यह देश वैचारिक रूप से इतना बँटता जा रहा है कि स्वतंत्रता सेनानियों को भी बक्शा नही जा रहा। समय समय पर गांधीजी और नेहरू जैसे महान् नेताओं पर कीचड़ उछालने का प्रयास हो चुका है। यह वह लोग हैं जिन्होने देश को आजाद करवाया था। यह हमारे आईकॉन अर्थात आदर्श हैं। हर देश हर समाज को ऐसे लोग चाहिए जिनकी जीवनी से आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा ले सकें। अमेरिका में लिंकन, इंग्लैंड में चर्चिल, फ़्रांस में डीगॉल, रूस में लेनिन, दक्षिण अफ़्रीका में मंडेला जैसे लोग आईकॉन है। यह नही कि इन्होंने ग़लतियाँ नही की पर इनके योगदान को याद किया जाता है ग़लतियों या कमज़ोरियों को नही। अफ़सोस है कि हमारे यहाँ तो गांधी को भी बख़्शा नही जा रहा। कई लोग अब हत्यारे गोडसे का गुणगान कर रहें हैं। एक निर्देशक तो गोडसे पर फ़िल्म बनाना चाहता है। सावरकर के पोत्र रणजीत सावरकर का कहना है कि वह नही समझते कि गांधी राष्ट्रपिता थे। ठीक है यह उनकी राय है पर देश और दुनिया तो गांधी को राष्ट्रपिता ही मानती है। यह देश इस तरह विभाजित है कि बहुत लोग हैं जो कह रहें हैं कि रणजीत सावरकर के दादा भी ‘वीर’ नही थे जिस ख़िताब से बचपन से हम विनायक दामोदर सावरकर को जानते हैं। हमारा दुर्भाग्य है कि हम उन लोगों को जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, को भी हीरो और विलेन में बाँट रहे हैं।
1910 में सावरकर जब लंडन में क़ानून की शिक्षा पढ़ रहे थे तो वहां उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेज़ों ने उन्हे गिरफ़्तार कर भारत भेज दिया और उन्हे दो आजीवन कारावास (50 वर्ष ) भुगतने कि लिए 1911-21 काला पानी (अंडेमन) भेज दिया गया जहाँ उन्हे अंग्रेज़ जेलर डेविड बैरी द्वारा अमानवीय यातनाएँ दी गई और जैसे अमित शाह ने भी कहा है, तेल निकालने के लिए कोल्हू के बैल की तरह इस्तेमाल किया गया। अंडेमन का सेलुलर जेल और जिस कोठरी में सावरकर ने दस साल गुज़ारे वह भारतवासियों के लिए तीर्थस्थल रहा है। लेकिन आजकल के दूषित वातावरण में जिस व्यक्ति को ‘सम्राट के ख़िलाफ़ युद्ध’ करने के आरोप में दो आजीवन कारावास की सज़ा मिली थी और जिसे रिहा करने से अंग्रेज़ों ने इसलिए इंकार कर दिया था कि वह ‘टू डेनजरस’ अर्थात बहुत ख़तरनाक है, की विरासत भी विवादों में घिर गई हैं। 1918-19 में ब्रिटिश राज ने ‘शाही आम माफी’ घोषित कर भयानक कालापानी से बहुत क़ैदियों को रिहा किया था पर सावरकर और उनके भाई गणेश को बता दिया गया कि उन्हे बहुत ख़तरनाक समझा जाता है इसलिए रिहा नही किया जाएगा। खेद की बात है कि इसी सावरकर के बारे राहुल गांधी की कांग्रेस ‘गददार’ शब्द का इस्तेमाल कर रही है। शायद कांग्रेस और गांधी परिवार भाजपा द्वारा जवाहरलाल नेहरू की अनावश्यक तौहीन का बदला लेना चाहते है इसलिए सावरकर पर कीचड़ उछाल रहें हैं पर इस मामले में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की एक टिप्पणी ने नई बहस शुरू कर दी है और जो कुछ बातें दबी हुंई थी, वह अब सार्वजनिक हो रहीं हैं।
