
यह वह सुनहरा क्षण था जिसका तेरह वर्ष से इंतज़ार था। इससे पहले 2008 की बीजिंग ओलम्पिक में अभिनव बिंद्रा ने गोल्ड मैडल जीता था। और अब फिर 2021 में टोक्यो में एक और हमारा नौजवान खिलाड़ी मंच पर खड़ा था, गले में गोल्ड मैडल था, आँखों में नमी थी और सामने वह तिरंगा फेहराता देख रहा था और राष्ट्रगान की धुन सुन रहा था। और 130 करोड़ लोग भावुक हो कर उस दृश्य को देख रहे थे जिसकी उन्हे बरसो से कामना थी। ‘वह’ मैडल कभी तो आएगा! नीरज चोपड़ा ने हमारी वह इंतज़ार पूरी कर दी। यह गोल्ड मैडल इस 23 वर्ष के नौजवान के साहस, आत्मबल,मेहनत और चरित्रबल की सुनहरी कहानी है। उसका पहला थ्रो 87.03 मीटर था, दूसरा 87.58 मीटर। उसके बाद दोनों बाँहें उठा कर उसने दुनिया को बता दिया कि अब मेरी बराबरी कोई नही कर सकता। यह खेल ऊँचे दर्जे के पराक्रम, स्फूर्ति और एथलैटिक क्षमता की माँग करता है लेकिन नीरज के हाथ में तो जैवलिन मामूली लग रहा था।एथलैटिक्स में 100 साल से हमारी कहानी टूटे दिलों और टूटे सपनों की है। हम लगभग जीतते रहें हैं। मिल्खा सिंह या गुरबचन रंधावा या पी टी उषा जैसे नज़दीक पहुँच कर भी दूर रह गए थे। नीरज ने जीत के बाद मिल्खा सिंह और पी टी उषा के योगदान को याद किया है। पी टी उषा का भावुक संदेश, “मेरे बेटे, 37 साल के बाद तुमने मेरे अधूरे सपने को पूरा कर दिया”,सब कुछ बयान कर गया।
यह खेले कई मामलों में याद की जाऐंगी। एक, ट्रैक एंड फ़ील्ड मेंपहला मैडल मिला और वह भी गोल्ड। दूसरा, 41 वर्षों के बाद हाकी में मैडल मिला और तीसरा, इस बार मिले 7 मैडल सबसे अधिक हैं। सवाल है कि हाकी में क्या है जो हम लोगों को भावुक बना देता है? जो बात अपनी लोकप्रियता के बावजूद क्रिकेट में नही हैं? इसका जवाब है कि हाकी हमारी मिट्टी से जुड़ी है जबकि क्रिकेट बड़ा मनोरंजन है।औरआजकल बहुत अधिक क्रिकेट है। एक टीम श्रीलंका में थी तो एक ब्रिटेन में। अगले महीने आईपीएल शुरू हो रहा है। यह देश क्रिकेट क्रेज़ी बन चुका है। मीडिया भी क्रिकेट पर केन्द्रित है, कारपोरेट वर्ल्ड का आशिर्वाद भी क्रिकेट को प्राप्त है परिणाम है कि बाकी खेले दब गई। इनमें प्रमुख हाँकी है। इन कुछ दिनों के लिए अवश्य सब भूल गए कि कहीं टेस्ट मैच चल रहा है।
1928 में ओलम्पिक में हाकी के शामिल होने के बाद से भारत हावी रहा है। हम हाकी में 8 गोल्ड, 1 सिल्वर और 2 ब्रॉज़ मैडल जीत चुकें हैं। हाकी को बुलंदियों पर पहुँचाने में मेजर ध्यान चन्द का बड़ा हाथ रहा है। उनके नाम पर खेल रत्न पुरस्कार रख सरकार ने उनके योगदान को सही मान्यता दी है। 1980 के मास्को ओलम्पिक में गोल्ड जीतने के बाद एकदम सूखा पड़ गया। हमारी ऐसी दुर्गति बनी कि 2008 ओलम्पिक में हम हाकी में क्वालिफ़ाई भी नही कर सके। लंडन मे क्वालिफ़ाई किया पर सब मैच हार गए। इसीलिए टोक्यो में मिला कांस्य पदक बहुमूल्य है क्योंकि यह हमारी वापिसी का सूचक है। आस्ट्रेलिया से 7-1 की हार के बाद लग रहा था कि अब फिर लंदन वाला हाल होने वाला है पर बैलजियम के साथ मैच को छोड़ कर हम बाकी सब मैच जीत सके। मनप्रीत सिंह की कप्तानी और श्रीजेश की गोलकीपिंग के बल पर लड़कों ने ग़ज़ब की वापिसी की। हाकी में हमारा पुनरूत्थान हो रहा है। आशा है आगे सुनहरा इतिहास लिखा जाएगा।
