भारत कभी भी सबके लिए बराबर का देश नही रहा। असमानता यहाँ स्थाई है। हमारे राजा महाराजा प्रजा को लूटते रहे और ख़ुद विलास की ज़िन्दगी व्यतीत करते रहे। अंग्रेज़ों ने तो बाक़ायदा एक विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग स्थापित कर दिया और उन्हे ‘सर’, ‘रायबहादुर’, ‘रायज़ादा’ जैसे ख़िताबों से नवाज़ा गया। आज़ादी के बाद आशा बढ़ी की यह ग़ैर बराबरी अगर खत्म नही होती तो कम तो हो जाएगी। हमारे संविधान का ‘प्रीएम्बल’ अर्थात प्रस्तावना जहाँ ‘समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक नयाय’ पर जोर देता है,वहां ‘अवसर की समता’ का संकल्प भी व्यक्त करता है। 1976 मे एमरजैंसी के दौरान इस में भारत को ‘समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बनाने का भी वायदा जोड़ा गया। ‘समाजवाद’ जोड़ने का भी यही मक़सद था कि यहाँ सबको बराबरी का अवसर मिलेगा। पर अब जबकि हम एक और गणतन्त्र दिवस से गुज़र के हटें है, कड़वी सच्चाई है कि समाजवाद को एकतरफ़ फेंकते हुए हम पूरी तरह से पूँजीवादी देश बन रहे है और कम होने की जगह यहाँ असमानता बढ़ी ही नही जम गई है। वैसे तो समाजवाद अपने मक्का मास्को और बीजिंग में भी दफ़ना दिया गया है, पर भारत में ऐसा करने से बहुत बड़ी संख्या बहुत बड़ी कीमत चुका रही है। ज़रा नज़र दौड़ाएँ :
* गैर सरकारी संगठन ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल में जब आम भारतीयों को रोजगार का संकट था और 84 प्रतिशत परिवारों की आय में भारी गिरावट आई थी और कईयों पर तो दो वक़्त की रोटी की परेशानी थी, देश में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई। 2017 में देश के टॉप 1 प्रतिशत के पास देश की दौलत का 73 प्रतिशत था। तब से लेकर अब तक स्थिति और ख़राब हुई है।
*देश के सबसे अमीर 98 लोगों के पास 55.5 करोड़ उनके ग़रीब देशवासियों के बराबर दौलत है जो 49 लाख करोड रूपए बनती है। इन 98 लोगों की दौलत भारत सरकार के बजट का 41 प्रतिशत है।
*पीइडब्लयू की रिसर्च के अनुसार पिछले साल देश के मिडल क्लास की संख्या 3.2 करोड़ कम हुई है पर देश के सुपर रिच के लिए यह महामारी तो छीकां टूटा से कम नही क्योंकि लॉकडाउन की अवधि में उनकी दौलत 35 प्रतिशत बढ़ी है।
*विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार यहाँ अमीरों और ग़रीबों के बीच फ़ासला बढ़ा है और उपर के 10 प्रतिशत के पास राष्ट्रीय आय का 57 प्रतिशत है और निचले 50 प्रतिशत के पास इसका केवल 13 प्रतिशत है।
* अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के अनुसार 2020 में और 7.5 करोड़ लोग मुकम्मल ग़रीबी में फँस गए हैं। करोड़ों आज 6 किलो अनाज और दाल पर निर्भर है।
* दिलचस्प आँकड़ा जो रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी.सुबबाराव ने साँझा किया है, के अनुसार पिछले साल उग्र दूसरी लहर के दौरान जून में जब लाखों लोग आक्सिजन के लिए तड़प रहे थे मर्सीडिज की सुपर लग्जरी एसयूवी ने सबसे अधिक मासिक सेल दर्ज की थी। स्टॉक मार्केट भी लगातार उछल रहा है।
