कभी ख़ुद ज़ोर से अपने ही गिर जाता है ज़ोरावर
मेर क़ातिल कहीं तू अपना क़ातिल न बन जाना
अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर पाकिस्तान में कई लोग सीताराम केसरी की भाषा में ‘बम’, ‘बम’ हैं। वह विशेष तौर पर इस बात से जश्न में है कि भारत को वहां सामरिक और कूटनीतिक धक्का पहुँचा है। इमरान खान की नाटकीय टिप्पणी है कि तालिबान ने ‘अफ़ग़ानिस्तान में ग़ुलामी की ज़ंजीरें तोड़ दीं’। उनके विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने दुनिया को गिनती कर बताया है कि चार राष्ट्राध्यक्षों ने इमरान खान से अफ़ग़ानिस्तान को लेकर बात की है। उनके गृहमंत्री शेख़ रशीद का कहना है कि ‘अब कोई सुपरपावर पाकिस्तान की अनदेखी नही कर सकता’। लेकिन पाकिस्तान में ऐसी आवाज़ें भी उठ रहीं है कि उन्हे सावधान रहना चाहिए कहीं लेने के देने न पड़ जाऐं। पाकिस्तान की सेना तथा आईएसआई ने तालिबान की खूब मदद की है पर कहीं आभास है कि अमेरिका को परेशान करने वाले बाग़ी और है,जिनकी काबुल मे सरकार बन रही है वह अलगप्राणी हैं। पिछले महीने पाकिस्तान के जनरल बाजवा तथा आईएसआई के प्रमुख लै.जनरल फ़ैज़ हमीद ने अपने सांसदों को बताया था कि अफ़ग़ान तालिबान और पाकिस्तान में हमले करने वाला आतंकी गुट तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) ‘एक ही सिक्के के दो पहलू हैं’।
टीटीपी वह आतंकी संगठन है जो पाकिस्तान में अफ़ग़ानिस्तान जैसी इस्लामी सत्ता क़ायम करना चाहता है। टीटीपी दो बार पाकिस्तान के स्वात जिले पर क़ब्ज़ा कर चुका है। जनरल बाजवा चेतावनी दे चुकें हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत की सूरत में टीटीपी और साहसी बन जाएगा और पाकिस्तान के अन्दर आतंकी हमले बढ़ सकतें है। वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार फाहद हुसैन नेद डॉन अखबारमे लिखा है कि ‘पाकिस्तान को निश्चित करना है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के नियंत्रण से टीटीपी ताकत हासिल न करे और पाकिस्तान की ज़मीन पर हमले न कर सके’। पाकिस्तान में कई विशेषज्ञ हैं जो समझतें हैं कि अब उन्हे भारत के ख़िलाफ़ ‘सामरिक गहराई’ मिल गई है पर अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के जमने से बहुत कुछ ऐसा है जो पाकिस्तान के लिए भी असुखद होगा। ठीक है कश्मीर में हमारे लिए चुनौती बढ़ सकती है पर पाकिस्तान का अपना बलूचिस्तान भी बेचैन है और वहां चीनी नागरिकों पर बार बार हो रहे हमले बताते हैं कि स्थिति नाज़ुक है। यूएन और अमेरिका मे रही पाकिस्तान की पूर्व राजदूत मलीहा लोधी ने भी लिखा है कि अस्थिरता और टकराव से सबसे बड़ा नुक़सान पाकिस्तान का ही होगा।
पाकिस्तान को सावधान रहने का बड़ा कारण इतिहास है। पाकिस्तान की पूर्व विदेश मंत्री हीना रब्बानी खार ने लिखा है कि, “जो भी अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं पर जश्न मना रहे हैं उन्हे इतिहास की समझ नही”। और इतिहास बताता है कि जिसने भी सोचा किउग्र राष्ट्रवादी और आजाद स्वभाव के अफ़ग़ान उसकी जेब में हैं,उसे मुँह की खानी पड़ी। अफ़ग़ान 19वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य,20वीं सदी में सोवियत यूनियन और इस सदी मे 20 साल के युद्ध के बाद अमेरिका को शर्मनाक पराजय दे कर हटे हैं।