पर अफ़सोस है कि 130 करोड़ का देश 13 मैडल भी नही ला सका। चीन के पास 88 मैडल है। नन्हें जमैका जिसकी जनसंख्या मात्र 30 लाख है के पास भी 4 गोल्ड और कुल 9 मैडल हैं। इसके लिए केवल सरकार को या सिस्टम को दोषी ठहराना ही काफ़ी नही। असली बात है कि हमारे यहाँ खेल संस्कृति नही है जो पश्चिम के जीवन का अंग है और जिसे चीन ने अपने यहाँ निर्माण किया है। हमारा समाज खेलों को प्रोत्साहित नही करता। शहरी वर्ग विशेष तौर पर अपने बच्चों को खेलों से दूर रखता है। वह उन्हे डाक्टर या इंजीनियर या अफ़सर बनाना चाहतें हैं मैदान में भेजना नही। न ही हमारे पास वह स्पोर्ट्स इंफ़्रास्ट्रक्चर है जो विश्व विजेता पैदा करता है। पूर्व ओलिंपियन प्रीतम सिवाच का सही कहना है, ‘मिट्टी पर खेल कर अंतराष्ट्रीय मुक़ाबले जीते नही जा सकते’। ज़रूरत हर जिले में स्पोर्ट्स कॉम्पलैक्स बनाने की है। एस्ट्रो टर्फ़ देने की है। अगर हमे भविष्य में खेलों में कीर्ति चाहिए तो आधारभूत सुविधाओं को तैयार करना है। इसलिए यह भी जरूरी है कि जो खिलाड़ी मैडल से चूक गए हैं और जिनमें सामर्थ्य है की मदद की जाएउन्हे अपने हाल पर नही छोड़ दिया जाना चाहिए। यह नीति सही नही कि खिलाड़ी को तब ही इज़्ज़त और सहायता मिलेगी जब वह मैडल लेकर आएगा आगे पीछे वह लावारिस ही रहेगा। मैडल आसानी से नही मिलते। सिल्वर मैडल जीतने के बाद रवि दहिया का यह कहना कि ‘पर यह गोल्ड तो नही है’ बताता है कि जज़्बा कैसा है।
खेलों के प्रति हरियाणा और उड़ीसा सरकार के योगदान का वर्णन जरूरी है। हरियाणा की जनसंख्या देश की जनसंख्या का मात्र 2.1 प्रतिशत है पर टोक्यो में 24 प्रतिशत खिलाड़ी हरियाणा से थे। नीरज चोपड़ा भी करनाल के किसान का बेटा है। यहाँ खेलों का अच्छा इंफ़्रास्ट्रक्चरबन चुका है। पहलवानी और बाक्सिंग में हरियाणा के लड़के लड़कियाँ आगे आरहें हैं।लेकिन अब शिकायत मिल रही है कि पहली कामयाबियों के लिए घोषित ईनाम नही दिए गए। हरियाणा सरकार को यह शिकायत तत्काल ख़त्म करनी चाहिए और निश्चित करना चाहिए कि जो घोषणाऐं अब की जा रही हैं उन पर जल्द अमल किया जाए। खेद है कि खेल के मामले में पंजाब सरकार सक्रिय नही रही। अब अवश्य विजेता खिलाड़ियों को पैसा दिए जा रहें हैं है पर जब उनके संघर्ष के दिन थे तब पंजाब सरकार मदद देने में चूक गई जबकि पुरूष हाकी के19 में से 11 खिलाड़ी पंजाबी हैं। दोनों पुरूष और महिला हाकी टीम को प्रोत्साहन पंजाब से नही बल्कि उड़ीसा सरकार से मिला है। अगर टोक्यो में पुरूष हाकी में हमे मैडल मिला और महिला हाकी भी मैडल के दरवाज़े तक पहुँच सकी तो इसका श्रेय उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और उनकी सरकार को जाता है। 2018 में उड़ीसा सरकार ने हाकी इंडिया के साथ अगले पाँच साल के लिए दोनों टीमों की 100 करोड़ रूपए की डील की थी। इसी का फल हम देख रहें हैं। 2023 का हाकी विश्व कप भी उड़ीसा सरकार आयोजित कर रही है। पंजाब सरकार गृहयुद्ध में व्यस्त है।
लेकिन आख़िर में यह खिलाड़ियों की अपनी मेहनत, अनुशासन, लगन और त्याग की गाथा है। वह आज के भारत के हीरो हैं। उनकी कहानी करोड़ों युवाओं को प्रेरित करेगी। यहां तक पहुँचने के लिए उन्होने ख़ून और पसीना बहाया है। चोट के बावजूद बजरंग पुनिया कांस्य पदक जीतने में सफल रहे। हिम्मत के बल पर विपरीत परिस्थिति पर विजय पाई। किसी के पास काम के जूते नही थे, तो कोई हाकी स्टिक नही ख़रीद सकता था तो किसी के पास शहर तक जाने के पैसे नही थे। बहुत के पास सही खुराक के लिए पैसे नही थे। बहुत परिवार ऐसे हैं जो मदद करने मे बिलकुल असमर्थ थे। हाकी टीम का फारवर्ड सुमीत कुमार पाँच साल की उम्र में ढाबे पर काम करने के लिए चला गया था क्योंकि दलित परिवार के पास दो वक़्त की रोटी का इतेजाम नही था और ढाबे में उसे रोटी तो मिल जाती थी। महिला खिलाड़ियों के लिए तो और भी मुश्किल था क्योंकि उन्हें समाज के पूर्वाग्रह का भी सामना करना पड़ा था। ड्रेस को लेकर आपति की गई। हाकी स्टार नेहा तो एक दिहाडीदार बाप की बेटी है। मीराबाई चानू 25 किलोमीटर दूर अकादमी रेत के ट्रकों पर बैठ कर जाती थी। महिला हाकी कप्तान रानी रामपाल के पिता रेढ़ी चलाते थे और माँ दूसरों के घरों में काम करती थी। रानी बताती है, “मैं अपनी ज़िन्दगी से भागना चाहती थी..दो वक़्त की रोटी नही थी…पापा रोज़ 80 रूपए कमाते थे। हाकी स्टिक के लिए भी पैसे नही थे”। ऐसी परिस्थिति किसी को भी निरुत्साहित कर देती पर इस लड़की ने हिम्मत दिखाई और हाकी स्टार बन गई। लेकिन ऐसे खिलाड़ियों का संघर्ष कितना संघर्षशील रहा होगा।
इनकी कहानियों को स्कूलों के पाठयक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। ग़ुरबत और अन्याय की ज़िन्दगी से निकलने के लिए खेल ने उन्हे रास्ता दे दिया। अधिकतर खिलाड़ियों की पृष्ठभूमि ग्रामीण है। पूर्व बाक्सिंग कोच गुरबक्श सिंह का कहना है कि ऐसे बच्चों की ‘पहली चिन्ता रोटी और नौकरी है। वह खेल के द्वारा सुरक्षित और सफल बनना चाहतें हैं’। ऐसे बच्चों में सफलता के लिए अधिक भूख होती है। पर कई ऐसे भी हैं जो रास्ते में ही रह गए। इन्हें कोई सहारा नही देता। कोई सरकारनौकरी नही देता। लेकिन अभी तो देश जश्न के मूड में है। पर क्या यह उत्साह क़ायम रहेगा या कुछ देर भांगड़ा डालने के बाद हम शांत हो जाऐंगे? तीन साल के बाद पेरिस में अगली ओलम्पिक खेले होंगी इनकी तैयारी अभी से शुरू हो जानी चाहिए। तैराकी या दौड़ों में हम ज़ीरो क्यों हैं? शूटिंग और तीरंदाज़ी में मैडल नही मिला पर सब खिलाड़ी प्रतिभाशाली है उन्हे निराश नही होने देना।प्रधानमंत्री मोदी खिलाड़ियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं पर सरकार को खेलों के लिए जेब और ढीली करनी चाहिए। पर अभी तो उस जादुई क्षण का लुत्फ़ उठाने का समय है जब ओलम्पिक स्टेडियम में तिरंगा फेहराया गया और हमारे राष्ट्रगान की धुन बज उठी। इस आज़ादी दिवस पर देश को यह सबसे बड़ा तोहफ़ा है। नीरज चोपड़ा,धन्यवाद !