*2020-21 में यूथ बेरोज़गार रेट 28.26 प्रतिशत था जो 2016-17 में 15.66 प्रतिशत था। 2019-20 की तुलना में 2020-21 में लगभग 22.6 प्रतिशत कम रोजगार मिला है। अप्रैल 2020 में हर घंटे में 170000 लोग अपना रोजगार गँवा रहे थे। 2021 अगस्त में जो युवा नौकरी के योग्य थे में से 33 प्रतिशत बेरोज़गार थे।
*वार्षिक ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार 2021 में भूख के मामले मे भारत 116 देशों में 101 रहा है। 2020 में हम 94 नम्बर पर थे। अर्थात हम और नीचे खिसक गए हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार जैसे पडोसी भी हम से बेहतर हैं। कहा जाएगा कि हमारे आकार और जनसंख्या को देखते हुए यहाँ चुनौती अधिक है पर सुपर पावर होने का दावा भी तो हम ही करतें हैं। अनाज की यहाँ कमी नही पर सही वितरण और ख़रीदने की क्षमता की समस्या है। बच्चों में कुपोषण की बहुत बड़ी समस्या है। नवजात में मौत का दर यहाँ भयानक है।
*2021 में पहली बार हमारी प्रति व्यक्ति आय बांग्लादेश से कम हो गई है। 2014 में हम उनसे 50 प्रतिशत आगे थे अब वह आगे निकल गए है।
और इस बीच…
*एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति का ताज चीन के कारोबारी जैक मा से छीन कर मुकेश अम्बानी सबसे धनी बन गए हैं। फ़ोर्ब्स की 2021 की सूची में एशिया में मुकेश अम्बानी के बाद दूसरे नम्बर पर गौतम अडानी हैं। *मुकेश अम्बानी दुनिया में 10 वें नम्बर के रईस हैं। गौतम अडानी 24वें नम्बर पर हैं। दुनिया में अरबपतियों की संख्या में भारत तीसरे नम्बर पर है। हमसे आगे केवल अमेरिका और चीन है।
* ब्लूमबर्ग बिलिनियर इंडेक्स के अनुसार दौलत बढ़ाने में हमारे अडानीजी दुनिया मे सबसे तेज़ हैं। वह इस मामले में मुकेश अम्बानी को भी पीछे छोड़ गए है। एक रिपोर्ट के अनुसार उनकी सम्पत्ति में रोज़ाना 2000 करोड़ रूपए की बढ़ौतरी देखी गई है।
यह असमानता केवल यहाँ ही नही है सारी दुनिया में यह ही रुझान है। 2021 में दुनिया के सबसे रईस 10 प्रतिशत के पास दुनिया की 76 प्रतिशत दौलत थी और जो निचले 50 प्रतिशत हैं उनके पास केवल 8 प्रतिशत ही दौलत थी। लेकिन हमे तो अपना घर देखना है और सम्भालना है। 1980 के बाद उदारीकरण के दौर के कारण देश ने प्रगति की है। पर हमारे यहाँ अंतहीन ग़रीबी और अमीर और ग़रीब के बीच बढ़ती खाई बताती है कि उदारीकरण का फल अधिकतर एकतरफ़ा रहा है। कुछ अर्थ शास्त्रियों, और विशेष तौर पर अंग्रेज़ी मीडिया के अभियान के कारण बहुत अधिक जोर ‘रिफार्म’ पर दिया जा रहा है, पर अगर यह वास्तव में सुधार है तो करोड़ों ग़रीबी में इस तरह क्यों लथपथ हैं ? ‘ रिफार्म’ शब्द का इस्तेमाल इस लिए भी किया जाता है ताकि कोई विरोध न कर सके। इस तरफ धकेलने में कई विदेशी सरकारो ने भी जोर दिया है क्योंकि उन्हे यहाँ बड़ा बाज़ार नजर आता है। हम भी ग्लोबल रेटिंग एजेंसियों के प्रमाण पत्रों से गदगद् हो जाते हैं पर कोरोना के दौरान देश ने जो पीढ़ा भुगती है वह हमारी हक़ीक़त बयान कर गई है।
समाजवाद आउटडेटड हो गया पर अनियंत्रित पूँजीवाद भी भारत की ग़रीब जनता पर लादना अन्याय है। हमने फ़्री मार्केट को जप्फा डाल लिया है। यही कारण है कि हमारी नीतियाँ रईस बढ़ा रही है। यह नीति पश्चिम में सफल रही हैं पर हमारी परिस्थिति बिलकुल अलग है। किसानों ने तीन क़ानूनों का विरोध अकारण नही किया। वह जानते है कि वह कॉरपोरेट का मुक़ाबला नही कर सकते। हर नीति परिवर्तन को इस तरह पेश किया जाता है कि जैसे बहुत जनकल्याण होगा। सभी सरकारें विकास पर जोर देती रही है पर कोई यह नही देखता कि विकास का फल बराबर बँटता है या नही? वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक ऑनिन्दयो चक्रवर्ती के अनुसार ‘ जिस वक़्त वह रिकार्ड मुनाफ़ा कमा रहे थे भारत का कॉरपोरेट वर्ग कम टैक्स दे कर बचा रहा। पिछले दस वर्ष में कुल टैक्स आमदन में कॉरपोरेट का योगदान 36 प्रतिशत से गिर कर 23 प्रतिशत रह गया है।‘
यह वह समय था जब भारी संख्या में भारतीयों की आमदन मे भारी गिरावट हुई थी पर 1 प्रतिशत सुपर रिच की बल्ले बल्ले थी। यह हमारी सार्वजनिक नीति की भारी असफलता है कि ग़रीब ख़ुद तरक़्क़ी करने की जगह ख़ैरात पर निर्भर है। पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने लिखा है, “ लोकतान्त्रिक सरकार वैश्वीकरण के फल को बराबर बाँटने की अपनी ज़िम्मेवारी से पीछे हट गई है… हमारे यहां गैर बराबरी का जो स्तर है वह लोकतंत्र के अनुरूप नही’। बात बिलकुल सही है। असमानता नैतिक तौर पर ग़लत है, राजनीतिक तौर पर नाशक है और लोकतन्त्र के लिए खतरा है। जहाँ अभी भी इतनी दरिद्रता है, भूख है, लाचारी है, बीमारी है, कुपोषण है, बेरोजगारी है वहां अगर अरबपतियों का संख्या दुनिया में तीसरे नम्बर पर है, तो ज़रूर कुछ गड़बड़ है। हमारी जायज़ उपलब्धियाँ है पर अब जबकि हम एक और गणतन्त्र दिवस मना कर हटें हैं, हमे अपनी दिशा और रफ़्तार पर फिर से नजर दौड़ाने की बहुत ज़रूरत है।
नई दिल्ली के इंडिया गेट से अमर जवान ज्योति हटा कर इसे राष्ट्रीय युद्ध स्मारक मे मिलाने को लेकर दुर्भाग्य पूर्ण विवाद खड़ा हुआ है। इंडिया गेट और अमर जवान ज्योति से हम में से बहुत का भावनात्मक लगाव रहा है इसलिए एकदम तकलीफ़ हुई है पर सरकार ने जो किया वह ग़लत नही है। एक, ज्योति को मिटाया नही गया राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की ज्योति में शामिल किया गया है। दूसरा, अंग्रेज़ों द्वारा 1921 में बनाए गए इंडिया गेट के नीचे यह ज्योति अस्थाई व्यवस्था थी। 1 सितम्बर 1972 को रक्षामंत्री जगजीवन राम ने एक प्रश्न के उत्तर में संसद में बताया था कि, “ अमर ज्योति के साथ अस्थाई युद्ध स्मारक बन चुका है… स्थाई युद्ध स्मारक बनाना विचाराधीन है”। दुख की बात है कि न वह सरकार और न ही बाद की सरकारें ही राजधानी मे भव्य युद्ध स्मारक बना सकी। इस सरकार को यह श्रेय जाता है कि उसने वह कर दिया जो पहली सरकारें किन्हीं कारणों से नही कर सकी। इसी तरह सरकार की अनावश्यक आलोचना हो रही है कि बीटिंग ऑफ़ रिट्रीट से ईसाई भजन ‘अबाइड विद मी’ हटा दिया गया और उसकी जगह ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ की धुन बजाई जाएगी। बताया जा रहा है कि यह भजन गांधीजी का फ़ेवरिट था। मुझे इस बात की सत्यता का ज्ञान नही पर जो लोग हटाए जाने पर आपति कर रहें वह क्या इसके लिए सहमत होंगे अगर हिन्दू भजनों या किसी और धर्म के धार्मिक संगीत की वहां धुन बजाई जाऐ? हैरानी है कि ईसाई धुन बजाने पर उनके सैकयुलर विचारों को तकलीफ नही होती! मोदी सरकार के हर कदम की आलोचना करने वाले भी अपनी असहिष्णुता ही दिखा रहें हैं।