पराग अग्रवाल के ट्वीटर के सीईओ बनने पर देश में दिलचस्प दिलचस्पी है। एक तरफ जहाँ ‘अग्रवालजी का बेटा’ या ‘अग्रवाल ट्वीट भंडार’ या ‘अग्रवाल ट्वीट्स शॉप’ को लेकर स्वस्थ मज़ाक़ हो रहा है वहां बड़ा गर्व है कि हमारे एक और नौजवान ने विश्व मंच पर अपना झंडा गाढ़ दिया है। विशेष तौर पर आईटी के क्षेत्र में भारतीयों का वर्चस्व है जो बात टेस्ला के सीईओ एलन मस्क ने भी स्वीकार की है कि ‘अमेरिका को भारतीय प्रतिभा से बहुत फ़ायदा है’। यह बात शायद अमेरिका में उन लोगों के लिए कही गई जो वहां मिलने वाले H1-B वर्क वीज़ा पर पाबन्दी लगाने या उनकी गिनती कम करने की वकालत करते रहतें हैं। यह हक़ीक़त है कि भारतीय मूल के लोग वहां तकनीकी प्रतिभा का समृद्ध कुंड है। भारतीय-अमरीकी वहां की जनसंख्या का मात्र 1.2 प्रतिशत है पर वहां टैक- संस्थाओं के हब सिलिकॉन वैली में 15.5% कम्पनियों की नींव इस समुदाय के लोगों ने रखी है। पराग अग्रवाल के ट्वीटर के सीईओ बनने से दुनिया को एक बार फिर समझ आगई कि भारतीय समुदाय दुनिया में सबसे प्रतिभाशाली समुदायों में से एक है। भारत में ब्रिटेन के राजदूत एलेक्स इलीस की टिप्पणी है कि, ‘भारत के अपने कई मामले हैं, पर प्रतिभा की कमी इनमें से एक नही है’।
पराग अग्रवाल से पहले भारतीय मुल के सुन्दर पिचाई (गूगल), सत्या नडेला (माइक्रोसॉफ़्ट), शांतनु नारायण (एडोब),अरविंद कृष्णा (आईबीएम), निकेश अरोड़ा (पालो अल्टो नैटवर्कस),जार्ज कुरियन (नैट एप्प) जैसे लोग प्रमुख अमरीकी कम्पनियों के सीईओ बन चुकें है। अनुमान है कि यह सब मिल कर 5 ट्रीलियन डालर के मूल्य वाली कम्पनियों को सम्भालते हैं। बड़ी आईटी कम्पनियों में केवल एप्पल और फ़ेसबुक हैं जो भारतीयों की पकड़ से अभी बाहर हैं। आशा है एक दिन वहां भी बड़ी कुर्सी पर हमारे लोग बैठे होगे ! टैकनॉलिजी के बाहर इंदिरा नूवी (पेप्सीको), अजय बंगा (मास्टर कार्ड) जैसे ने भी वहां शिखर पर रहें हैं, या हैं। मैडिकल, बिसनेस और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी अमरीकी-भारतीय अपनी जगह बना चुकें हैं। नवीनतम गीता गोपीनाथ हैं जो अब अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष पर नम्बर दो पर नियुक्त की गईं है। अंतराष्ट्रीय स्तर पर हमारे लोग उच्च पदों पर पहुँच रहें हैं। ब्रिटेन के मंत्रिमंडल में तीन भारतीय महत्वपूर्ण पदों पर है, प्रीति पटेल गृह मंत्री, ऋषि सुनक वित्तमंत्री, और आलोक शर्मा अंतराष्ट्रीय विकास मंत्री नियुक्त हैं। कैनेडा के ट्रूडो मंत्रीमंडल में भी चार भारतीय हैं।
इन लोगों की कामयाबी के कई पहलू हैं। बड़ी बात तो यह है कि वह जहाँ भी पहुँचे है वह भारतीय संस्कृति और शिक्षा परम्परा के कारण पहुँचे है। शताब्दियों से इस भूमि की मेहनत और शिक्षा की परम्परा है। अब भी हमारी शिक्षा व्यवस्था चाहे हम उसे कितना भी लताड़े, विश्व विजेता पैदा कर रही है। हमारे लोगों को देश के अन्दर विपरीत परिस्थिति ने संघर्ष करना भी सिखा दिया है। सुन्दर पिचाई आई आई टी खडगपुर, सत्या नडेला मनीपॉल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टैंकनालिजी, शांतनु नारायण कालेज ऑफ़ इंजीनियरिंग उसमानिया विश्वविद्यालय, अरविंद कृष्ण आईआईटी कानपुर, निकेश अरोड़ा आईआईटी वाराणसी, पराग अग्रवाल आईआईटी मुम्बई, गीता गोपीनाथ दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़े है। पर इसी में बडी असफलता भी छिपी है कि इन्हें जो वास्तविक सफलता मिली है वह देश के बाहर मिली है। यहाँ हम ऐसी प्रतिभा के खिलने के लिए उपयुक्त वातावरण नही बना सके जिस कारण उन्हे पलायन करना पड़ा। हम अपनी प्रतिभा को सम्भाल नही पा रहे। कड़वी हक़ीक़त है कि जो विदेश में बस जाता है वह वापिस लौटना नही चाहता। हर साल 20000 छात्र पंजाब से विदेश भाग जाते हैं। जब उन्हे विदेशी वीज़ा लग जाता है तो मिठाई बाँटी जाती है। इससे बड़ा देश का दुर्भाग्य क्या हो सकता है?
