यह कहते हुए कि “साथियों…आज गुरू नानकदेव जी का पवित्र पर्व है। मैं देशवासियों से क्षमा माँगते हुए कहना चाहता हूँ कि शायद हमारी तपस्या मे कुछ कमी रह गई होगी जिस कारण किसान भाईयों को हम समझा नही पाए”, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन कृषि क़ानून वापिस लेने की घोषणा कर दी। जैसे प्रधानमंत्री मोदी की जीवनी लिखने वाले निलांजन मुखोपाध्याय ने भी लिखा है, “ निर्णय वापिस लेना बहुत गैर-मोदी क़दम है”। यह एक एतिहासिक घटना है क्योंकि यह सरकार और यह प्रधानमंत्री निर्णय वापिस लेने या दबाव में आने के लिए नही जाने जाते। यह किसान संघर्ष की बड़ी जीत है जिन्होंने अत्यन्त कठिन परिस्थिति में लगातार एक साल अपना आन्दोलन चलाया और अजय समझने वाली सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होने ठिठुरती सर्दी में 2 डिग्री और चिलचिलाती गर्मी में 45 डिग्री तक बर्दाश्त किया पर सरकार के उचित अनुचित दबाव के आगे झुके नही और जाति और राजनीतिक मतभेदों से उपर उठ कर ग़ज़ब एकता का प्रदर्शन किया। मेवा सिंह एक साल के बाद घर लौट रहें हैं। सुखमनी एक साल के बाद अपने माँ बाप को मिलने जा रही है। उसकी अरदास पूरी हो गई। कई हैं जो एक साल के बाद घर का ताला खोलने जा रहें हैं। देवेन्द्र कौर एक साल रोज़ाना खाना पकाती रही। बड़ी संख्या में महिलाओं ने हिस्सा लिया। जो बार्डर पर नही जा सकी उन्होने खेत सम्भाले, और कईयों ने ट्रैक्टर तक चलाए।
उन्हे बदनाम किया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने ख़ुद उन्हे ‘आन्दोलनजीवी’ कह कर मज़ाक़ उड़ाया। रवि शंकर प्रसाद ने ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ के साथ तुलना कर दी तो कोई उन्हे खालिस्तानी कह रहा था तो कोई राष्ट्र विरोधी। नक्सल और गुंडे तक कहा गया। भाजपा की जितनी ट्रौल- आर्मी है वह उनके पीछे लगी थी। प्रधानमंत्री को समझना चाहिए कि इन बेलगाम भक्तों ने उनकी छवि का उनके आलोचकों से अधिक नुक़सान किया है। यह लोग देश में नफरत फैलाना की कोशिश कर रहे है जिससे न केवल समाज का अहित हो रहा है बल्कि विदेश में भी छवि जा रही है कि भारत लगातार अधिक असहिष्णु और विभाजित बनता जा रहा है। अब तो गांधी जी को भी बक्शा नही जा रहा और आज़ादी की लड़ाई को ‘भीख’ कहा जा रहा है। ऐसे व्यक्ति को जब पद्मश्री से सम्मानित किया जाता है तो इंसान सोचने पर मजबूर हो जाता है कि इस सरकार की दिशा क्या है? इरादा क्या है? यह महिला ‘मच्छर की तरह’ किसको कुचलना चाहती है? जब नफरत का माहौल बन जाता है तब ही लखीमपुर खीरी जैसी घटना होती है जहां चार किसान भाजपा नेता की कार के नीचे रौंद दिए गए। 700 के क़रीब किसान इस दौरान मारे गए पर सरकार ने उनके प्रति कोई संवेदना या सहानुभूति नही दिखाई। मनोहर लाल खट्टर तो किसानों के ख़िलाफ़ ‘उठा लो लठ’ का आहवान भी दे चुकें हैं।
