संविधान निर्माता बेवक़ूफ़ नही थे, Our Founding Fathers Had Right Perspective

समाजवादी का लिबास ओड़े हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार के प्रमुख नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाक़ात कर जातीय जनगणना की माँग की है। नीतीश कुमार के अनुसार प्रधानमंत्री ने उनकी माँग को ख़ारिज नही किया। इन लोगों का तर्क है कि जातीय जनगणना से विकास योजनाओं बनाने में मदद मिलेगी और ऐसी योजनाओं को बनाने का आधार केवल आर्थिक नही हो सकता क्योंकि जातीय पिछड़ापन अभी भी बड़ी समस्या है और इसका हल तब ही होगा जब पता चलेगा कि कौन सी जाति के कितने लोग है? तेजस्वी यादव का कहना था कि, ‘जातिगत जनगणना राष्ट्रीय हित में है और यह एतिहासिक तौर पर ग़रीबों के हक़ में क़दम होगा’। 1931 में अंग्रेज़ों के समय जातीय जनगणना हुई थी जिसके बाद हिंसा हुई थी। 1951 में फिर इसकी माँग उठी थी लेकिन सरदार पटेल ने इसे यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि इससे जातीय तनाव बढ़ेगा। उसके दुष्प्रभाव को देखते हुए संविधान बनाने वाले सियाने भी इसे हाथ लगाना नही चाहते थे। 10 साल पहले भी यह माँग उठी थी लेकिन समझदारी दिखाते हुए यूपीए सरकार ने भी इसे ख़ारिज कर दिया था।

जिस पर हमारे संविधान निर्माताओं ने ग़ौर नही किया और जिसे सरदार पटेल ने रद्द कर दिया था उसे बिहार के हमारे यह कथित समाजवादी फिर उठा रहें हैं। बिहार के बारे मैं बाद में बात करूँगा, लेकिन इन्हें समझना चाहिए कि बिहार भारत नही है। यह दिलचस्प है कि समाजवादी ब्रैंड के नेता कुछ समय पहले तक जातिवाद को देश के लिए सबसे अधिक हानिकारक बताते रहें हैं लेकिन आज इनका समाजवाद जातिवाद का पर्यायवाची बनता जा रहा है। नाम गरींबों का लेते हैं पर जातिवाद से अपनी राजनीति की दुकान चमकाते रहतें हैं। भाजपा नेतृत्व इस गणना का इच्छुक नही है। इसका एक कारण अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव है जहां अगड़ी जातियों के वोट का महत्व है। संघ भी इसके पक्ष में नही क्योंकि इससे उनके हिन्दुओं को एकजुट रखने के लक्ष्य का नुक़सान होग और हिन्दू समाज में फिर दरार पैदा हो सकती है।केन्द्र ने ओबीसी की सूचि बनाने का अधिकार प्रादेशिक सरकारों को दे दिया है पर राष्ट्रीय स्तर पर इनकी गणना का इरादा सरकार का नही है।  भाजपा को यह भी आशंका होगी कि इससे मंडल द्वितीय की स्थिति बन सकती है और प्रादेशिक पार्टियों को संजीवनी मिल जाएगी जो इस वक़्त मुद्दों के लिए भटक रहीं हैं।

