बचपन के दुख कितने अच्छे होते थे
तब तो सिर्फ़ खिलौने टूटा करते थे
समीना असलम समीना के यह शब्द आज के कोरोना काल में कितने मार्मिक लगतें हैं। आज केवल खिलौने ही नही टूटते कईयों का तो बचपन ही टूट गया है। कोरोना ने सबको प्रभावित किया है पर सबसे अधिक वह प्रभावित है जो इससे निबटने में सबसे कमजोर है, जिनकी त्रासदी है कि उन्हे मालूम ही नही कि कितनी बडी त्रासदी ने उन्हे घेर लिया है, हमारे बच्चे। जो खेलने का, उछल कूदने का, शरारत करने का समय है वह सहमा सहमा गुज़र रहा है। इस महामारी का सबसे बड़ा ज़ख़्म शायद बच्चों को झेलना पड़े। बच्चों से बाहर के उनके दो रिश्ते, पड़ोस और स्कूल, छीन लिए गए है। इनफैक्शन के डर से माँ बाप बाहर नही जाने देते, अन्दर उनका दम घुटता है। स्पोर्ट्स से भी वह वंचित हो गए हैं। 16 महीनों से बंद स्कूलों के कारण उनके मानसिक और शारीरिक विकास पर बड़ा विपरीत असर पड़ा है।
अनुमान है कि कोरोना के कारण दुनिया भर में 15 लाख बच्चों ने अपने माँ बाप या दोनों में से एक को खो दिया है। द लैंसट पत्रिका के अनुसार भारत में 119000 बच्चे है जो माँ बाप या संरक्षक खो बैठे हैं। सरकारी आंकडा बहुत कम है पर जैसी भयानक दूसरी लहर रही है यह कहा जा सकता है कि जिन बच्चों ने यहाँ माँ बाप या दोनों में से एक खोया है, वह हज़ारों में है। कईयों को रिश्तेदार सम्भाल रहें हैं तो ऐसे मामले भी है जहाँ ज़िम्मेवारी गाँव वाले निभा रहें हैं। कई बच्चे इतने छोटे हैं कि समझ ही नही सकते कि कुछ ही दिनों में उनके साथ कितना अनर्थ हुआ है। कई सरकारें मदद की घोषणा कर चुकी है पर सरकारी तंत्र तो घोषणा कर ज़िम्मेवारी से हाथ छाड़ लेगा इसलिए जरूरी है कि समाजिक, धार्मिक,शैक्षणिक और दूसरी संस्थाएँ आगे आए और इन बच्चों का हाथ पकड़े ताकि उनका शोषण न हो और उन्हे ज़िन्दगी का सामना करने के लिए तैयार किया जा सकें। न्यूयार्क टाईम्स के अनुसार लॉकडाउन और क्वारंटीन के कारण बड़ी संख्या में बच्चों में निराशा और डिप्रेशन अर्थात अवसाद के लक्षण नज़र आ रहें हैं। न्यूयार्क के मनोवैज्ञानिक राहेल बुशमैन के अनुसार 6 से 12 साल के तीन प्रतिशत बच्चों मे गम्भीर डिप्रेशन की आशंका है। 35 प्रतिशत बच्चें के मानसिक स्वास्थ्य, स्वभाव और आचरण पर नकारात्मक असर देखा गया है।
कईयों में डर बैठ गया है। बहुत अपनो को खोने की आशंका से सहमे हुए हैं। कुछ, पर बहुत कम, में आत्महत्या का ख़याल उत्पन्न होने का भी समाचार है। बच्चे अंतर्मुखी बन रहे है, बाहर की दुनिया उन्हे अब तनाव देती है। भारत में बच्चों में कोरोना से उत्पन्न अवसाद के मामले उच्च 25 प्रतिशत माने जा रहे है। कई अभिभावक हैं जो बता रहें हैं कि बच्चे रात को ठीक तरह से नही सोते। संयुक्त परिवार जो सुरक्षा देता है वह भी अधिकतर बच्चों से छिन गया है। स्कूल और सहपाठियों से कट जाने ने समस्या बढ़ा दी है। स्मार्ट फ़ोन यह कमी पूरी नही कर सकता। युनैस्को के अनुसार इन 16 महीनों में दुनिया मे 9 करोड़ बच्चे स्कूल नही गए या उनकी शिक्षा में विघ्न पैदा हुआ है। बहुत बच्चे स्वार्थी, ज़िद्दी और अनुशासनहीन बनते जा रहे हैं। कई अभिभावक बतातें हैं कि उनका बच्चा अधिक चिड़चिड़ा हो गया है, बात नही सुनता, बहस अधिक करता है। आरामतलबी भी बढ़ी है।