राजनाथ सिंह ने एक कार्यक्रम में दावा किया कि गांधी जी ने सावरकर को सलाह दी थी कि कालापानी से अपनी रिहाई करवाने के लिए वह ब्रिटिश राज को दया याचिका लिखें। यह दावा ग़लत है क्योंकि कहीं भी गांधीजी द्वारा दिए गए ऐसे परामर्श का प्रमाण नही है। इसका दूसरा नुक़सान यह हुआ कि सावरकर द्वारा अंग्रेज़ों से माफी माँगने का मामला जो पहले दबा दबा सा था उसकी पुष्टि राजनाथ सिंह ने कर दी चाहे इसके लिए उन्होने गांधी जी को घसीट लिया। तथ्य यह हैं कि 1911 में कालापानी पहुँचने के कुछ ही महीनों के बाद सावरकर ने अपनी पहली दया याचिका ब्रिटिश राज को भेज दी थी। सावरकर ने फिर 1913-14 में दूसरी याचिका भेजी। कुल ऐसी सात याचिकाएँ अंग्रेज़ों को भेजी गई। गांधीजी उस समय दक्षिण अफ़्रीका में थें वह तो 1915 में भारत लौटे थे। सावरकर ने जेल में अपनी ज़िन्दगी के बारे जो किताब लिखी थी जो उन्होने 1928 में प्रकाशित की थी उस में कहीं भी महात्मा गांधी की कथित सलाह का ज़िक्र नही है। राजनाथ सिंह को ग़लत जानकारी दी गई। जब कालापानी से उनके भाईयों की रिहाई नही हो रही थी तो सावरकर के छोटे भाई नारायण ने ज़रूर गांधी जी से दखल का निवेदन किया था। 25 जनवरी 1920 को लिखें अपने जवाब में गांधी जी ने मात्र यह सुझाव दिया था कि सावरकर बंधु ब्रिटिश सरकार को ‘संक्षिप्त याचिका’ लिखें कि उनके क्रान्तिकारी कार्य राजनीतिक है। किसी माफीनामे का कोई ज़िक्र नही केवल ‘मामले के तथ्य’ रखने की बात कही। गांधी जी ने यंग इंडिया के मई 26, 1920 के अंक में सावरकर भाईयों का ज़िक्र किया था कि “वह स्पष्ट तौर पर कह रहें है कि वह ब्रिटेन के साथ सम्बन्ध से आज़ादी नही माँग रहे। इसके विपरीत उनका मानना है कि भारत की तक़दीर ब्रिटिश के साथ मिल कर सबसे अच्छी तरह तय हो सकती है”। सावरकर ने ख़ुद अपनी एक दया याचिका में लिखा था, “अगर सरकार अपनी अपार उपकारिता और दयालुता में मुझे रिहा कर देती है तो मैं संवैधानिक तरक़्क़ी और अंग्रेज़ सरकार के प्रति वफ़ादारी का निष्ठावान समर्थक रहूँगा”।
विडम्बना है कि सावरकर की अंग्रेज़ सरकार को भेजी गईं अनेक याचिकाओं को सही ठहराने के लिए उन गांधी जी का इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है जिनसे सावरकर और उनके साथी नफरत करते थे। सावरकर की शिकायत थी कि गांधी का झुकाव मुसलमानों का तरफ है। उन्होने ‘ दग़ाबाज़ और अविश्वसनीय गांधी’ का ज़िक्र किया था और ख़िलाफ़त आन्दोलन का समर्थन करने पर गांधी जी को ‘भारत का गददार’ तक समझा था। गांधी जी की हत्या में भी सावरकर को गिरफ़्तार किया गया था पर ‘सबूत के अभाव में’ छोड़ दिया गया। गांधी हत्या के बारे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को 28/2/1948 को लिखे अपने पत्र में सरदार पटेल लिखतें हैं, “राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इसमें बिलकुल संलिप्त नही था.. यह हिन्दू महासभा का धर्मांन्ध हिस्सा है जो सीधा सावरकर के नीचे था जिसने साजिश रची थी और इसे पूरा किया था”। गांधी जी के प्रपौत्र तुषार गांधी की टिप्पणी है, “ जिनके दिलों में गांधी के बारे इतनी नफरत है कि वह उनका वध करना चाहेंगे, को आज विश्वसनीय बनने के लिए बापू की ज़रूरत है”। उल्लेखनीय है कि न गांधी ने और न ही नेहरू जैसे नेताओं ने कभी अपने लिए अंग्रेज़ों को माफ़ी की अपील की थी।