अफ़ग़ानिस्तान तीन बड़े साम्राज्यों का क़ब्रिस्तान है पाकिस्तान उन्हे कैसे काबू करेगा? यह सही है कि पाकिस्तान ने तालिबान के नेताओं को क्वेटा में पनाह दी हुई थी। तालिबान के आतंकी पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में शरण लेते रहे और वहां से अफ़ग़ानिस्तान पर हमला करते रहे। लेकिन वह तब था जब सत्ता हासिल करना और अमेरिका तथा उसके समर्थन से चल रही अफ़ग़ान सरकार का विरोध करना और पराजित करना लक्ष्य था।यह मक़सद पूरा हो चुका है और पाकिस्तान और अफ़ग़ान के बीच जो दरारें हैं वह धीरे धीरे सतह पर आ जाऐंगी। पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच तनाव का बड़ा कारण 2670किलोमीटर लम्बी डूरंड सीमा है जिसे किसी भी अफ़ग़ान सरकार ने मान्यता नही दी। इसे लेकर दोनों देशों के बीच युद्ध की नौबत आचुकी है। पश्तून जो अफ़ग़ानिस्तान का बहुमत हैं इस डूरंड रेखा के दोनों तरफ रहतें हैं। आज़ादी के समय खान अब्दुल गफार खान ने आजाद पख़्तूनिस्तान का प्रयास किया था। इस वक़्त भी 2.5करोड़ पश्तून पाकिस्तान में रहतें हैंऔर यह संख्या अफ़ग़ान पश्तूनों से कई गुना ज़्यादा है। 1955 में काबुल ने विधिवत तौर पर पश्तूनीस्तान के समर्थन की घोषणा की थी जिसे अभी तक वापिस नही लिया गया। काबुल का तर्क है कि डूरंड रेखा की आयु सीमा 100 वर्ष थी जो 1993 में पूरी हो चुकी है। अब फिर पश्तूनीस्तान के लिए माँग उठेगी। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने के बाद जो भगदड़ मची हुई है वह पाकिस्तान में शरणार्थी बाढ़ का रूप भी धारण कर सकती है। पहले ही वहां 30 लाख अफ़ग़ान शरणार्थी हैं अगर और आगए तो समाज में और तनाव पैदा होगा।
तालिबान अगर फिर कट्टर इस्लामी शासन क़ायम करता है, जिसकी पूरी सम्भावना है, तो इसकी आँच पाकिस्तान पर आ सकती है। वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका आयशा सद्दीका का लिखना है कि, ‘तालिबान के स्थापित होने से पाकिस्तान की सभी उग्र धार्मिक ताक़तों को बल मिलेगा’। इस्लामाबाद की कुख्यात लाल मस्जिद जो कटटरवादियों का अड्डा है और जिस पर मुशर्रफ ने हमला करवाया था, पर तालिबान का झंडा लहराया जा चुका है। तालिबान और पाकिस्तान की व्यवस्था का रिश्ता इस वक़्त सुविधा का है। तालिबान को पाकिस्तान का सहयोग चाहिए और पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल भारत के ख़िलाफ़ करना चाहता है लेकिन अगर इस क्षेत्र का छल कपट, विश्वासघात और ग़द्दारी का इतिहास देखा जाए तो यह कुछ समय की ही बात है कि पश्तून तालिबानी पाकिस्तान के कथित उपकार को भूल कर पश्तून राष्ट्र के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए पाकिस्तान से उलझ पड़ेंगे। इसीलिए पाकिस्तान की कोशिश होगी की उनका मुँह भारत की तरफ मोड़ रखा जाए। पश्तून राष्ट्रवाद को लेकर पाकिस्तान कितना असुरक्षित है यह इस बात से पता चलता है कि 2017 से उसने 50 करोड़ डालर की लागत से डूरंड सीमा पर बाड़ लगाना शुरू कर दिया था। अगर पाकिस्तान की कमजोर आर्थिक हालत को देखें तो यह बहुत बड़ा क़दम है पर वह किसी भी हालत में पश्तून होमलैंड नही बनना देना चाहते। पाकिस्तान और तालिबान का रिश्ता कितना बेमेल है यह इस बात से भी पता चलता है कि तालिबान के बड़े नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर और उनके साथियों को पाकिस्तान ने आठ साल जेल में रखा था। बरादर यह बर्ताव शायद ही भूलेंगे।
