अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ मुलाक़ात के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना था कि ‘भारत और अमेरिका स्वभाविक सांझेदार हैं’। सबसे पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘नैचूरल पार्टनर’ की बात कही थी। इसके पीछे भावना यह है कि क्योंकि दोनों देश लोकतान्त्रिक है इसलिए बहुत कुछ साँझा हैं पर इसके बावजूद अमेरिका पाकिस्तान की मदद करता रहा है और भारत का झुकाव रूस की तरफ रहा है। अब अवश्य दोनों के सम्बन्ध गहरें हो रहें हैं। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह और मज़बूत हुए हैं। अभी प्रधानमंत्री मोदी वाशिंगटन में राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाक़ात कर और चार क्वाड देशों के नेताओं की पहली इन-पर्सन बैठक से लौटें हैं। यह मुलाक़ातें अमेरिका द्वारा उठाए गए दो कदमों की परछाईं में की गईं हैं जिनसे अमेरिका के रवैये और दिशा के बारे बहुत शंकाऐं उत्पन्न होती है। एक, अमेरिका की अफ़ग़ानिस्तान से अशोभनीय वापिसी, और दूसरा क्वैड की बैठक से ठीक पहले अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा एक और गठबंधन ‘औकस’ की घोषणा करना है जिसमें अमेरिका के इलावा इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया शामिल है। जहाँ क्वाड अभी जलवायु , कोविड आदि विषयों पर उलझा हुआ है, ताकतवार ‘औकस’ को बनाया जा रहा है।
आस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी बनाने की तकनीक देकर अमेरिका उसे चीन के ख़िलाफ़ अगले मोर्चे पर तैनात करना चाहता है। परमाणु पनडुब्बी बनाने का 90 खरब डालर का सौदा आस्ट्रेलिया फ़्रांस से करने जा रहा था जो नाटो में अमेरिका का साथी देश है लेकिन उन्हे बताए बिना अमेरिका ने यह सौदा छीन लिया। अमेरिका की इस एकतरफ़ा कार्रवाई से जहाँ चीन ग़ुस्से में है और आस्ट्रेलिया को धमकी दे रहा है, वहां फ़्रांस इतना ख़फ़ा है कि उसने अमेरिका और आस्ट्रेलिया से अपने राजदूत वापिस बुला लिए थे। फ़्रांस ने इसे विश्वासघात करार दिया है। चिन्ता यह है कि अगर अमेरिका फ़्रांस जैसे ‘एलाई’ (सामरिक मित्र देश) के साथ यह कर सकता है तो भारत तो मात्र ‘पार्टनर’ है। इसीलिए अमेरिका के साथ गर्मजोशी के दिखावे के बावजूद भारत बहुत सावधानी से बढ़ रहा है। वाशिंगटन पोस्ट में भी एक लेख में लिखा है, ‘भारत किसी भी महाशक्ति के कक्ष में बहुत दूर तक फिसलने के लिए तैयार नही’। पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने सावधान किया है कि, ‘हमें सारे अंडे एक टोकरी में नही डालने चाहिए’। क्वाड की प्रासंगिकता को लेकर भी सवाल उठ रहें है। पूर्व एडमिरल राजा मेनन ने इसे ‘कूटनीतिक टॉल्क-शो’ करार दिया है।