शिक्षा संस्थाएँ वह जगह है जहाँ केवल पढ़ाई ही नही होती वहां ज़िन्दगी का सामना करने के लिए भी बच्चों को तैयार किया जाता हैं। यह वास्तव में बंदा बनाती है। बराबरी का पाठ और समाजिक व्यवहार सिखाया जाता है। बचपन में ही पूरी ज़िन्दगी की नींव पड़ जाती है पर बहुत दुख की बात है कि इस बार यह नींव कमजोर पड़ी है। अभी तक ऑनलाइन क्लास चल रही है पर यह टीचर की शारीरिक मौजूदगी की जगह नही ले सकती। कई टीचर पूरी तरह समर्पित हैं पर यह भी समाचार है कि कई टीचर भी ऑनलाइन क्लास ले ले कर थक गए हैं, बेपरवाह और असावधान हो गए हैं।जहाँ तक बच्चों का सवाल है उनका सुबह नहा धो-ब्रश कर, शू पौलिश कर साफ़ सुथरी यूनिफ़ॉर्म डाल स्कूल जाने का नित्य नियम बिगड़ गया है। स्कूल में बैठा कर ली गई परीक्षा के बिना बच्चों को उत्तीर्ण करना भी केवल अस्थाई व्यवस्था हो सकती है। यह सही मापदंड नही। इस बार नक़ल बहुत चली है जिससे होनहार विद्यार्थी घाटे में रहते है।
ऑनलाइन शिक्षा की बड़ी समस्या है कि देश के छात्र वर्ग के भारी बहुमत के पास न नैटवर्क है न स्मार्ट फ़ोन। विशेष तौर पर ग्रामीण और पहाड़ी क्षेत्रों में यह बड़ी समस्या है। कई बच्चे हैं जो शाम की इंतज़ार करते है कि पापा घर आऐं और वह फोन से कुछ पढ़ाई कर सकें। कई ऐसे समर्पित शिक्षक भी हैं जो शाम को भी क्लास लेते है ताकि वह बच्चे छूट न जाऐं जिनके पास सारा दिन फोन उपलब्ध नही रहता। यह तस्वीरें भी देखीं है जहाँ बच्चे पेढ़ों पर चढ़ कर पढ़ाई कर रहें है क्योंकि वहां वाईफाई कैच हो जाता है। कई पहाड़ों पर चढ़ कर वाईफाई पकड़तें हैं। बंगाल से तस्वीर देखी है जहाँ पेड़ पर चढ़ कर एक टीचर नीचे बैठे बच्चों को पढ़ा रहा है। राजस्थान में ऊँट पर बैठ कर दूर गाँव में छात्रों को पढ़ाने जाते अध्यापको का चित्र भी देखा है। ऐसे समर्पण को सलाम लेकिन यह स्थाई व्यवस्था तो हो नही सकती। एनजीओ चाईल्ड फ़ंड इंडिया के अनुसार आशंका है कि ग्रामीण क्षेत्रों मे 64 प्रतिशत बच्चें है जो शिक्षा की मुख्यधारा से कट जाऐंगे। यह बहुत बड़ा अन्याय है। आज के भारत में यह नामंज़ूर होना चाहिए। हम इन्हें इनकी क़िस्मत पर नही छोड़ सकते। इससे ग़रीबी बढ़ेगी।
हम देश में एक और कष्टदायक विभाजन देख रहें हैं,हैवज एंड हैव नॉटस ,अर्थात वह बच्चों जिनके पास स्मार्ट फोन है और वह जिनके पास नही है। यह डिजिटल विभाजन बहुत तबाही मचाने जा रहा है क्योंकि यह असमानता को और बढ़ाएगा। अमीर और ग़रीब के बीच रेखा और गहरी होगी। पहले ही लाखों बच्चे प्राईवेट स्कूल छोड़ कर सरकारी स्कूलों मे दाख़िल हो चुकें है क्योंकि वहां शिक्षा मुफ़्त है। बहुत जरूरी है कि सरकारी शिक्षा का स्तर ऊँचा किया जाए जैसे पंजाब और दिल्ली कर रहें हैं ताकि यह बच्चे पिछड़ न जाऐं।बहुत बच्चे है जो मजबूरी में शिक्षा छोड़ कर खेत में या ढाबे में या दूसरी नौकरी कर रहें हैं। इनका बचपन ही टूट गया। इन्हें भी मुख्यधारा में शामिल करना है। वैसे भी सारा दिन स्क्रीण को देखना बहुत स्वस्थ नही रहता। जो बच्चा सारा दिन ऑनलाइन रहता है वह बहुत ग़लत भी ग्रहण करता है। ऑनलाइन टीचिंग के लिए अभिभावको की मदद भी चाहिए पर यहाँ तो बहुत माँ बाप हैं जो ख़ुद पढ़े लिखे नही हैं। बहुत अध्यापक घबराएँ हुए हैं कि बच्चों की लिखने और बोलने की लरनिंग स्किल प्रभावित हो रही है।
