5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद जिस तरह अभी तक जम्मू और कश्मीर की स्थिति को सम्भाला गया वह मोदी सरकार की ‘सकसैस सटोरी’, सफलता की कहानी है। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने अच्छा प्रशासन दिया है। हिंसा कम हुई है, पत्थरबाज़ी रूक गई है और कोविड को सम्भालने का प्रबन्ध अच्छा रहा है, जो कश्मीरी भी मानते है। फ़रवरी के बाद पाकिस्तान के साथ सीमा शान्त है। 23 महीनों के बाद जम्मू कश्मीर के नेताओं को वार्ता के लिए दिल्ली बुलाया गया है। बर्फ़ कुछ पिघली है पर अभी बहुत दूर जाना है। वास्तव में यह भी मालूम नही कि कहाँ तक जाना है, मंज़िल क्या है? यही सवाल पूछे जाने पर डा. कर्ण सिंह ने एक बार लोकप्रिय गाने की यह पंक्तियाँ दोहराई थीं,
अजीब दास्ताँ है यह, कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म !
जिन नेताओं को बुलाया गया उन्हे कई कई महीने घर में कैद रखा गया,‘गुपकार गैंग’ कह बदनाम किया गया।कश्मीरी नेता वार्ता के लिए क्यों मान गए जबकि कश्मीर अभी विभाजित है, चुनाव की कोई निश्चित तारीख़ नही है,और अनुच्छेद 370 को वापिस लेने का सवाल ही नही ? बड़ा कारण है कि प्रदेश में इस वक़्त राजनीतिक शून्य है और कश्मीरी नेताओं को घबराहट है कि भाजपा इसका फ़ायदा उठा सकती है। वहां ‘अपनी पार्टी’ या डिस्ट्रिकट डिवैलेपनैंट कॉसल जैसी किसी संस्था को खड़ा कर इन सब को अप्रासंगिक बना सकती है। ग़ुलाम नबी आजाद साहिब भी हैं। तीन घंटे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ बैठक कर कश्मीरी नेताओं की राजनीति में फिर जान पड़ गई है। अक्तूबर-नवम्बर 2018 में उन्होंने स्थानीय चुनावों का बहिष्कार कर दिया था और भाजपा और आजाद उम्मीदवारों ने स्थानीय सरकार पर क़ब्ज़ा कर लिया था। महबूबा मुफ़्ती चुनाव लड़ने के प्रश्न पर अब बदल रहीं है पर वह कह चुकीं हैं, “विधानसभा चुनाव में अगर जगह खुली छोड़ दी जाए तो विरोधी इसे भर लेंगे”। कश्मीरी नेताओं को यह भी कड़वा अहसास होगा कि उन्हे कई महीने जेल में रखा गया पर कश्मीर में एक प्रदर्शन नही हुआ। दुकानें बंद नही हुई।
जहाँ तक भारत सरकार का सवाल है वह भी समझ गई है कि गतिरोध अनिश्चित काल तक क़ायम नही रखा जा सकता। रातोंरात नए नेता पैदा नही किए जा सकते इसलिए पुराने नेताओं के माध्यम से ही गतिरोध तोड़ा जा सकता है। अंतराष्ट्रीय मीडिया में भी नकारात्मक छवि बन रही है कि कश्मीर में नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा है और तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को क़ैद में रखा गया। 213 दिन इंटरनेट बंद रहा। प्रदेश में सामान्य हालात क़ायम करने का दबाव बढ़ रहा है। अमेरिका के दक्षिण एशिया के कार्यकारी सहायक विदेश मंत्री डीन थाम्पसन ने अपनी संसद की एक कमेटी को पिछले महीने बताया था कि, “जो बाइडेन की सरकार ने भारत सरकार से कहा है कि जितना जल्दी हो सके कश्मीर में सामान्य हालात क़ायम किए जाऐं”। लद्दाख मे चीन की शरारत, अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापिसी और काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े की प्रबल सम्भावना पर भी भारत सरकार की नजर है। अफ़ग़ानिस्तान को लेकर ज़बरदस्त खेल खेला जा रहा है। आगे क्या? भारत