इस माँग के पीछे मंशा सबसे प्रभावशाली वोट बैंक उभर रहे ओबीसी को ख़ुश करना है। पर क्या यह राष्ट्रीय हित में भी है? हम इसी तरह एक विभाजित करने वाले मुद्दे से दूसरे विभाजित करने वाले मुद्दे तक भटकते रहेंगे? एक राष्ट्र के तौर पर हमें 74 वर्ष के बाद भी चैन नही? अम्बेदकर ने तो ऐसे समाज की कल्पना की थी जहाँ जाति का महत्व नही रहेगा पर हम तो इसे पक्का करते जा रहें हैं।  जातीय जनगणना से ऐसा पिटारा खुल जाएगा कि सम्भालना मुश्किल होगा। पहले ही समाज में बहुत बेचैनी है। कोरोना ने इसे और बढ़ा दिया है। इस जनगणना से  समाजिक तनाव का जिन्न बोतल से बाहर निकल आएगा। सपा, राजद, जनता दल (यू),जैसी पार्टियाँ जिनकी कारगुज़ारी निम्न है लोगों  का ध्यान हटाने के लिएऐसे मुद्दे उठाती रहती हैं।  प्रधानमंत्री से मिलने से बाद नीतीश कुमार का दमकता चेहरा बता रहा था कि वह समझते हैं कि उन्होने अगली बार की कुर्सी का इंतेजाम कर लिया है। जब लोग सुशासन की माँग करेंगे तो  उन्हे जातीय जनगणना का सब्ज़बाग़ दिखाया जाएगा।नजर 90 लाख सरकारी नौकरियों, 2 लाख इंजीनियरिंग सीट और 80 हज़ार मैडिकल सीट पर है पर इसके योग्य बनाने के लिए शिक्षा के ढाँचे में कोई सुधार करने की कोशिश नही होगी। बिहार के जो बच्चे  अपना भविष्य बनाना  चाहतें हैं वह या तो दिल्ली की तरफ भागते हैं या कोटा के कोचिंग केन्द्रों में भटकते रहतें हैं।

जब हमारा संविधान सब को बराबरी का अवसर देता है फिर जात-बिरादरी पर इतना जोर क्यों दिया जाता है?  जात-बिरादरी हमारी हक़ीक़त है पर इसे उभारने की जगह इसे बृहत्  राष्ट्रीय पहचान के अधीन करने की ज़रूरत है। तेजस्वी यादव का कहना है कि ऐसी जनगणना ‘ग़रीबों के पक्ष में बड़ा क़दम होगा’। नीतीश कुमार का कहना है, ‘समाजिक कल्याण की योजना बनाने का आधार केवल आर्थिक नही होना चाहिए’। मेरा सवालहै कि यह आधार आर्थिक क्यों न हों? वास्तव में ग़रीबी के सिवाय तो कोई आधार बनता ही नही।अगर सबसे कमजोर व्यक्ति तक कल्याण योजनाएँ पहुँचानी है तो मानदंड ग़रीबी ही होनी चाहिए। और बड़ा सवाल है कि आख़िर भारत है क्या? क्या हम विभिन्न जातियों के जमघट है जो एक दूसरे को अविश्वास से देखती है? क्या यहाँ जाति के अनुपात के मुताबिक़ हर चीज़ मिलनी चाहिएया भारत 130 करोड़ लोगों का देश है जिन्हें संविंधान उन्नति का बराबर मौक़ा देता है चाहे उनका धर्म, भाषा, जाति कुछ भी हो?

विडम्बना है कि जो पहले अपना उदारवादी होने का प्रमाण यह देते थे कि वह जातिवाद के विरूद्ध हैं वह ही अब संकीर्ण जातिवाद के ध्वजारोही बन गए है और समझते हैं कि जातिवाद के पुनर्जीवन से ही उनकी राजनीति को प्राण मिलेंगे। खेद है कि वह उस तरह समाज को बाँटना चाहतें हैं जैसे अंग्रेज़ों ने 1931 में प्रयास किया था। सवाल यह भी है कि क्या अब जाति का अधिकार व्यक्ति के अधिकार से सुप्रीम हो गया है? क्या इन लोगों ने यह नही सोचा कि इससे समाज में कितना असंतोष और ईर्ष्या बढ़ेगा? जो वंचित हो जाएँगे या जिनका अनुपात कम निर्धारित होगा उनका कैसा बैकलैश होगा? जो माँग वह कर रहें हैं वह केवल जनगणना तक ही सीमित नही रहेगी। फिर सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण की माँग उठेगी।  उनको लेकर मारधाड़ शुरू हो जाएगी। अर्थात पूरा प्रोग्राम तैयार है। भारत को जो भेदभावहीन और समानतावादी समाज बनाने का लक्ष्य है यह उसके विपरीत है। हम उलटी दिशा में चल रहें हैं। विभिन्न जातियों को ख़ुश करने का प्रयास किस क़दर बेतुका और हास्यास्पद बन चुका है यह इस बात से पता चलता है कि कई राज्यों की ओबीसी सूची में ब्राह्मणों को भी शामिल कर लिया गया है। अर्थात सब कुछ राजनीति है तर्क या औचित्य की जगह नही है। और क्या उस भारत में जो दुनिया का मुक़ाबला करना चाहता है, मेरिट की कोई जगह नही होगी?