किसानों को आशंका थी कि अगर यह क़ानून बन गए तो ख़रीद के लिए सरकारी मदद खत्म हो जाएगी और उन्हे कारपोरेट वर्ग जो बाज़ार को नियंत्रित करेगा, की दया पर छोड़ दिया जाएगा। बड़ी चिन्ता ज़मीन को लेकर है। जैसे पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के प्रमुख अर्थशास्त्री डा. सुखपाल सिंह ने कहा है, “आर्थिकता के अतिरिक्त इन क़ानूनों के समाजिक और सांस्कृतिक उलझाव है। मलकियत के आधार वाली खेती खत्म हो जाती और किसान एक दिहाडीदार मज़दूर बन कर रह जाता”। डा. सुखपाल सिंह की आशंका नीचे तक सुनाई देती है। किसान के लिए ज़मीन बहुत महत्व रखती है जिसके लिए वह मर मिटने को तैयार रहता है। वह किसी भी ऐसे क़ानून को स्वीकार नही करेगा जिससे उसकी मलकियत खतरे में पड़ जाऐ। देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर सीधे या असीधे तौर पर निर्भर है। सरकार ने उनसे पंगा ले लिया।
आगे पाँच प्रदेशों के चुनाव है जिनमें यूपी जीतना भाजपा के लिए बिलकुल लाज़मी है अगर वह 2024 में फिर सरकार बनाना चाहते है। समीक्षक इयान हॉल, जिसने मोदी की विदेश नीति पर किताब लिखी है के अनुसार भाजपा के लिए यूपी जीतने के लिए दूसरे मामलों को शान्त करना जरूरी था। अमित शाह ने भी कहा ही है कि, “ अगर आप 2024 में मोदी को चाहते हो तो 2022 में योगी को सत्ता में वापिस लाओ”। योगी के कंधे पर हाथ रख घूमते मोदी के चित्र द्वारा भी यही संदेश दिया गया है। पंजाब सीमावर्ती प्रांत है जहाँ पाकिस्तान की साजिश का भी हम सामना कर रहें हैं इसलिए इसे शांत करना भी जरूरी था। भाजपा के नेतृत्व और संघ दोनों को यह घबराहट थी कि अगर असंतोष रहा तो खालिस्तानी समर्थकों को शरारत करने के मौक़ा मिल जाएगा। पड़ोसी हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणामों ने भी आँखें खोल दी कि बहुत असंवेदनशील छवि जा रही है इसीलिए तत्काल पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें कम की गईं। बेरोज़गारी बढ़ी है और महंगाई आम आदमी की ज़िन्दगी बेहाल कर रही है। ऐसे में किसान आन्दोलन और बेचैनी फला रहा था। लेकिन असली समस्या यूपी को लेकर है जहाँ इस बार हिन्दुत्व का कार्ड बहुत चल नही रहा चाहे योगी बहुत कोशिश कर रहे है क्योंकि राजनीति का एजेंडा रोज़मर्रा की चीज़ों पर अड़ गया लगता है।
भाजपा किसी भी और प्रदेश की हार बर्दाश्त कर सकती है, उत्तर प्रदेश के सिवाय। विशेष तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहाँ भाजपा ने 2014 और 2019 में शानदार जीत हासिल की थी में हालत सही नही है। भाजपा की यह भी चिन्ता है कि अखिलेश यादव की रैलियों में भारी भीड़ इकटठी हो रही है। 2014 में भाजपा को 71 सीटें, और 2019 में भाजपा और अपना दल(स)को जो 64 सीटें मिली थी, का एक कारण जाट-मुस्लिम के बीच दरार और ध्रुवीकरण था। किसान आन्दोलन के कारण जाट ज़मींदार और मुस्लिम मज़दूर फिर इकटठे हो गए है। वरूण गांधी के मुखर विरोध का भी यही कारण है कि वह अपना वोट सुरक्षित कर रहें हैं। उत्तर प्रदेश के साथ ही उतराखंड है। हवा वहां भी वही बह रही है।