सरकार का रोड मैप स्पष्ट है— पहले परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होगी, फिर नई हदबंदी पर चुनाव होंगे और फिर पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाएगा। कश्मीरी नेता पहले पूर्ण राज्य का दर्जा चाहतें हैं, पर उन्हे स्पष्ट कर दिया गया है कि क्रम में परिवर्तन नहीं होगा। परिसीमन के बाद 7 सीटें बढ़ने वाली हैं और क्योंकि अधिकतर यह सीटें जम्मू में होंगी इसलिए कश्मीरी नेताओं को एतराज़ है कि कहीं एक दिन राजनीतिक ताकत कश्मीरियों के हाथ से खिसक कर जम्मू न पहुँच जाए।
सरकार को परिसीमन पूरा करवा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया जल्द से जल्द पूरी करवा लेनी चाहिए। पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना भी अधिक देर और लटकाया नही जा सकता। महबूबा मुफ़्ती जो 2019 में अनंतनाग से लोकसभा का चुनाव हार गईं थी और जो अब सबसे मुखर हैं,ने तीन बातें कहीं हैं। एक, अनुच्छेद 370 बहाल किया जाए। दो, बातचीत में पाकिस्तान को शामिल किया जाए। तीन, कश्मीरियों में जो ‘मिसट्रस्ट’ अर्थात जो शुबहा है वह ख़त्म किया जाए।
जहाँ तक अनुच्छेद 370 की बहाली का सवाल है, वैसे तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है लेकिन जो हक़ीक़त है वह यही है कि भारत की कोई भी सरकार इसे फिर बहाल नही करेगी। नरेन्द्र मोदी की सरकार जिसने इसे हटाया है द्वारा इसे बहाल करने का सवाल ही पैदा नही होता। यह सरकार वैसे भी यू-टर्न नही लेती। इस अनुच्छेद के बारे यह भी समझ लेना चाहिए कि इसे हटाए जाने को भारत की जनता का आशिर्वाद प्राप्त है। जनता ने देखा है कि किस तरह इस विशेष दर्जे की आड़ में कश्मीर में अलगाववाद की भावना ने बल पकड़ा, भारत विरोधी मानसिकता प्रबल हुई जिसने बाद में आतंकवाद का रूप धारण किया। इसी भावना का उग्र रूप हमने तब देखा जब कश्मीरी पंडितों की नस्ली सफ़ाई की गई। इसलिए अनुच्छेद 370पर उठाए क़दम पर कोई सौदेबाज़ी नही हो सकती। उमर अब्दुल्ला अधिक व्यवहारिक है। उनका कहना है कि हम प्रयास करते रहेंगे पर “यह सोचना कि 370 वापिस आ जाएगा मूर्खता होगी”। पर महबूबाजी लगी हुईं है। उनका कहना है कि जब तक अनुच्छेद 370 बहाल नही होतावह चुनाव नही लड़ेगी। इसका अर्थ है कि उन्होंने चुनावी राजनीति को अलविदा कह दिया है।
जहाँ तक पाकिस्तान का सवाल है क्या वह समाधान है या समस्या ? पर उनसे बातचीत होनी चाहिए, और पिछले दरवाज़े से हो भी रही है। जब हम चीन से बात कर सकतें हैं तो पाकिस्तान के साथ क्यों नही? हम दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ना नही चाहते। जब शीत युद्ध चरम पर था तब भी अमेरिका और सोवियत यूनियन के राजनयिक लगातार एक दूसरे से मिलते रहे। लेकिन पाकिस्तान के साथ बात करनी और कश्मीर पर उनकी दखल स्वीकार करनी दो अलग बातें हैं। पाकिस्तान इस वक़्त बुरा फँसा हुआ है। आर्थिक स्थिति जर्जर है और एफएटीएफ से उसे मुक्ति नही मिल रही। उनके अपने एक अर्थशास्त्री ने कहा है कि वह दिन दूर नही कि उन्हे बांग्लादेश से भी क़र्ज़ा लेना पड़ेगा। उपर से मोदी सरकार द्वारा 370 हटाए जाने ने उनके लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है। यह नही कि पाकिस्तान मेऐसे लोग नही है जो भारत से झगड़ा ख़त्म करना चाहतें हैं। नवाज़ शरीफ़ की सोच थी कि कश्मीर का मसला भावी पीढ़ियों पर छोड़ कर बाक़ी मुद्दों पर प्रगति करनी चाहिए। पाकिस्तान के जनरल बाजवा भी सम्बन्ध बेहतर करने की बात कह चुकें हैं। वह व्यापार शुरू करना चाहतें हैं पर कश्मीर के समाधान की शर्त रख फँस गए हैं। सामरिक विशेषज्ञ सी राजा मोहन ने लिखा है, “ पाकिस्तान की बड़ी समस्या है। भारत द्वारा 5 अगस्त 2019 को उठाया क़दम उनके राजनीतिक गलें में फँस गया है। वह न उगल सकते हैं न निगल सकतें हैं”। इमरान खान का कहना है कि वह भारत के साथ बातचीत के लिए तैयार हैं ‘अगर कुछ क़दम उठाए जाऐं’। उनका इशारा 370 की बहाली की तरफ है। न नौ मन तेल होगा न इमरान खान साहिब नाचेंगे ! कश्मीरी नेताओं के साथ वार्ता के बाद जम्मू के एयरफ़ोर्स स्टेशन पर ड्रोन हमले सेआपसी सम्बन्ध फिर उलझसकतें हैं। वहां बहुत लोग हैं जो सामान्य सम्बन्ध नही चाहते।
जहाँ तक तीसरी बात, ‘मिसट्रस्ट’ अर्थात अविश्वास का सम्बन्ध है, कश्मीरी नेता इसका बहुत इस्तेमाल करतें हैं। ‘मिसट्रस्ट’ तो है पर यह एकतरफा नही है। देश में भी कश्मीरियो और कश्मीरी नेताओं के प्रति अविश्वास है,इस पर पर्दा डालने की ज़रूरत नही। कश्मीरियों को भी समझना चाहिए कि बाक़ी देश की भी उनसे गम्भीर शिकायतें हैं। कश्मीरी पंडितों को अपना घर बार छोड़ने को किसने मजबूर किया? क्या यह सच्चाई नही कि कई मस्जिदों से लाऊड स्पीकर पर घोषणा की गई कि मर्द चले जाऐं और महिलाओं को छोड़ जाऐं? कश्मीरी पड़ोसी और कश्मीरी नेता मूकदर्शक बने रहे। आज तक पंडित वापिस नही जा सके क्योंकि माहौल ही ऐसा है। क्या यह सच्चाई नही कि आतंकवादियों को वहां संरक्षण मिलता है? पुलवामा की घटना भी स्थानीय सहयोग से करवाई गई। जब महबूबा मुफ़्ती मुख्यमंत्री थी तो लगातार पत्थरबाज़ी कौन करवाता रहा और कौन उन्हे पैसे देता रहा? उनके पकड़े जाने पर कौन कहता रहा ‘हमारा लडके’, ‘हमारा लडके’? बार बार सुरक्षा कर्मियों पर हमले हुए। बाकी देश में क्या संदेश गया? ग़ुलाम नबी आजाद का कहना है कि भरोसा पैदा करने की ज़िम्मेवारी केन्द्र की है। मेरा पूछना है कि आप लोगों की भी कुछ ज़िम्मेवारी है या नही? महबूबा ‘मिसट्रस्ट’ की बात करतीं है पर इस देश ने तो उनके वालिद साहिब को देश का गृहमंत्री बनाया था। और जब मार्च 2015 को उन्हे पीडीपी- भाजपा गठबन्धन सरकार का मुखिया बनाया तो प्रधानमंत्री मोदी को जप्फी डालने के बाद उन्होंने सबसे पहले पाकिस्तान और अलगाववादियों का शुक्रिया अदा किया था।
आख़िर में इस मसले का हल निकालना है। पर ताली एक हाथ से तो बजती नही। कश्मीरियो को भी समझना होगा कि इन दुर्भाग्यपूर्ण हालात के लिए वह भी ज़िम्मेवार है। उन्हे भी देश भर में अपनी छवि बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। अटलजी ने ‘इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत’ के दायरे में समस्या हल करने की बात कही थी। अटलजी बहुत महान और उदार व्यक्ति थे पर कश्मीरियत तो उस वक़्त ही दफ़्न हो गई थी जब पंडितों को वहां से निकाल दिया गया। इंसानियत को भी तब बहुत चोट पहुँची थी। परिणाम हूआ कि जम्हूरियत भी शेख़ अब्दुल्ला द्वारा एक बार इस्तेमाल किए गए शब्दों की तरह वहां ‘सियासी आवारागर्दी’ करती रही।
यह जम्मू-कश्मीर की बदक़िस्मत हक़ीक़त है।