जिस तरह अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से निकला है और उसने अपने सहयोगियों को अपने हाल पर या यूँ कहिए कि खूंखार तालिबान की दया पर छोड़ दिया, उससे अमेरिका के वैश्विक नेतृत्व के दावे पर सवाल उठने लगे हैं। काबुल के अमेरिकी दूतावास पर ताला जड़ा है और हज़ारों अफ़ग़ानी जिन्होंने अमेरिका तथा नाटो देशों की मदद की थी पर तालिबान की तलवार मँडरा रही है। अमेरिका की इससे बड़ी फ़ज़ीहत क्या हो सकती है कि उनके इतराज़ के बावजूद पाकिस्तान ने वहां ऐसी सरकार बनवा दी है जिसमें अधिकतर वह आतंकवादी मंत्री है जिन पर अमेरिका ने ईनाम घोषित किया हुआ है। सराजुद्दीन हक्कानी गृहमंत्री है जिसके बारे जानकारी देने के लिए अमेरिका ने 1 करोड़ डालर का ईनाम रखा हुआ है। अमेरिका कुछ नही कर सका। लंदन का इकॉनोमिस्ट लिखता है, ‘ सबसे बड़ा झटका अमेरिका को लगा है…उसके नेता अस्थिर साबित हुए हैं…इससे दुनिया भर में जेहादियों के हौंसले बुलंद होंगे…अमेरिका के अविश्वसनीय रवैये से दुनिया स्तब्ध है’। पत्रिका ने इसे अमेरिका की ‘शर्मनाक वापिसी’ करार दिया है। अमेरिका के पूर्व रक्षा सलाहकार जॉन बाल्टन का कहना है, “अमेरिका के क़दम से उसके कई मित्र देशों का विश्वास गिरा है”।
दुनिया भर की राजधानियों में अमेरिका की गिरती विश्वसनीयता की चर्चा है। कई अमरीकी राष्ट्रपति के सलाहकार रहे ब्रूस रीडल का कहना है, “कोई योजना नही थी…उल्लेखनीय अकुशलता…राष्ट्रीय सुरक्षा टीम की क्षमता पर गम्भीर सवाल खड़े करती है”। अमेरिका निश्चित तौर पर चीन की बढ़ती ताकत को लेकर चिन्तित है लेकिन यह यकीनी नही है कि अमेरिका चीन के साथ नए शीत युद्ध के लिए तैयार है। बाइडेन कह भी चुकें हैं कि वह नए शीत युद्ध में फँसने नही जा रहे। चीन से अभी तक अमेरिका के मूल हितों, राष्ट्रीय सुरक्षा,जीवन पद्धति या अस्तित्व को कोई सीधा खतरा नही। अमेरिका की चीन के साथ चौधर की लड़ाई है। अमेरिका एशिया में अपनी मर्ज़ी से है, जब चाहे वह यहाँ से निकल सकता है, जैसे वह अफ़ग़ानिस्तान से निकला है। पर हम तो एशिया के वासी हैं और चीन हमे दबाने की कोशिश कर रहा है। कल को अगर अमेरिका चीन के साथ समझौता कर लेता है,जैसे बराक ओबामा करना चाहते थे,तो अमेरिका के लिए हमारा महत्व कम हो जाए। अमेरिका की इस क्षेत्र के प्रति जो रणनीति है उसका केन्द्र आस्ट्रेलिया है, क्वाड जैसा ढीला गठबन्धन परिधि में है।जो बाइडेन भी डानल्ड ट्रंप की ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ की नीति पर चल रहें हैं। दूसरे देश दूसरे दर्जे के हैं। वह यह भी कहतें हैं कि वह अमेरिका को फिर ग्रेट बनाऐंगे। यह मेहरबानी दूसरों पर नही होगी, यह समझ जाना चाहिए। पूर्व एडमिरल अरूण प्रकाश का ठीक कहना है, ‘भारत को ग्रेट पावर बनाने की अमेरिकी पेशकश पर विश्वास नही किया जा सकता’।
चीन में अभी वह ताकत नही कि वह अमेरिका की जगह ले सके। अमेरिका की तबाही मचाने की ताकत आज भी क़ायम है। उसकी जीडीपी पूरी दुनिया की जीडीपी का लगभग एक चौथाई है। उसकी प्रति व्यक्ति आय निकटतम प्रतिद्वंद्वी चीन की प्रति व्यक्ति आय से छ: गुना है। अनुसंधान के मामले में कोई देश अमेरिका का मुक़ाबला नही कर सकता। मिलिट्री पर उनके ख़र्च का मुक़ाबला भी कोई नही कर सकता। वह दो विश्व युद्ध जीत चुकें है और शीत युद्ध मे सोवियत यूनियन को समुचित पराजय दे कर हटें हैं। लेकिन इसके बावजूद वह पहले वियतनाम और अब अफ़ग़ानिस्तान से भाग खड़े हुए। अमेरिका सुपर पावर तो बना रहना चाहता है और यह भी चाहता है कि उसकी इज़्ज़त एक सुपर पावर के तौर पर की जाए, पर इसकी इंसानी कीमत चुकाने को तैयार नही विशेष तौर पर जब टकराव का क्षेत्र उसकी अपनी ज़मीन से बहुत दूर हो। सोच यह प्रतीत होती है कि हम अपनी जगह सुरक्षित है। दोनों तरफ समुद्र है। उपर और नीचे वह देश है जिनसे कोई चुनौती नही इसलिए हम खामखाह दूसरों के झमेलों में क्यों पड़ें? अमेरिका दुनिया का पुलिसमैन बने नही रहना चाहता।
