
उन तस्वीरों को भूलना मुश्किल है। यह वह तस्वीरें हैं जो देश की आत्मा को झुलसाने वाली थीं। कहीं चिताएँ जल रहीं थी तो कहीं अस्पतालों के आगे एमबूलैंस की क़तार खड़ी थी तो कहीं कोरोना के मरीज़ों के घरवाले डाक्टरों से गिड़गिड़ा रहे थे कि मरीज को दाख़िल कर लें। एक एक आक्सिजन के सिलैंडर के लिए लोग तड़प रहे थे। शमशानों के आगे लाईने लगी थी। एक दम लॉकडाउन के कारण कई कई दिन पैदल गाँव के लिए चलते बेरोज़गार हुए प्रवासियों के चित्र भी देखे। बेबसी और आशाहीनता की स्थिति थी। पराकाष्ठा तो तब हुई जब गंगा में शव बहते नजर आए। कम से कम मैंने अपनी ज़िन्दगी में ऐसे दृश्य कभी नही देखे। कुछ दिनों मे ही जिनके परिवारजन चले गए उन पर तो पहाड़ गिर गया। कई सौ बच्चे अनाथ हो गए, इनका क्या होगा? और इस भयानक समय में व्यवस्था बिलकुल ग़ायब थी, जैसे कि ज़िम्मेवारी ही त्याग दी हो। जब लोग अपने मरीज़ों के साथ अस्पताल से अस्पताल भटक रहे थे तो कोई मदद के लिए आगे नही आया। केवल सोनू सूद जैसे कुछ स्वयं सेवी मदद के लिए आगे आए।
पर यह काला समय था जिसका पारिवारिक, समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असर बहुत देर तक देखा जाएगा। कोरोना ने दूरियाँ बढ़ा दी। बशीर बद्र ने शिकायत की थी, ‘ कोई हाथ भी न मिलाएगा…यह नए मिज़ाज का शहर है’। करोड़ों बेरोज़गार हो गए। करोड़ों ही छोटे धंधे बंद हो गए। चारों तरफ तबाही का मंज़र था। आज भी शहरों में बेरोज़गारी की दर 9.09 प्रतिशत है तो गाँवों की 7.48 प्रतिशत। यह भी असली तस्वीर नही बताते। असंख्य बच्चे प्राईवेट से सरकारी स्कूलों में चले गए। असंख्य ही स्कूलों से निकाल लिए गए क्योंकि उन्हे माँ बाप के साथ मिल कर रोज़ी रोटी के लिए पैसे कमाने है। महँगाई का सरकारी आँकड़ा 14.23 प्रतिशत है। पेट्रोल, डीज़ल और एलपीजी की क़ीमतों में भारी वृद्धि ने भी जनता की पीठ तोड़ दी। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार भूख के मामले में 116 देशों में भारत 101 है। इसके अनुसार ‘भारत में भूख का स्तर गम्भीर है’। बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों हमसे बेहतर स्थिति में हैं। विकास हुआ, पर गया कहाँ अगर भूख और कुपोषण बढ़ा है? देश की कुल आमदन का 57 प्रतिशत हिस्सा 10 प्रतिशत का पास है जबकि 27 करोड़ लोग जो ग़रीबी की रेखा से उपर आगए थे अब वापिस नीचे चले गए है। और यह देश भी है जहाँ इत्र व्यापारी के घर से 200 करोड़ रूपया बरामद हो चुका है। देश में ग़ैर बराबरी डरावनी बनती जा रही है। पिछले साल लॉकडाउन के दौरान हमारे अरबपतियों की दौलत में 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी।