बिहार के यह नेता ‘समाजिक न्याय’ का बात  बहुत करतें हैं पर उनसे यह सवाल तो किया जा सकता है कि दशकों से आप लोगों का ही तो शासन है फिर बिहार देश का सबसे पिछड़ा प्रांत क्यों हैं? विकास के हर सूचकांक में बिहार न्यूनतम स्तर पर क्यों है? नीति आयोग ने शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पानी,सैनिटेशन की जो रैंकिंग बनाई है में केरल सबसे उपर है और बिहार सबसे नीचे 28 वें स्थान पर है। करोड़ों बिहारी रोजगार की तलाश में देश भर में भटकते हैं। कोविड संकट के दौरान  उनकी दुर्गति देश ने देख ही ली है। बिहार की यह भी दिलचस्प हक़ीक़त है कि मार्च 1990 जब जगन्नाथ मिश्र ने इस्तीफ़ा दिया था के बाद सता उन पार्टियों और उन नेताओं के हाथ रही है जो ‘पिछड़ा’ कहलवाना पसन्द करतें हैं। तब से लेकर अब तक राष्ट्रपति शासन के एक वर्ष को छोड़ कर  लालू प्रसाद यादव (दो बार),राबड़ी देवी (तीन बार), नीतीश कुमार (पाँच बार) और जितन राम माँझी (एक बार) सीएम रहें  है। यह सब बिहार के लोगों को समाजिक न्याय क्यों नही दिलवा सके? प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता राष्ट्रीय औसत से एक चौथाई है। हिमाचल प्रदेश में 70 प्रतिशत रोजगार है, बिहार में सबसे कम 39.7 प्रतिशत है। इसका मतलब क्या है? कि लोक कल्याण पर ध्यान देने की जगह यह लोग जाति की राजनीति ही करते रहे? और अब फिर नया बखेड़ा खड़ा करने का पूरइरादा है। यही हालत उत्तर प्रदेश की है। राजनाथ सिंह के संक्षिप्त काल को छोड़ कर 25 वर्ष मायावती (चार बार), मुलायम सिंह यादव (तीन बार), कल्याण सिंह (दो बार), और अखिलेश यादव (एक बार) मुख्यमंत्री रहें हैं। फिर प्रदेश ने प्रगति क्यों नही की? मार्च 2017 में योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के बाद अब कुछ हरकत नजर आरही है। एक्सप्रेस हाईवे, नए एयरपोर्ट, अस्पताल, शिक्षा संस्थाएँ  बन रहे है। पर कोविड के दौरान जो नुक़सान हुआ है उससे पता चलता है कि  ढाँचा कितना कमजोर है। अब फिर डेंगू ने कई जिंलों में अस्पताल भर दिए है मरने वालों में अधिकतर बच्चे हैं। कोविड समय के दृश्य ताज़ा हो गए।  अगर योगी आदित्यनाथ ‘अब्बा जान’ वाली राजनीति से दूर रहें तो अच्छा नेतृत्व दे सकतें हैं। इससे उनकी असुरक्षा और अपने काम के प्रति अविश्वास झलकता है।

यूपी भी बिहार की तरह प्रगति नही कर सका क्योंकि ध्यान उस राजनीति की तरफ है जो बाँटती है। अंग्रेज़ों से ‘डिवाइड एंड रूल’ अच्छी तरह  सीख लिया लगता है इसीलिए अब फिर जातिगत जनगणना की माँग उठा रहें हैं। अफ़सोस है कि राजनेताओं की इस जमात के लिए सब कुछ वोट हैं, चुनाव है, राजनीति है पर केन्द्र सरकार को राजनीति से उपर उठ कर देश हित में निर्णय लेना चाहिए। उड़ीसा के समझदार मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पर अपने लेख में नीतीश कुमार लिखतें हैं, “लोग पूछते हैं कि श्री नवीन पटनायक राजनीति में इतने सफल कैसे हैं? नवीन पटनायक ने ख़ुद एक इंटरव्यू में इसका जवाब दिया है, ‘मैं लोगों के लिए काम करता हूँ… चुनाव के लिए नही”। काश! नीतीश कुमार ने भी अपने इस मित्र से यह सीखा होता !

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.