विदेश में बसे इंडिया का अपने देश के साथ गहरा भावनात्मक रिश्ता है। अमेरिका में नरेन्द्र मोदी की रैलियों में भारतीयों की भीड़ या ब्रिटेन में क्रिकेट मैच के दौरान भारतीय टीम का भारी समर्थन, सब यही दिखलाता है कि वह अपनी भूमि से जुड़े हुए हैं। सारे त्यौहार धूमधाम और पूर्ण श्रध्दा के साथ मनाए जाते है। अगली पीढ़ी जिसका जन्म वहां हुआ है उसमें निश्चित तौर पर परिवर्तन आएगा पर जो यहाँ से वहां गए है वह अन्दर से अभी भी राजमा-चावल, आलू का पराँठा, इडली- दोसा खाने वालें देसी हैं। बालीवुड भी सबको जोड़ता है। पर वह किसी भी कीमत पर वापिस नही लौटना चाहते। शिकायत है कि यहां ‘क्वालिटी ऑफ़ लाईफ़’ कमजोर है। दस-पन्द्रह वर्ष पहले एक समय अवश्य आया था कि बाहर बसे अपने लोग वापिस आने की सोचने लगे थे। यह अब रूक ही नही गया बल्कि पलायन तेज़ हो गया है। बड़ा कारण है कि यहां वह ‘मौका’ नही मिलता जो विशेष तौर पर अमेरिका में उपलब्ध है। वहां केवल प्रतिभा का सम्मान किया जाता है। यहाँ बहुत समस्या है। भ्रष्टाचार बहुत है और अब तो राजनीतिक दखल बहुत बढ़ गई है। यहाँ उदारता और सहनशीलता खत्म हो रही है जो विदेशों में रह रहे आजाद ख़यालात वाले हमारे लोग पसन्द नही करते। बाहर रह रहे लोगों को खाने पीने की, अपने मुताबिक़ कपड़े पहनने की, आजाद विचार रखने, की आदत पड़ गई है। भारत तंगदिल बनता जा रहा है। अबू धाबी या दुबई जैसे मुस्लिम देशों में विदेशी औरतें शार्टे और बनियान में जॉगिंग करती नजर औऐंगी। देर शाम महिलाएँ अकेली घूमती नजर आती है पर मजाल है कि कोई टिप्पणी भी कर दे। भारत मे तो हम कल्पना भी नही कर सकते कि देर रात तक कोई लड़की अकेली मैट्रो पर सफ़र कर सके। लेकिन बाहर यह सामान्य है। राजधानी दिल्ली के प्रदूषण से भी बहुत ग़लत तस्वीर बाहर गई है।
यह न केवल ‘ब्रेन ड्रेन’ है यह इकनामिक और सोशल ड्रेन भी है। हमारे बच्चों के पैसे से कैनेडा और आस्ट्रेलिया के कई विश्वविद्यालय चलते है। अरबों डालर बाहर जातें हैं। दूसरी तरफ असंख्य घर है जहाँ केवल माँ बाप रह गए है क्योंकि बच्चे भविष्य बनाने के लिए निकल गए है। जो समाजिक व्यवस्था संयुक्त परिवार पर आधारित थी उसके लिए यह बहुत बड़ा चैलेंज बनता जा रहा है। पर यह हकीकत है कि देश का युवा वर्ग पलायन करना चाहता है। कई मां बाप भी प्रेरित करतें हैं कि बाहर निकल जाओ, कमाओ और घर भेजो। वापिस आने की चिन्ता मत करो। गुलज़ार ने कहा है कि ‘हिन्दोस्तान में दो दो हिन्दोस्तान दिखाई देते हैं’। इस बात से तो हम सबका रोज़ वास्ता पड़ता है पर अब तो दो इंडिया से भी सामना करना पड़ रहा है। जो इंडिया से बाहर इंडिया है वह लौटना नही चाहता। वह भारत आते जाते हैं पर बसने के बारे नही सोचते। हाल के कुछ वर्षों में जिस तरह प्रतिभाशाली और उच्च शिक्षा ग्रहण युवाओं के स्टार्ट-अप को यहाँ बम्पर सफलता मिली है उससे उम्मीद पैदा होती है पर ऐसे युवाओं की संख्या बहुत अधिक नही। अपने प्रतिभा के कुंड को सम्भालने और उसका पूरा लाभ उठाने में हम कामयाब नही रहे।