देश को चलाने के लिए केवल संसद में बहुमत ही काफ़ी नही, लोगों को भी साथ लेना पड़ता है। विशेष तौर पर जिन्हें ‘सुधार’ कहा जाता है और जो पुरानी व्यवस्था जो करोड़ों लोगों के जीवन से जुड़ी है को पलटना चाहता है के लिए जन सम्पर्क और नम्रता दिखानी पड़ती है। पर इन तीन क़ानूनों को लागू करते वक़्त सरकार ने यह कोशिश नही की। इसीलिए इसे एकदम किसान आवेश का सामना करना पड़ा। अचानक अध्यादेश जारी कर दिए गए। प्रदेश सरकारों जिन पर इसका असर पड़ना था, या किसान जिनकी ज़िन्दगी बदल जानी थी से सलाह नही की गई, और न ही संसद की कठोर तहक़ीक़ात का ही रास्ता अपनाया गया। राज्य सभा में विपक्ष की आपति को रौंदते हुए ध्वनि मत से पारित किया गया। न ही जाँच के लिए संसद की कमेटी को भेजा गया। ऐसा होता तो विपक्ष भी भागीदार होता पर सब कुछ कठोरता से एकतरफ़ा था जिसका ख़ामियाज़ा अब भाजपा को भुगतना पड़ रहा है। लोकतन्त्र केवल चुनावी जीत हार का मामला ही नही है। जिसे ‘पीपल्स पॉवर’ कहा जाता है उसकी उपेक्षा नही होनी चाहिए। जैसे समाज शास्त्री आशिष नन्दी ने भी कहा है, “ भारतवासी बहुत समय से आज़ादी का आनन्द उठा रहें हैं कि कोई भी शासन रातों रात उन्हे दब्बू नागरिकों में नही बदल सकता चाहे उसका नेता कितना भी करिश्माई क्यों न हो”। संसद में प्रचंड संख्या कई बार अहंकार पैदा कर देती है पर भूलना नही चाहिए कि लोकराय सुप्रीम है।
रूथ पोलार्ड ने ब्लूमबर्ग में लिखा है कि यह ‘7 साल में निश्चित तौर पर सबसे बड़ा राजनीतिक धक्का है’। नरेन्द्र मोदी को चिन्तित होना चाहिए कि उनकी छवि उस वक़्त रईसों के मददगार की बन रही है जिस वक़्त आम आदमी का जीवन कठोर बनता जा रहा है। उनके अंध अनुयायी निश्चित तौर पर निराश होंगे पर मैं समझता हूँ कि माफ़ी माँगते हुए वापिसी का क़दम उठा कर मोदी ने उदारता और नम्रता दिखाई है। वह समझ गए कि और अधिक देर किसान को उतेजित और आन्दोलनरत नही रखा जा सकता। पंजाब के दोबारा अस्थिर होने का भी खतरा था। लोकतन्त्र में अपने लोगों के आगे समर्पण करने से इज़्ज़त कम नही होती। लेकिन खेती में सुधार का सवाल खड़ा का खड़ा रह गया है। अब इस क्षेत्र से थोड़ी भी छेड़खानी करने का जोखिम कोई सरकार नही उठाएगी। लेकिन खेती को आर्थिक तौर पर सक्षम और पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ बनाना जरूरी है। उत्तर भारत में धान उपयुक्त फ़सल नही है इस कारण पानी का स्तर नीचे जा रहा है और कई विशेषज्ञ तो पंजाब के एक दिन रेगिस्तान बनने की चेतावनी दे रहे है। इसके इलावा पराली जलाने का मामला है जो बिलकुल अमान्य होना चाहिए। लेकिन ऐसे बदलाव के लिए धैर्य और सलाह मशविरा चाहिए। खेती को विशेष तवज्जो चाहिए।
प्रधानमंत्री मोदी ने पूरी शिष्टता के साथ अपना क़दम वापिस ले लिया है अब किसानों को भी इसी भावना में इसे स्वीकार करना चाहिए। एक बार देश के प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में वापिसी की घोषणा कर दी तो अविश्वास की कोई गुंजाइश नही रहती। अब छ: मुद्दे उठा लिए गए हैं और धमकी दी जा रही है कि जब तक यह हल नही होते आन्दोलन जारी रहेगा। विशेष तौर पर संसद कूच या ट्रैक्टर मार्च का निर्णय समझ से बाहर है। इससे क्या मिल जाएगा? क्या किसान नेता भूल गए कि 26 जनवरी को लाल क़िले पर क्या हुआ था? और उससे कितनी बदनामी हुई थी? क्या वह पूरी तरह आश्वस्त हैं कि संसद पर कूच के दौरान शरारती तत्व गड़बड़ नहीं करेंगे? क्या वह उतनी भीड़ को सम्भाल सकेंगे? बेहतर होगा कि वह अब जिद्द छोड़ दें। उनकी जीत हो चुकी है अब उन्हे लौट आना चाहिए और शांत माहौल में बैठ कर सरकार के साथ बाकी मसले, एमएसपी समेत, हल करने की बातचीत शुरू करनी चाहिए।