संसद का मानसून अधिवेशन भी निरर्थक नजर आता है। पेगासस साफ्टवेयर के द्वारा कुछ प्रमुख लोगों के मोबाइल की जासूसी को लेकर गम्भीर गतिरोध चल रहा है। किसी भी लोकतन्त्र में ऐसी जासूसी घिनौनी है। सरकार स्पष्ट जवाब नही दे रही कि क्या पेगासस के लिए किसी इसरायली कम्पनी के साथ उसकी कोई डील हुई थी या नही? वह जानती है कि अगर यह साबित हो गया कि ऐसी जासूसी हो रही है तो यह क़ानून का गम्भीर उल्लंघन होगा। इस मुद्दे पर विपक्ष तेज़ है और अब तो साथी नीतीश कुमार ने भी जाँच की मांग कर दी है। निश्चित तौर पर यह गम्भीर मामला है जिसकी जाँच और जिसकीसंसद में चर्चा होनी चाहिए। पर मुझे दो बातें और कहनी है। एक,क्या देश के सामने यही गम्भीर मामला है कि कुछ बड़े लोगों केफोन को टैप किया जा रहा है? क्या इस एक मुद्दे को छोड़ कर बाक़ी सब मुद्दों, कोरोना को लेकर मौतें, आक्सिजन की कमी जिसके बारे स्पष्टीकरण बड़ा अस्पष्ट था, महँगाई, पेट्रोल डीज़ल की क़ीमतों में असहनीय वृद्धि, चीनी घसपैंठ, आर्थिक संकट, किसान आन्दोलन, बेरोज़गारी, ठप्प होते बिसनस, आदि पर बहस नही होनी चाहिए? पेगासस के गतिरोध के कारण सरकार को सबसे बड़े संकट के बारे जवाब देने की ज़रूरत नही रही। वैक्सीन की कमी है, क्या इस पर संसद के अन्दर सरकार से सवाल करने की ज़रूरत नही? असम और मिज़ोरम इस तरह आक्रामक है जैसे दो देश हों जिनकी प्रभुसत्ता को चुनौती दी जा रही है। क्या यह मुद्दे हमारी विपक्ष की तवज्जो के हक़दार नही है? आप अपने अपने फोन को लेकर उत्तेजित हो रहे है पर आम आदमी की तकलीफ़ से आपको कोई तकलीफ़ नही? और क्या आपने यह नही देखा कि सड़क पर चल रहे आदमी को यह मुद्दा विचलित नही करता क्योंकि वह अपने संकट से जूझ रहा है। आख़िर और भी ग़म है ज़माने में पेगासस के सिवा!
और यह भी हक़ीक़त है कि ऐसी जासूसी सभी सरकारों, केन्द्रीय और प्रादेशिक, ने समय समय पर अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ की है। जासूसी तो चाणक्य के समय से चल रही है और इसे स्टेट-क्राफ़्ट अर्थात शासन-कला का महत्वपूर्ण हिस्सा समझा जाता है। इंदिरा गांधी की सरकार ने ऐसा खूब किया था। एम के धार जो इंटैलिजैंस ब्यूरो के संयुक्त निदेशक थे, ने अपनी किताब में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी जासूसी करवाती थीं, यहाँ तक कि 1982के बाद घर छोड़ गई बहू मेनका गांधी और उनकी माँ के फोन टैप होते थे। जब ज्ञानी जैलसिंह राष्ट्रपति बने तो उन्हे आशंका थी कि उनकी जासूसी करवाई जाती है। विशेष तौर पर जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे ज्ञानीजी इतने आतंकित थे कि जिनसे जरूरी बात करनी होती थी उन्हे बाहर बाग़ में ले जाते थे क्योंकि घबराहट थी कि कमरों में बात सुनने वाले यंत्र लगे हैं। डा. मनमोहन सिंह के समय में यह आरोप लगे थे कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के नार्थ ब्लाक दफ़्तर में जासूसी यंत्र लगे है। ख़ुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुकें है कि राष्ट्रीय हित में किसी का फोन सुनना जायज़ है। पर कौन तय करेगा कि ‘राष्ट्र हित’ क्या है? आजकल पेगासस जासूसी के मामले में पी चिदम्बरम बहुत मुखर है पर यूपीए के समय सबसे अधिक आरोप उन पर ही लगे थे कि वह फोन टैप करवातें हैं। दो ग़लत एक सही नही बनता पर सच्चाई है कि जो आज आँसू बहा रहें हैं, वह अपने समय में भी यही करवाते रहें हैं और कल को फिर मौक़ा मिला तो फिर यही करवाऐंगे। अब मामला सुप्रीम कोर्ट मे पहुँच गया है इसलिए बेहतर होगा कि विपक्ष सदन की कार्रवाई में विघ्न डालना बंद करे और अन्दर जा कर उन मुद्दों को उठाए जो आम भारतीय की ज़िन्दगी को सीधा प्रभावित करतें हैं।