सावरकर को लेकर सुभाष बोस को भी शंका थी। एक जगह नेताजी लिखतें है, “मैं मिस्टर जिन्नाह और मिस्टर सावरकर जो अभी भी अंग्रेज़ों से समझौता करना चाहते हैं से निवेदन करना चाहता हूं कि वह समझे कि कल की दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्य नही होगा… ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समर्थक स्वभाविक तौर पर आजाद भारत में आप्रसंगिक बन जाऐंगे”। यह भी उल्लेखनीय है कि 1924 को रिहा होने के बाद सावरकर ने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नही लिया था। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन जैसे संघर्ष से वह दूर रहे। सावरकर ने माफी क्यों माँगी जिसके लिए उनकी आजतक आलोचना हो रही है? जो उनके समर्थक है उनका मानना है कि सावरकर समझते थे कि जेल में बैठ कर वह देश की कोई सेवा नही कर रहे और माफ़ी माँग कर बाहर आकर वह देश की सेवा कर सकते है। कालापानी में सावरकर के साथ जो टार्चर किया गया वह इतना अमानवीय था कि वहां से निकलने के लिए माफ़ी का रास्ता अपनाना शायद समझदारी थी। केवल सावरकर ने ही नही कई क्रान्तिकारियों ने दया की याचिका की थी। माफ़ी माँगना हर क़ैदी का हक़ भी है पर 1875 के बाद से ही असंख्य स्वतन्त्रता सैनानी हैं जो कालापानी में मर मिटे पर माफ़ी नही माँगी। एक इतिहासकार के अनुसार पुरानी बौम्बे प्रैसिडैंसी से ही 400 युवाओं को कालापानी ले जाया गया था और टार्चर करने के बाद या गोली से उड़ा दिया गया या फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
गांधी जी की हत्या के बाद सावरकर अछूत बन गए थे। अब उन्हे उभारा जा रहा है पर उनकी विरासत विवाद और विरोधाभास से ग्रस्त है। जिस क्रान्तिकारी को अंग्रेज़ों ने ‘सबसे खतरनाक’ कहा था उसी ने बाद में ताउम्र अंग्रेज़ों के प्रति वफादारी की कसमें भी खाई थी। कई बार ब्रिटिश राज को लिखा कि अगर जेल से रिहा कर दिए गए तो वह सहयोग करने के लिए तैयार हैं। गांधी जी और देश की आज़ादी के लिए लड़ रही कांग्रेस के वह स्पष्ट विरोधी थे। गांधी हिन्दू मुस्लिम भाईचारा के समर्थक थे और सावरकर हिन्दुत्व के। सावरकर ने बार बार गोरों से माफ़ी क्यों माँगी और रिहाई पर सहयोग की पेशकश क्यों की, इसका मेरे पास कोई जवाब नही। 100 साल के बाद किसी पर उँगली उठाना जायज़ नही। इतिहास ही फ़ैसला करेगा। दो अलग अलग विचारधाराओं है जिन्हें राष्ट्र हित में एक दूसरे से भिड़ने की जगह साथ साथ रहना सीखना चाहिए नही तो किसी की इज़्ज़त नही बचेगी और हम जड़विहीन राष्ट्र बन जाऐंगे।
पर जाते जाते और क्रान्तिकारियों का ज़िक्र करना चाहता हूँ जिन्हे फाँसी की सज़ा सुनाई गई थी। उन्हे सलाह दी गई कि वह सरकार को दया याचिका लिखें। पहले तो वह तैयार नही थे फिर मजबूर करने पर उन्होने जो ‘याचिका’ डाली उससे तो अंग्रेज़ों के भी होश उड़ गए। वह लिखतें हैं, “ आपकी अदालत के अनुसार हमने युद्ध किया है इसलिए हम युद्ध क़ैदी हैं। इसलिए हमारे साथ युद्ध क़ैदियों जैसा व्यवहार किया जाए। फाँसी लगाने की जगह हमें गोली से उड़ा दिया जाए… कृपया सेना को आदेश दें कि वह हमें खत्म करने के लिए अपनी टुकड़ी को भेज दें”।
मौत को आमंत्रित करने वाले यह शूरवीर थे भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव।