इस महीने हम स्वर्णिम विजय दिवस मना रहें हैं जब 16 दिसम्बर 1971 को उस वक़्त के पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान की सेना ने समर्पण कर दिया था और एक आजाद बांग्लादेश का उदय हुआ था। डा.कर्ण सिंह जो तब मंत्रिमंडल के सदस्य थे बताते हैं कि ‘प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक प्रकार से भागती सदन में पहुँची थी…उनके पहुँचते ही सदन ख़ामोश पड़ गया। वह अपनी सीट पर खड़ी हो कर बोली, मिस्टर स्पीकर, ढाका ने भारतीय सेना और मुक्ति बाहनी के आगे समर्पण कर दिया है। सदन जश्न में फूट पड़ा’। जश्न तो बनता ही था। एक झटके में भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए और दो राष्ट्र की अवधारणा को समाप्त कर दिया और इसके साथ ही चीन के हाथ 1962 की पराजय को काफ़ी हद तक धो दिया। 16 दिसम्बर 1971 को ढाका के रम्मना रेस कोर्स में 16.31 मिनट पर भारत के पूर्वी कमान के लै.जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने समर्पण के दस्तावेज़ पर लै. जनरल नियाज़ी द्वारा दस्तखत करना आजाद भारत का वह एतिहासिक क्षण था जो 50 वर्ष के बाद भी वैसे ही हमें गौरवान्वित कर रहा है। प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी का यह सबसे सुनहरा क्षण था।
पाकिस्तान बनने के कुछ महीने बाद ही उनके नेतृत्व ने उसकी नींव डाल दी जो 24 वर्ष के बाद बांग्लादेश के रूप में हमारे सामने आया। अपनी एकमात्र पूर्वी पाकिस्तान की यात्रा पर जिन्नाह 24 मार्च 1948 ढाका पहुँचे थे। वहां के लोग रोजगार, शिक्षा, कमाई आदि के मामले में बहुत पिछड़े थे पर सांस्कृतिक तौर पर किसी से कम नही थे। विशेष तौर पर अपनी बांग्ला भाषा पर उन्हे नाज था पर अपने घमंड में पाकिस्तान के शासक उन्हे बराबर इज़्ज़त देने को तैयार नही थे। उस शाम ढाका विश्व विद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए जिन्नाह ने स्पष्ट घोषणा कर दी कि ‘उर्दू, और केवल उर्दू’ ही पाकिस्तान की सरकारी भाषा होगी। अर्थात बांग्ला को कोई जगह नही मिलेगी। उसी वक़्त सभागार से ‘नो’, ‘नो’ की आवाज़ें उठने लग पड़ी थीं। उसके बाद आपसी अविश्वास बढ़ता गया। 1970 के नैशनल एसैम्बली के चुनाव में शेख़ मुजीबुर्रहमान की आवामी लीग को 313 में से 167 सीटें मिली थी पर ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के दबाव में उनकी सरकार नही बनने दी गई। पूर्वी पाकिस्तान मे भारी विरोध शुरू हो गया जिसका जवाब पाकिस्तान के शासक याहिया खान द्वारा 25 मार्च 1971 को शुरू किए गए ‘आपरेशन सर्चलाइट’ के नरसंहार से दिया गया। ढाका विश्वविद्यालय में ही हज़ारों मारे गए। अगले ही दिन 26 मार्च को अपनी गिरफ़्तारी से पहले शेख़ मुजीबुर्रहमान ने आजाद बांग्लादेश की घोषणा कर दी।
यह विजय हमारी सेना और मुक्ति बाहिनी का गौरवमय क्षण था। हम सौभाग्यशाली थे कि उस वक़्त हमारे पास उत्कृष्ट अफ़सर मौजूद थे। फ़ील्ड मार्शल मानेकशॉ, लै.जनरल अरोड़ा, लै.जनरल सगत सिंह, मे.जनरल जेकब और दूसरे अफ़सरों ने बढ़िया ढंग से तैयार और क्रियांवित किए गए अभियान से इतिहास रच दिया। शुरू में कुछ ध्यान पश्चिमी मोर्चे पर था पर जब भारतीय सेना मेघना नदी पार कर गई और 9-11 दिसम्बर को पहले हवाई हमले शुरू हो गए तो एक सप्ताह के अन्दर ढाका का पतन हो गया। जहाँ थलसेना को बहुत श्रेय जाता है वहां यह नही भूलना चाहिए कि यह विजय तीनों सेनाओं के बीच समन्वय का भी परिणाम था। नौसेना अध्यक्ष एडमिरल नंदा और वायुसेना अध्यक्ष पी सी लाल को भी श्रेय जाता है। 