अफ़ग़ानिस्तान भी बदल चुका है। यह 20 साल पुराना अफ़ग़ानिस्तान नही है। यह एक युवा देश है जहाँ दो तिहाई जनसंख्या 30 वर्ष से कम है। 60 प्रतिशत के क़रीब लोगों के पास इंटरनेट सुविधा है। उन्हे खुले समाज में साँस लेने की आदत है और मालूम है कि दुनिया में क्या हो रहा है। वह अन्दर से कट्टर इस्लामी शासन का विरोध करेंगें। इमरान खान को मालूम होना चाहिए कि महिलाए विशेष तौर पर फिर ‘ग़ुलामी की ज़ंजीरों’ में जकड़े जाने के लिए तैयार नही। वह काम करती रही है, स्वच्छन्द घूमने कि आदत है। सबसे बड़ा विरोध उनसे आएगा। युवा फ़ेसबुक और ट्विटर पर हैंतालिबान के लिए अपना अत्याचार छिपाना भी सम्भव नही होगा। अल्पसंख्यक जो सुन्नी मुसलमान नही हैं ने अभी से विरोध शुरू कर दिया है। अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय झंडे के साथ लोग प्रदर्शन कर रहें हैं। जलालाबाद में गोली चल चुकी है और कुछ लोग मारे जा चुकें हैं। पिछली बार ऐसा खुला प्रदर्शन नही हुआ था। अफ़ग़ानिस्तान वैसे भी कई नस्लों और जातियों का घालमेल है जो आपस में लड़ती झगड़ती रहती हैं। पश्तूनो के इलावा ताजिक, हज़ारा, उज़बेक, तुर्क, बलूच सब यहाँ मौजूद हैं। अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पाकिस्तान के अतिरिक्त ईरान, तुर्कमेनिस्तान, उज़बेकिस्तान, तजिकीस्तान के साथ लगती है। 76 किलोमीटर का गलियारा इसे चीन से जोड़ता है। यह सब पड़ोसी दखल देने की कोशिश करतें रहतें हैं। पंजशीर जहाँ के लोग ताजिक हैं ने विरोध का झंडा उठा ही लिया है। उनके नेता अहमद मसूद ने लिखा है, “मैं मुजाहिदीन के साथ तालिबान का मुक़ाबला करने के लिए युद्ध के लिए तैयार हूँ”। अशरफ़ गनी सरकार के उपराष्ट्रपति अमरूल्लाह सलाह भी उनके साथ हैं। यह तालिबान को पहली चुनौती है। न ही तालिबान को शासन का अनुभव है। उन्हे दमन और गोली चलाना ही आता है, जो आज की हालत में जब दुनिया की नज़रें इधर लगी हुईं है,उनके गॉड फ़ादर पाकिस्तान के लिए महँगा साबित हो सकता है।
इस वक़्त तो पाकिस्तान बहुत बडी ग़लतफ़हमी का शिकार है पर घटनाक्रम को मोड़ देने की उनकी क्षमता सीमित है। ख़ुद के पास देने को फूटी कौड़ी नही है महत्वकांक्षा मध्य एशिया की शक्ल बदलने की है। अमरूल्लाह सलाह ने भी कहा है, ‘अफ़ग़ानिस्तान इतना बड़ा है कि पाकिस्तान निगल नही सकता’। पाकिस्तान का अपना गॉडफ़ादर, चीन, अधिक समझदार है वह फूँक फूँक कर क़दम उठा रहे हैं कि कहीं सारा क्षेत्र अस्थिर न हो जाए। पर पाकिस्तान के हाकिम तो समझते हैं कि उन्होने दुनिया जीत ली है। वह ख़ुश हैं कि भारत को धक्का पहुँचा है लेकिन आगे क्या होगा कौन कह सकता है? जिस देश के प्रति वहां सबसे अधिक सद्भावना है वहा भारत ही है। पाकिस्तानी पत्रकार ए कियानी ने लिखा है, “ तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान के द्वारा वह भारत को कैसे नष्ट कर लेंगें?…क्या कोई पाकिस्तानी बताएगा कि तालिबान हमारी क्या मदद करेगा इसके सिवाय कि वह घर में और आतंकी पैदा कर देगा?” बहरहाल एशिया के मध्य में बड़ी ताक़तों की बड़ी गेम शुरू हो चुकी है। अमेरिका और चीन प्रभाव के लिए भिड़ रहें हैं। पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान तो मात्र प्यादे हैं।