराव के बावजूद व्यापारिक रिश्ते सामान्य है तो चीन को बदलने की क्या ज़रूरत है ?
चीन ने गलवान में ख़ूनी कार्रवाई क्यों की ? क्या चीन ने समझ लिया है कि कुछ देर शोर मचाने के बाद भारत हालात से समझौता कर लेगा? बडा कारण और है। चीन हमें और दुनिया को बताना चाहता था कि भारत उसके बराबर नही है। पश्चिम में वह लोग जो ‘चीन के शांतमय उत्थान’ की मृगतृष्णा देख रहे थे उनकी भी आँखें खुल गईं हैं। भारत को चुनौती दे कर चीन बाक़ी पड़ोसी देशों को अपनी ताकत का अहसास करवा रहा है। हमारा दुर्भाग्य है कि चीन के साथ हमारा आर्थिक, सैनिक और तकनीकी असंतुलन है इसका भी चीन प्रदर्शन करना चाहता था। चीन की अर्थ व्यवस्था 140 खरब डालर है जबकि हमारी 30 खरब डालर है। इसी फ़ासले के कारण चीन इतना उछल रहा है। चीन की बराबरी करनी है तो हमें लगातार 8 प्रतिशत की विकास दर हासिल करनी होगी। चीन में हमारे पूर्व राजदूत गौतम बाम्बावाले लिखतें हैं, “बीजिंग मानता है कि भारत को समझना पड़ेगा कि वह चीन के स्तर का नही है और एशिया के देशों के क्रम में भारत का दर्जा नीचा है, जबकि चीन एशिया का बड़ा दादा है”। कोविड ने भी चीन को आगे बढ़ने का मौक़ा दे दिया है क्योंकि बाक़ी देश उलझे हुए हैं और चीन ने महामारी को सम्भाल लिया है।
चीन यह भी समझता है कि भारत का लोकतन्त्र और बोलने- लिखने की आज़ादी चीन की तानाशाही के सामने एक चुनौती पेश करते है। अगर भारत अपनी लोकतान्त्रिक प्रणाली के साथ अपने लोगों का जीवन स्तर बेहतर करता गया तो न केवल दूसरे देश बल्कि चीन की अपना जनसंख्या भी प्रभावित होगी। इसीलिए उनके मीडिया का रवैया भी तिरस्कारपूर्ण है। सारा प्रयास यह दिखाने का है कि हम उनके बराबर नही और किस प्रकार उनका सिस्टम हमसे बेहतर है। इस समय टकराव खड़ा कर हमारा ध्यान आर्थिक प्रगति से हटा कर सीमा सम्भालने पर लगाया जा रहा है। चीन हमारी विदेश नीति से भी चिढ़ा हुआ है। वह विशेष तौर पर अमेरिका के साथ हमारी बढ़ती नज़दीकी और क्वाड का हमारा सक्रिय सदस्य बनना पचा नही पा रहा। हमारा नेतृत्व सही समझ गया है कि ताकत में जो फ़ासला है उसे कम करने, संतुलन क़ायम करने और उसकी आक्रामकता को नियंत्रण में करने के लिए हमेंअंतराष्ट्रीय गठबन्धन और मज़बूत करने है। केवल पश्चिम और जापान के साथ ही नही, पड़ोस में भी बहुत कुछ करना बाक़ी है क्योंकि अपनी आर्थिक ताकत से चीन हमारे पड़ोस, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि में घुसपैंठ कर रहा है। पाकिस्तान तो पहले ही उनके साथ नत्थी है। नरेन्द्र मोदी ने ‘इतिहास की हिचकिचाहट’ को एक तरफ रखते हुए अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के साथ क्वाड को मज़बूत किया है। जी-7 के शिखिर सम्मेलन में चीन की कड़ी आलोचना की गई है। मोदी ने ख़ुद को जी-7 का ‘स्वभाविक साथी’ बताया है। हमारे सामने विकल्प भी नही हैं। अकेले हम उपद्रवी चीन का मुक़ाबला नही कर सकते। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपनी विदेश नीति को चीन पर नियंत्रण करने पर केन्द्रित किया है। चार दशक अमरीकी सहयोग के कारण चीन सुपर पावर बन गया है पर अब अमेरिका समझने लगा है कि चीन की बढ़ती ताकत उसके हितों के लिए ख़तरा है इसलिए नीति परिवर्तन हो रहा है। नाटो ने भी चीन को ‘सुरक्षा खतरा’ क़रार दिया है। बाइडेन रूसी राष्ट्रपति पुटिन से मिल कर हटें हैं जिस पर सरकारी चीनी मीडिया की सही टिप्पणी है, ‘बाइडेन रूस के साथ तनाव कम करना चाहतें हैं ताकि वह चीन से निबटने पर ध्यान दे सकें’।
यह सब हमारे पक्ष में जाता है लेकिन समझना चाहिए कि जी-7 के देश चीन से बहुत दूर है। हमारी तरह उन्हे चीन से ज़मीनी खतरा नही है।भारत को निशाना बना कर चीन कहीं हमारी ताकत को भी स्वीकार कर रहा है, कि हम में उन्हे चुनौती देने की क्षमता है। इसीलिए यह टकराव लम्बा चलेगा। आगे चल कर और लद्दाख और गलवान हो सकते हैं। हमे अपनी क्षमता बढ़ानी है जो वर्तमान हालत में आसान नही होगा। यह भी जरूरी है कि चीन को लेकर राष्ट्रीय सहमति बनाई जाए और विपक्ष को विश्वास में लिया जाए। आज की स्थिति और 1962 की स्थिति में बहुत कुछ एक जैसा है। चीन ने तब भी जवाहर लाल नेहरू की प्रतिष्ठा कम करने की कोशिश की थी, ऐसा ही प्रयास नरेन्द्र मोदी के साथ किया जा रहा है। अंतर यह है कि यह 1962 वाला भारत नही जो हमने कैलाश रेंज की पहाड़ियों पर क़ब्ज़ा कर साबित कर दिया। चीन को भी संदेश मिल गया कि भविष्य में शरारतें अदंडित नही रहेगी, पर अहसास है कि यह 1962 वाला चीन भी नही है। उनकी ताकत और प्रभाव में असाधारण वृद्धि हुई है। इस फ़ासले को कम करना है क्योंकि चीन ताकत को इज़्ज़त देता है। अपने लम्बे इतिहास में पहली बार हमारी सीमा एक सुपर पावर के साथ लगती है जो आक्रामक है, धूर्त है और बेधड़क है। यह असुखद अनुभव बन रहा है। सीमा पर शान्ति बनाए रखने का पुराना तंत्र ध्वस्त हो चुका है। यह आशा नही रही कि भविष्य में सीमा विवाद पर मतभेदों कोभड़कने नही दिया जाएगा। अरुणाचल प्रदेश पर दबाव बढ़ सकता है। गलवान ने हमारी सामरिक आँखें खोल दी हैं कि रिश्ते न केवल प्रतिस्पर्धी हैं बल्कि हिंसक और वैरी भी बन सकते है।