वर्ष के अंत तक पहुँचते यह संतोषजनक समाचार है कि यहाँ 1.41 करोड़ टीका लग चुका है और 57.55 करोड़ लोगों को दो टीके लग चुकें हैं। लगता है कि झटके के बाद सरकार जागी है। लेकिन अब फिर ओमिक्रॉन के फैलने की चिन्ता है पर सरकार इस बार तैयार लगती है। सरकार को एक और धक्का किसानों ने पहुँचाया जिनकी एकता और क़ुरबानी के जज़्बे के आगे अजय समझे जानी वाली मोदी सरकार को झुकना पड़ा और तीन विवादित कृषि क़ानून वापिस लेने पड़े। मोदी सरकार के आगे धर्म संकट था। या क़ानून वापिस या यूपी के चुनाव में पराजय। सरकार के लिए सबक़ है कि जो परिवर्तन करोड़ों को प्रभावित करतें हो वह ज़बरदस्ती धकेले नही जा सकते। मोदी सरकार को सफलता पूर्वक चुनौती दे कर यह किसान जत्थेबंदियां वह कर गईं जो विपक्ष भी नही कर सका। यूपी में जाट और मुसलमान इकटठे हो गए तो पंजाब और हरियाणा के किसानों में पहली बार ऐसी एकता देखी गई। इस आन्दोलन की कामयाबी यह भी बता गई कि ग़ैर-राजनीतिक और ग़ैर-साम्प्रदायिक मामलों से निबटना भाजपा को नही आता। लखीमपुर की घटना जहाँ मंत्री के पुत्र नें किसानों को गाड़ी से रौंद दिया बताता है कि ताकत का ग़रूर कहाँ तक पहुँच गया है। लेकिन मंत्री महोदय अभी तक बने हुए हैं। पर किसानों को भी समझना चाहिए कि बार बार सड़क और रेल यातायात रोक कर जैसे पंजाब में हो रहा है, वह सहानुभूति खो रहे है और पंजाब के लिए और मुसीबत खड़ी कर रहें हैं। और चुनाव के अखाड़े में कूदना बहुत बुरा विचार है। एकता बिखर जाएगी और विरोधियों को कहने का मौक़ा मिल गया कि सब कुछ राजनीतिक था।
लखीमपुर खीरी की घटना बताती है कि देश में किस तरह असहनशीलता बढ़ रही है। लोग क़ानून अपने हाथ में लेने लगे हैं। बर्दाश्त कम हो रही है। पंजाब में बेअदबी की घटनाओं के बाद दो व्यक्तियों को पीट पीट कर मार डाला गया। लोगों में नाराज़गी जायज़ है पर क्या बेहतर न होता कि दोनों को मारने की जगह उन्हे पुलिस के हवाले कर दिया जाता? कपूरथला में तो बेअदबी भी नही हुई लड़का मंद बुद्धि वाला लगता था। और जहाँ तक दरबार साहिब में हुई बेअदबी का सवाल है अब तो मालूम ही नही पड़ेगा कि क्या वह अकेला था या पीछे कोई साजिश थी? इससे पहले सिंघू बार्डर पर एक व्यक्ति के हाथ पैर काट कर लटका दिया गया। यह तो तालिबानी न्याय है। पाकिस्तान की घटना याद आती है जहाँ ईशनिन्दा के शक में एक कारख़ाने के श्रीलंका के नागरिक मैनेजर की पीट पीट कर हत्या कर दी गई और शव को सरेआम जला दिया गया और लोग अपने अपने फोन पर मज़े से तस्वीरें खींच रहें थे। गुरु ग्राम में सड़क पर नमाज़ का विरोध कर रहे कुछ संगठनों के लोगों ने जयश्रीराम के नारे लगाते हुए इसे रोक दिया। मैं भी सहमत हूँ कि सड़क पर नमाज़ नही होनी चाहिए पर इसे नियंत्रित करने का काम सरकार का है धर्म के कथित ठेकेदारों का नही। पर क्योंकि सरकारें ख़ामोश रहता है इसलिए ऐसी घटनाऐं बढ़ती जा रही है जो देश की भावनात्मक एकता को कमजोर कर रही हैं। भीड़ तंत्र हावी हो रहा है। नफरत फैलाई जा रही है। हरिद्वार के कथित धर्म संसद में मुसलमानो के ख़िलाफ़ ‘सफ़ाई अभियान’ चलाने का आह्वान किया गया और सीधा शस्त्र उठाने की बात कही गई। क्या गृहयुद्ध शुरू करना है?
इस कथित धर्म संसद को लेकर दुनिया भर में हमारी बदनामी हो रही है पर दुख है कि इनके ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्रवाई नही हुई। जो सरकार पत्रकारों और कॉमीडियन के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला दर्ज करती रही है इस द्रोह के ख़िलाफ़ ख़ामोश है। कट्टरवाद हावी हो रहा है। गोडसे को सम्मानित बनाने का लगातार प्रयास हो रहा है। फहमीदा रिआज़ जो जिया उल हक़ के समय पाकिस्तान से भाग कर भारत आगईं थी जल्द समझ गई कि जिस भारत की वह इज़्ज़त करती थी, वह भी बदल रहा है। उन्होने एक नज़्म लिखी थी, ‘तुम भी बिलकुल हम जैसे निकले’! हम क्यों पाकिस्तान के विनाशकारी रास्ते पर निकले हुए हैं? क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐसा देश छोड़ कर जाना चाहतें हैं जहाँ ‘उसके’ प्रति अविश्वास हो? हिंसा का जानवर हर समाज में मौजूद रहता है। डानल्ड ट्रंप ने इसे बेलगाम कर दिया था और उनकी संसद पर हमला हो गया। हमे इस जानवर को नियंत्रण में रखना है क्योंकि इस देश में हिंसा और कलह की बहुत गुंजाइश है। दुख की बात यह भी है कि संसद भी अपनी ज़िम्मेवारी निभाने में नाकामयाब है। हुल्लड़बाजी हावी होती जा रही है। पूरी तरह स्तर गिर गया है। यहां तो जया बच्चन जैसी वरिष्ठ सांसद अपने विरोधियों को श्राप दे रही थी ! संसद सही ढंग से चलाने की ज़िम्मेवारी प्रधानमंत्री मोदी और सरकार की है पर विपक्ष भी ग़ैर ज़िम्मेवार नही हो सकता। जिस तरह वैल में आकर विपक्ष नारेबाज़ी करता है वह बिलकुल सही नही। डेरेक ओ ब्रायन ने तो चेयर पर रूल बुक दे मारी थी। संसद का सही काम न करना लोकतन्त्र की सेहत के लिए बड़ा खतरा है। सार्वजनिक जीवन से शालीनता खत्म हो जाना बहुत चिन्ताजनक है।
इस साल हमने एक हेलीकाप्टर हादसे में सीडीएस जनरल बिपिन रावत को खो दिया। वह सेना के आधुनिककरण को सुपरवाइज़ कर रहे थे। जिस समय भारत को दो तरफ से चुनौती मिल रही है जनरल रावत की कमी बहुत महसूस की जाएगी। उनके और उनकी पत्नि की दुखद मौत के बाद जिस तरह उनकी बेटियों ने मुखाग्नि दी वह समाजिक क्रान्ति की शुरूआत हो सकती है कि बेटी बराबर है। यह वह साल भी था जब टोक्यो ओलम्पिक में एक प्रकार से हवा में उड़ते हुए नीरज चोपड़ा ने एथलैटिकस में पहला गोल्ड मैडल जीत लिया था। जो भी खिलाड़ी मैडल ले कर लौटे सब आर्थिक तौर पर मध्यम या कमजोर परिवारों के सदस्य है। नीरज चोपड़ा हरियाणवी है या पंजाबी है, या बंगाली है या तमिल है? क्या किसी ने तब कोई ऐसा सवाल किया था? इतना ही काफी है कि एक भारतीय खिलाड़ी जीत गया। इसी प्रकार क्रिकेट में टी-20 में हार सारे देश ने महसूस की। विराट कोहली से दो कप्तानियां छीन ली गई हैं। क्या यह कोहली काल के अंत की शुरूआत है? दक्षिण अफ़्रीका में प्रदर्शन इसका फ़ैसला करेगा। ममता बैनर्जी ने पश्चिम बंगाल से भाजपा को उखाड़ दिया और अब वह विपक्ष का नेता बनना चाहती हैं। अर्थात ममता बनाम राहुल होने वाला है जिससे नरेन्द्र मोदी ज़रूर ख़ुश होंगे।
ओमिक्रान की आहट के बीच पाबन्दियाँ लगाई जा रही है पर नेताओं की रैलियाँ बिना हिचक के, बिना मास्क के, चल रहीं है। हम सीधे नही होंगे। बहुत जल्द हम अप्रेल-मई का सबक़ भूल गए। बहरहाल एक अत्यन्त बुरा साल खत्म होने जा रहा है। इस आशा के साथ कि नया साल बेहतर होगा मैं अटल बिहारी वाजपेयी के यह शब्द याद करना चाहता हूँ, “सत्ता का खेल चलेगा, सरकारें आएँगी, जाएँगी। पार्टियाँ बनेगी, बिगड़ेंगीं। मगर देश रहना चाहिए, इसका लोकतन्त्र रहना चाहिए’। हाल ही में हम अटलजी का जन्मदिवस जोर शोर से मना कर हटें हैं, पर क्या हम उनकी बात भी सुनेंगे ?