अब धीरे धीरे बड़े बच्चों के लिए स्कूल खुल रहें हैं जबकि आईसीएमआर का कहना है कि स्कूल वास्तव में छोटे बच्चों से शुरू होने चाहिए क्योंकि संक्रमण पकड़ने की उनकी क्षमता कम है। बहुत माँ बाप हैं जो तीसरी लहर की सम्भावना से डरें हुऐ हैं। और यह डर नाजायज़ नही है।स्कूल खोलने चाहिए या नही खोलने चाहिए,दोनो ही बहुत मुश्किल निर्णय हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री कह चुकें हैं कि वह अभी स्कूल नही खोलेंगे, और दूसरे राज्यों का अनुभव देखेंगे। पंजाब में बड़ी क्लासों के लिए यह खुल गए हैं और संतोषजनक हाज़िरी है। फ़ीडबैक है कि बच्चे और अभिभावक दोनों ख़ुश हैं। दूसरी तरफ भारी संख्या में विशेषज्ञ हैं जो कह रहें है कि स्कूल खुलने चाहिए। अधिकतर प्रिंसिपल की भी यही राय है। सब को बड़ी चिन्ता उन बच्चों के बारे है जो टैकनॉलिजी का सहारा नही ले सकते इनके लिए स्कूल जल्द से जल्द खुलने चाहिए। जननीति और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ डा. चन्द्रकांत लहारिया का कहना है, “महामारी कई महीने रहेगी और वायरस कई साल। स्कूल महामारी ख़त्म होने या बच्चों को टीका लगने की इंतेजार में बंद नही रह सकते…बच्चों के समग्र विकास के लिए स्कूल खुलने जरूरी हैं”। एक और अंतराष्ट्रीय विशेषज्ञ कार्तिक मुरलीधरन का कहना है, “नए शिक्षा मंत्री का सबसे महत्वपूर्ण काम जल्द लेकिन सुरक्षित स्कूल खोलना है”।
अर्थात स्कूल खुलने चाहिए पर सुरक्षित खुलने चाहिए। सब सेफ़ शब्द पर बहुत जोर दे रहें हैं। लेकिन क्या इस हालत में शत प्रतिशत सेफ़ हो सकतें हैं? यह सवाल सरकार को, शिक्षा संस्थाओं को और सबसे अधिक अभिभावकों को परेशान करता रहेगा। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि अंतहीन समय के लिए स्कूल बंद नही रखे जा सकते। बच्चों को सुरक्षित रखना है पर उन्हे लम्बे समय के लिए शिक्षा से वंचित भी नही रखना। वीडियो क्लास रूम की जगह नही ले सकता, न ही वह टीचर की जगह छीन सकता है।अभी तक लगभग 30 देशों ने स्कूल खोल दिए हैं और 100 देश खोलने की तैयारी में हैं। योरूप के कई देशों ने प्राइमरी स्कूल बंद ही नही किए। हमे ध्यान रखना चाहिए कि पूरा स्टाफ़ वैकसिनेटेड हो और स्कूल प्रबन्धन को स्वायत्ता मिलनी चाहिए कि वह तय करें कि स्कूल कैसे खोलने चाहिए, पूरे या पार्ट टाईम, किस क्लास को कितनी देर के लिए बुलाना है या नही। हैल्थ मिनिस्टर की इस घोषणा का बहुत स्वागत है कि अगस्त से बच्चों का टीका उपलब्ध हो जाऐगा।स्कूल खोलना जोखिम भरा है, लेकिन बचपन को टूटने से बचाने के लिए पूरी सावधानी से यह क़दम उठाना ही है।