इस दौरान ममता बैनर्जी कुछ दिन दिल्ली गुज़ार कर लौटीं हैं जहाँ सोनिया-राहुल से लेकर जावेद अख़्तर-शबाना आज़मी से उन्होने मुलाक़ात की है। ममता दीदी अपनी बड़ी विजय के बाद बड़ेजोश में है। वह आगे से अधिक परिपक्व और सियानी भी लग रहीं हैं। उनका यहाँ तक कहना है कि ‘भाजपा को हराने के लिए सबका साथ जरूरी है। मैं अकेली कुछ नही कर सकती। अगर विपक्ष में कोई दूसरा चेहरा आगे आता है तो मुझे दिक़्क़त नही’। यह बहुत बड़ा संशोधन है नही तो पहले वह कह चुकीं है कि ‘देश को बचाने की ज़िम्मेवारी बंगाल की है’। अर्थात नरेन्द्र मोदी के सामने चेहरों में वह ख़ुद को फ़्रंट रन्नर बता रही थी पर अब वह संकेत दे रहीं हैं कि नरेन्द्र मोदी और भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए वह अपनी महत्वकांक्षा से समझौता कर सकतीं हैं। सोनिया गांधी और राहुल गांधी से उनकी मुलाक़ात भी यह संदेश देती है कि वह इस अभियान में कांग्रेस की केन्द्रीय भूमिका स्वीकार कर रहीं हैं और वह सबको साथ लेकर चलना चाहतीं हैंपर वर्तमान राजनीति बताती है कि ममता दीदी का ‘खेला होबे’इतना आसान नही। विपक्ष के रास्ते में बड़ी अड़चने हैं।
एक, सरकार की लोकप्रियता में गिरावट आई है पर प्रधानमंत्री मोदी अभी भी देश के सबसे लोकप्रिय राजनेता हैं। अगर उनसे सीधी टक्कर लेनी है तो बराबर स्तर का नेता चाहिए। न राहुल गांधी , न ममता बैनर्जी, न शरद पवार या अरविंद केजरीवाल ही लोकप्रियता में मोदी का मुक़ाबला कर सकतें हैं। विपक्ष का नेतृत्व कौन करता है यह 2024 की लड़ाई का सबसे प्रमुख प्रश्न होगा। विपक्ष को लीडरशिप, विचारधारा और प्रोग्राम के बारे स्पष्टता प्रस्तुत करनी चाहिएकेवल किसी के एंटी होना काफी नही है। दो, लोकसभा चुनाव में अभी तीन साल पड़े हैं जबकि राजनीति मे कुछ ही सप्ताह भाग्य बदलने के लिए पर्याप्त हैं जैसा वर्तमान सरकार को भी अच्छी तरह समझ आगई होगी। मोदी सरकार के पास स्थिति को सुधारने और लोगों की हालत में बेहतरी करने का समय है। अगर और लहर तबाही नही मचाती तो सरकार अपना बचाव कर सकती है। तीन, ममता बैनर्जी की छवि मुस्लिम समर्थक नेता की है जिसका फ़ायदा उन्हे बंगाल के चुनाव में हुआ है। पर इस झुकाव को देश भर में और विशेष तौर पर अर्बन मिडल क्लास में पसन्द नही किया जाएगा। याद रखना चाहिए कि अल्पसंख्यक ध्रुवीकरण दुधारी तलवार है।चार, मोदी के उत्थान में गुजरात मॉडल का बड़ा हाथ था पर बंगाल मॉडल आकर्षक नही। बंगाल पिछड़ा राज्य है। अब कुछ बदलने की कोशिश की जा रही है पर वहां की राजनीति अराजक और हिंसक ही रही है यहां तक कि उद्योग भाग गया था। इसमें केवल कामरेडो का ही हाथ नही, ममता बैनर्जी का भी हाथ है। रत्न टाटा इसके गवाह हैं।