जो बाइडेन का कहना है कि अमेरिका अब अपना सारा ध्यान चीन और रूस पर अपनी श्रेष्ठता क़ायम करने पर लगाएगा। वह विशेष तौर पर चीन से उभर रही चुनौती से निबटना चाहतें हैं। लेकिन चीन से अमेरिका निबटेगा कैसे? चीन से ताइवान, जापान, कोरिया और भारत को खतरा है। वह वियतनाम और फिलिपीन्स जैसे देशों पर भी धौंस जमाता रहता है। सबसे अधिक खतरा ताइवान को है जिसे चीन अपना हिस्सा समझता है। शी जिंनपिंग समझते हैं कि अगर वह ताइवान को चीन में शामिल करने में सफल होते हैं तो अपने देश के इतिहास में वह अमर हो जाऐंगे। सामरिक विशेषज्ञ चीन के ताइवान में सीधे दखल से इंकार नही करते। ऐसी स्थिति में अमेरिका क्या करेगा? क्या वह ताइवान में अपने सैनिक तैनात करेगा और तीसरे महायुद्ध, इस बार चीन के साथ, का जोखिम उठाएगा? सम्भावना बहुत कम नजर आती है।
चीन को नियंत्रण में करने के लिए अमेरिका जो भी करेगा उसका हम स्वागत करेंगे पर स्पष्ट है कि अमेरिका पर एक सीमा तक ही हम निर्भर रह सकते हैं। निश्चित तौर पर हमारे नेता और सुरक्षा विशेषज्ञ चिन्तित होंगे। अफ़ग़ान-पाकिस्तान का क्षेत्र फिर ख़तरनाक बन रहा है। हम क्वाड में तो शामिल हैं पर अगर लद्दाख में या कहीं और चीन हमारे ख़िलाफ़ फिर बदमाशी करता है तो इस बात की कोई सम्भावना नही कि बाकी क्वाड देश हमारे लिए चीन से झगड़ा लेंगे। अमेरिका खूफिया सूचनाएँ देने या सैनिक सामान देने में मदद करेगा पर ज़मीन पर मुक़ाबला हमने ही करना है। अमेरिका का ध्यान हिन्द-प्रशांत महासागर में चीन को चुनौती देने का है पर हमें तो चुनौती ऊँचे पहाड़ों पर मिल रही है। अमेरिका में अपनी ज़मीन से दूर किसी और के लिए टकराव की भूख नही रही। जॉन बाल्टन का आंकलन है कि दक्षिण चीन सागर से लेकर हिन्द महासागर और अरब सागर में चीन का वर्चस्व बढ़ेगा। उनका स्पष्ट कहना है कि ‘भारत घिरा हुआ महसूस करेगा’। अमेरिका से भरोसा उठा है। वहां लोग दूसरों की समस्या में दखल देने के विरूद्ध है। अमेरिका का रवैया नई परिस्थिति पैदा कर गया है। चीन और दुस्साहसी बनेगा। अगले युद्ध आर्टीफीशियल इंटैलिजैंस से लड़े जाऐंगे। साइबर वॉरफेयर और ड्रोन वॉरफेयर का ज़माना आगया है। हमे टैकनॉलीजी और सॉफ़टवेयर स्किलस की अपनी क्षमता बढ़ानी है। अमेरिका, ब्रिटेन, इसरायल और अब आस्ट्रेलिया को जो सैनिक और दूसरी संवेदनशील टैकनॉलिजी दे रहा है उससे हमे वंचित रखा जा रहा है। अमेरिका की दिशा और संकल्प के बारे बहुत सी जायज़ शंकाऐं हैं। हमे चीन के ख़िलाफ़ उनका मोहरा नही बनना क्योंकि इतिहास गवाह है कि जब उनकी प्राथमिकता बदलती हैं तो त्यागने में वह मिनट नही लगाते। रूस के साथ दोस्ती को हमे क़ायम रखना है। अमेरिका पूरी तरह से स्वार्थी नीति पर आ गया है जो एकमात्र उसके हितों के लिए है। इसलिए ज़मीन पर अपनी सुरक्षा का इंतेजाम हमे ख़ुद करना है,अपने ‘नैचूरल पार्टनर’ के बहुत भरोसे हम नही रह सकते।