पर दूसरे अवश्य यह लाभ उठा रहे हैं। यूएई में भारतीय समुदाय को आदर्श समुदाय समझा जाता है। वहां की एक करोड़ की जनसंख्या का लगभग 30 प्रतिशत भारतीय हैं। प्रोफैशनल से लेकर टैक्सी ड्राईवर और लेबर तक के लिए भारतीयों को पसंद किया जाता है। दुबई के बारे तो कहा जाता है कि इसे चलाते ही भारतीय हैं। पाकिस्तानी भी हैं पर पाकिस्तान में पनप रहे उग्रवाद के कारण खाड़ी और मध्यपूर्व के देश उन्हे पसंद नही करते। कई देशों ने तो पाकिस्तानी प्रवेश पर चुपचाप पाबंदी लगा रखी है। यूएई में भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों का भी बहुत प्रभाव है। जो उस समय वहां गए थे जब वह देश विकसित नही थे पर वहां जम गए, उन्होने बहुत तरक़्क़ी की है। केरल से गए लूलू परिवार के वहां कई विशाल स्टोर हैं। यूएई भी बदला है। समझ गए कि उन्हे बाहरी प्रतिभा की ज़रूरत है इसलिए सख़्त इस्लामी क़ानूनों को एक तरफ रख दिया गया है। अगर आप अच्छे नागरिक की तरह रहते हो तो आपके दैनिक जीवन में कोई सरकारी दखल नही। अबूधाबी में शादी और तलाक़ के क़ानून शरिया पर आधारित थे पर अब बदलाव करते हुए ग़ैर मुसलमानों को शादी और तलाक़ की आज़ादी दे दी गई है। बदलाव इतना किया है कि अविवाहित जोड़ो को एक साथ करने की इजाज़त मिल गई है। 21 साल से अधिक शराब ख़रीद सकते है, रख सकतें है और सेवन कर सकते हैं। अब तो साउदी अरब भी बदलने की कोशिश कर रहा है। उन्हे भी समझ आगई है कि तेल बहुत देर तक नही चलेगा इसलिए दुबई का उदारवादी माडल अपनाने की धीरे धीरे कोशिश हो रही है। लेकिन असली सफलता की कहानी यूएई है। 1960 से पहले यह मात्र रेगिस्तान था आज दुबई को दुनिया के सबसे आकर्षक शहरों में गिना जा रहा है। उदारवादी नीतियों और दूरदर्शी नेतृत्व ने रेगिस्तान में चमत्कार कर दिया है। अब तो विदेशों पर निर्भरता कम करने के लिए आलू और टमाटर उगाने का प्रयास हो रहा है नही तो किसी भी स्टोर में चले जाए तो लिखा मिलेगा कि फ़लाँ फल इंडिया से, फ़लाँ चीन या स्पेन या आस्ट्रेलिया या श्रीलंका या अमेरिका या दक्षिण अफ़्रीका से मँगवाया गया है। यूएई की अपार सफलता में हमारे लोगों का भी बहुत हाथ है इसीलिए वह वहां सबसे पसन्द प्रवासी समुदाय हैं। हम अपने काम से काम रखतें हैं, शरीफ़ लोग हैं, क़ानून का पालन करते है और कभी भी क्लेश खड़ा नही करते। आदर्श नागरिक हैं। दुख यह है कि जब यह सज्जन स्वदेश लौटते हैं तो वापिस अपने अनुशासनहीन उद्दंड अवतार में लौट आते है। यह हवाई अड्डे से ही शुरू हो जाता है। दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आजकल जो अराजक दृश्य देखने को मिल रहे हैं, वह इसका प्रमाण हैं।