पाँच, और यह असली यक्ष प्रश्न है कि विपक्ष की सम्भावित क़िलाबन्दी में कांग्रेस की भूमिका क्या होगी? क्या सब मिल कर राहुल गांधी को नरेन्द्र मोदी के सामने विपक्ष का चेहरा स्वीकार करने को तैयार हैं? अभी तक तो सहमति लगती है कि कांग्रेस के बिना विपक्ष का गठबन्धन सफल नही हो सकता। आख़िर अपनी सब कमज़ोरियों के बावजूद कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है जिसके लोकसभा में 52 सांसद हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 20 प्रतिशत वोट जो 12 करोड़ बनते है,मिले थे। यह मामूली नही। पर शिखर पर महीनों से चल रही अनिश्चितता के कारण कांग्रेस हिचकोले खाती प्रतीत होती है। 250 जिलें है जहाँ ज़िला कमेटियां ही नही है। वह भाजपा की अति चुस्त मशीनरी का मुक़ाबला कैसे करेंगे? 200 सीटें हैं जहाँ कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर है। अधिकतर पर भाजपा जीती थी। विपक्ष का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि इन सीटों पर कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहता है? क्या कांग्रेस की स्थिति में सुधार होगा? यूपी में क्या होगा जहाँ कांग्रेस चौथे पाँचवें नम्बर में है? यूपीए के अध्यक्ष पद को लेकर भी विवाद होगा। सोनिया गांधी छोड़ना नही चाहेंगी या राहुल को देना चाहेंगी पर शरद पवार भी इच्छुक है। पर कांग्रेस की फ़र्स्ट फ़ैमिली पवार या ममता या किसी और के लिए जगह क्यों बनाऐंगी? कांग्रेस का नेतृत्व जानता है कि उनके बिना कोई विपक्षी मोर्चा सफल नही होगा और कांग्रेस की शर्त होगी की राहुल गांधी को मोदी के सामने विपक्ष का नेता स्वीकार किया जाए।
पर क्या ख़ुद राहुल गांधी इतनी बड़ी ज़िम्मेवारी सम्भालने के लिए तैयार होंगे? अभी तक तो उनका रवैया पुराना मुहावरा याद करवाता है कि घोड़े को पानी तक तो ले जाया जा सकता है, पानी पीने के लिए मजबूर नही किया जा सकता। क्या अब राहुल वह पानी पीने के लिए तैयार हैं जिसे वह ‘जहर’ कह चुकें हैं? केवलगनमैन से घिरे बिना नम्बर प्लेट के ट्रैक्टर पर सवार हो या साइकिल पर संसद भवन जाने से विश्वसनीयता नही बनती। राहुल गांधी ममता बैनर्जी की तरह स्ट्रीट फाइटर नही पर उन्हे भी समझना चाहिए कि उनकी भी ज़िम्मेवारी है। या वह दोनों हाथों से विपक्ष का नेतृत्व सम्भाल लें या बिलकुल एक तरफ बैठ जाऐं। जिस तरह वह बीच में लटक रहें हैं उससे देश का बहुत नुक़सान हो रहा है।और केवल हाथ पकड़ कर फ़ोटो खिंचवाने से विपक्षी एकता नही बनती। भाजपा कह सकेगी कि उनके नेता का मुक़ाबला एक गैंग कर रहा है जिस में किसी का मुँह बाएँ है तो किसी का दाएँ। विपक्ष के नेताओं की ब्रेकफ़ास्ट मीटिंग कर राहुल गांधी ने सही पहल की है पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है। उन्हे अपने में विश्वास पैदा करना है कि गम्भीर खिलाड़ी हैं। नवीन पटनायक या जगन मोहन रेड्डी जैसे भी तब ही साथ आऐंगे अगर विपक्ष में स्पष्टता होगी। मायावती और अरविंद केजरीवाल भी अभी तमाशा देख रहें हैं। अर्थात रास्ता साफ़ करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है। ममता बैनर्जी ने कोलकाता में नारा तो दिया था, ‘दिल्ली चलो’ लेकिन विपक्ष में बिखराव और अनिश्चितता को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि उनके लिए अभी दिल्ली दूर है !