4 दिसम्बर को नौसेना ने कराची बंदरगाह पर हमला किया था जिस कारण उनके जहाज़ कुछ डूब गए तो कुछ निकल नही पाए। लेकिन इन सब से उपर वह नाम आएगा जो इस महान विजय की शिल्पकार थीं और जिन्हें भावुक अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘दुर्गा’ कहा था, इंदिरा गांधी। उन्होने न केवल सैनिक बल्कि कूटनीतिक और राजनीतिक लड़ाई भी लड़ी थी और जीती थी।
यह दुख की बात है कि स्वर्णिम विजय दिवस मनाते वक़्त आज की सरकार ने इस विजय में इंदिरा गांधी के योगदान को बिलकुल नजरंदाज कर दिया। इतनी प्रबल चुनौती का सामना प्रबल नेतृत्व ही कर सकता था। डा.कर्ण सिंह ने कहा है, “यह इंदिरा गांधी का मज़बूत नेतृत्व था जिसने एक हज़ार साल के बाद हमें विजय दिलवाई थी”। इंदिरा गांधी का नेतृत्व किस क़दर निर्णायक था यह उनके पिता जवाहरलाल नेहरू से तुलना से पता चलता है। नेहरूजी आदर्शवादी थे इसलिए चीन से मार खा गए इंदिरा गांधी व्यवहारिक थी। शुरू में वह अवश्य कुछ हिचकिचाई थी पर जब स्थिति स्पष्ट हो गई तो दुष्मन के अन्दर छुरा घोंपने से बिलकुल हिचकिचाई नही। इतिहासकार रामचन्द्र गुहा लिखतें हैं, “एक सैनिक शासक के तौर पर इंदिरा गांधी कहीं श्रेष्ठ थी। बांग्लादेश के संकट के समय उनके निर्णायक कदम चीन से निबटने में नेहरू के हिचकिचाहट वाले रवैये से उलट थे”। प्रसिद्ध बांग्लादेशी लेखक हरून हबीब ने लिखा है, “बांग्लादेश की आज़ादी में इंदिरा गांधी का राजनीतिक और निजी योगदान देश के इतिहास से जुड़ा हुआ है”। 1971 का भारत आज का भारत नही था। आज हमारी आवाज़ का महत्व है पर 1971 में हम इतने प्रभावशाली नही थे इसलिए उस वक़्त की सरकार को इस संकट से निबटने के लिए पूरी राजनीतिक और कूटनीतिक क्षमता झोकनी पड़ी थी। 21 दिन की लम्बी यात्रा के दौरान इंदिरा गांधी ने अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस और इंग्लैंड के नेतृत्व को पूर्वी पाकिस्तान की शोचनीय स्थिति समझाने का प्रयास किया था। अमेरिका और चीन के पाकिस्तान को समर्थन का जवाब देने के लिए सोवियत यूनियन के साथ संधि की गई। पाकिस्तान के दमन के कारण मई 1971 के अंत तक भारत में 1 करोड़ शरणार्थी आचुके थे। इंदिरा गांधी ने पहले शरणार्थियों की वापिसी के लिए अंतराष्ट्रीय सहायता और सहयोग का प्रयास किया था पर निराश होने पर यह फ़ैसला कर लिया था कि इनकी वापिसी के लिए बांग्लादेश को आजाद करवाना पड़ेगा।
जिस तरह इंदिरा गांधी राष्ट्रपति निक्सन के अमेरिका से निपटी वह उनकी दृढता का परिचय देता है। निक्सन भारत और इंदिरा गांधी दोनों से नफरत करता था। इंदिरा गांधी भी इस शख़्स को बिलकुल नापसंद करती थी। राष्ट्रपति बनने से पहले निक्सन भारत आया था तो बताया जाता है कि एक मुलाक़ात के दौरान इंदिरा गांधी ने एक सहायक से हिन्दी में पूछा था, ‘ मुझे इस बंदे के साथ कितना और बोलना है?’ अगस्त 1969 में फिर निक्सन भारत आया था। अब वह राष्ट्रपति था इसलिए उसे महत्व तो देना पड़ा था पर चार अमरीकी राष्ट्रपति के उच्च सलाहकार रहे ब्रूस रीडल ने अपनी किताब में लिखा है कि ‘श्रीमती गांधी के साथ निक्सन की बैठक तनावपूर्ण और असुखद रही। दोनों की एक दूसरे के प्रति नफरत स्पष्ट थी’। निक्सन और उसके विदेश मंत्री हैनरी किसिंजर का पूरा झुकाव पाकिस्तान की तरफ था। वह बिलकुल नही चाहते थे कि भारत का प्रयास सफल रहे यहाँ तक कि उन्होने हमे दबाने के लिए अपना 7वां बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेज दिया था। निक्सन को मनाने के लिए इंदिरा गांधी ने वाशिंगटन का दौरा किया था पर दोनों अपनी जगह अड़े रहे और सम्बन्ध और बिगड़ गए। आपसी कटुता कितनी थी यह निक्सन और किसिंजर के बीच इस वार्तालाप से पता चलता है जो मैं अंग्रेज़ी में दे रहा हूँ क्योंकि अनुवाद से इसकी अभद्रता कम हो जाएगी। निक्सन कहता है, “ Indians are bastards anyway. Pakistan thing makes your heart sick. For them to be done so by the Indians and after we had warned that bitch.” निक्सन का इंदिरा गांधी के बारे कहना था कि ‘क्या हम उस कमबख़्त महिला’ के प्रति अधिक उदार रहे?’ फिर, ‘It seems to have been a mistake to have slobbered over the old witch’. लेकिन इंदिरा गांधी को भी अहसास था कि वह एक स्वाभिमानी देश और प्राचीन सभ्यता की प्रतिनिधि हैं इसलिए झुकने से इंकार कर दिया। अमेरिका का अंदाज़ा कितना ग़लत था वह किसिंजर की इस टिप्पणी से पता चलता है कि ‘भारतीय पायलेट इतने बुरे हैं कि उनके जहाज़ तो ज़मीन से भी नही उठेंगे’। और हमने कमाल की रणनीति दिखाते हुए अमेरिका की नाक के ठीक नीचे बांग्लादेश बनवा दिया।
यह सवाल मन में ज़रूर उठता है कि क्या उस वक़्त इंदिराजी कश्मीर का अंतिम समाधान करवाने से चूक गई? आख़िर पाकिस्तान पूरी तरह से पराजित था। पूर्वी हिस्से में उनकी सेना समर्पण कर चुकी थी। उनके 93000 सैनिक हमारे पास थे। क्या शिमला समझौता करते वक़्त इंदिराजी भुट्टो के प्रति ज़रूरत से अधिक दयालु रही? क्या युद्ध जीतने के बाद हम शांति हार गए थे? पूर्व राजदूत चन्द्रशेखर दासगुप्ता जिन्होंने बांग्लादेश के जन्म पर हाल ही में किताब लिखी है का मानना है कि यह आलोचना ग़लत है। उनका कहना है कि, ‘युद्ध के मुख्य उद्देश्य का कश्मीर से कुछ लेना देना नही था। हम आजाद बांग्लादेश की तेज़ी से स्थापना चाहते थे’। लेकिन उस वक़्त के दस्तावेज़ बताते हे कि भारतीय पक्ष सभी विवादों, कश्मीर समेत, के हल के लिए बृहद् संधि चाहता था जबकि पाकिस्तानी एक एक कदम उठाना चाहते थे। इंदिरा गांधी के साथ निजी मुलाक़ात में भुट्टो ने अपनी मजबूरी ज़ाहिर की थी कि ‘मैं ख़ाली हाथ वापिस नही जा सकता’। इंदिरा गांधी को भी विश्व राय और अमेरिका और चीन के बढ़ते दबाव की चिन्ता थी। इसलिए पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का लक्ष्य पूरा होने के बाद उस शिमला समझौते पर हस्ताक्षर कर लिए गए जिस में केवल नियंत्रण रेखा बनाए रखने की बात लिखी गई थी। रामचन्द्र गुहा लिखतें हैं, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि भुट्टो ने श्रीमती गांधी को यह आश्वासन दिया था कि एक बार उनकी स्थिति मज़बूत हो जाए तो वह अपने लोगों को नियंत्रण रेखा को अंतराष्ट्रीय सीमा में परिवर्तित करने के लिए मना लेंगें..लेकिन शिमला समझौते की स्याही भी नही सूखी थी कि भुट्टो अपने वायदे से मुकर गए’।
तो क्या युद्ध जीतने के बाद इंदिरा गांधी शान्ति नही जीत सकी? इस पर दो राय रहेंगी। पर वह पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का बुनियादी लक्ष्य पूरा कर गई। भारत के इतिहास में उनका नाम सदा इज़्ज़त से लिया जाएगा, आज के शासक उन्हे याद करें या न करें।