ऐसा संकट विश्व ने पहले 1962 में झेला था। तब अमेरिका द्वारा इटली और टर्की में परमाणु मिसाइल तैनात करने के जवाब में सोवियत यूनियन ने अमेरिका की तट से 90 मील दूर क्यूबा में परमाणु मिसाइल तैनात कर दी थी। दोनों बड़ी ताक़तों के बीच परमाणु टकराव की सम्भावना से दुनिया काँपने लगी थी। आख़िर में दोनों देशों ने समझदारी दिखाते हुए दुनिया को परमाणु संहार से बचा लिया। 13 दिन के बाद सोवियत यूनियन ने क्यूबा से परमाणु मिसाइल हटाने की घोषणा कर दी। अमेरिका ने क्यूबा की घेराबंदी हटा दी और कुछ देर के बाद चुपचाप इटली और टर्की से अपनी मिसाइल हटा दी। उसके बाद दुनिया बहुत बदल गई। शीत युद्ध में सोवियत यूनियन की पराजय और विघटन हो गया, रूस की ताकत लगातार कमजोर होती गई और अमेरिका एकमात्र सुपर पावर रह गया। लेकिन पिछले दो दशक से स्थिति कुछ करवट ले रही है। चीन नया सुपरपावर उभर आया है जिसे नियंत्रण में लाने में अभी तक अमेरिका असफल रहा है। रूस का आत्मविश्वास भी लौट रहा है और यूक्रेन की सीमा पर 100000 सैनिक जमा कर वह वास्तव में अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती दे रहा है।
यूक्रेन जो योरूप का दूसरा सबसे बड़ा देश है, कभी सोवियत यूनियन का हिस्सा था। सोवियत यूनियन के विघटन के बाद 1991 में 14 और देशों की तरह यह भी रूस से आजाद हो गया था। यूक्रेन ने शुरू में ख़ुद को तटस्थ रखा और रूस के साथ रिश्ता रखते हुए पश्चिम के देशों के साथ घनिष्ठता बढ़ानी शुरू कर दी। वह विशेष तौर पर पश्चिम देशों के सैनिक गठबन्धन नाटो में 2024 तक शामिल होना चाहता है। अमेरिका इसका बहुत इच्छुक भी है पर इसको लेकर रूस को अत्याधिक तकलीफ हो रही है। चाहे रूस इंकार कर रहा है कि वह यूक्रेन पर हमला करने जा रहा है पर सीमा पर एक लाख सैनिक इकटठे कर रूस उन्हे आतंकित कर रहा है और नाटो में जाने से रोकना चाहता है।अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन का कहना है कि इस महीने रूस यूक्रेन पर हमला कर सकता है। रूस ने यूक्रेन की सीमा पर ख़ून का भंडार पहुँचा दिया है। दूसरी तरफ अमेरिका, इंग्लैंड, कैनेडा जैसे देशों ने यूक्रेन की ख़ूबसूरत राजधानी कीव से अपने राजनयिक कर्मचारी वापिस बुला लिए हैं। यह दोनों कदम तब उठाए जातें हैं जब युद्ध सन्निकट हो। रूस बनाम नाटो देशों के बीच अगर टकराव होता है तो यह ऐसा विनाशक होगा कि पहले कभी देखा न गया हो।
पुटिन की रणनीति: 1989 में जब सोवियत यूनियन का पतन हो रहा था तब पश्चिम के देशों ने वायदा किया था कि नाटो ‘एक इंच भी पूर्व की तरफ नही बढेगा’, पर बाद में हंगरी, पोलैंड और चैकोस्लोवाकिया नाटो में शामिल हो गए थे। पुटिन के राष्ट्रपति बनने के बाद रूस ने भी जवाब देना शुरू कर दिया। 8 साल पहले रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया था। यूक्रेन का दोनबास क्षेत्र भी रूस में मिलना चाहता है जहाँ रूसी मूल के लोग रहतें हैं पर यूक्रेन की आबादी का 80 प्रतिशत आजाद रहना चाहता है और नाटो में शामिल होना चाहता है। पुटिन किसी भी हालत में इसे रोकना चाहते हैं। एक लेख में उन्होने लिखा भी है, “रूस और यूक्रेन के लोग एक जैसे हैं जिनका साँझा इतिहास है”। यूक्रेन इस बात से सहमत नही है। न ही पुटिन चाहतें हैं कि पूर्व योरूप में रूस की सीमा के पास अमेरिका परमाणु हथियार तैनात करे। अमेरिका रूस की यह माँग अस्वीकार कर चुका है कि यूक्रेन नाटो में शामिल न हो। बीबीसी के एक विश्लेषक के अनुसार ‘पुटिन योरूप में रूस के प्रभाव क्षेत्र को फिर से कायम करना चाहते है और शीत युद्ध का जो नतीजा निकला था उसे दरूस्त करना चाहते हैं’। एक और विशेषज्ञ आंदरी कुरटुनव के अनुसार, “ पुटिन समझते हैं कि पश्चिम ने 1990 के दशक में रूस की कमज़ोरी का फ़ायदा उठाया था। रूस के साथ सही व्यवहार नही किया गया। वह इसे बदलना चाहतें है। वह मानते हैं कि अब सत्ता का संतुलन शिफ़्ट हो चुका है और यह एकध्रुवीय नही रहा”। रूस के पास दुनिया में सबसे अधिक परमाणु हथियार है और उनकी सेना सबसे बड़ी है। पुटिन इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाना चाहतें हैं कि उन्होने रूस का वैभव और प्रभाव फिर से कायम किया था।
बाइडेन को चुनौती: कोई नही जानता कि पुटिन किस हद तक जाने को तैयार हैं पर उनकी उग्र नीति एक और परेशान नेता के लिए चुनौती है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन की यह अग्नि परीक्षा है। उनका नेतृत्व दाव पर है। वह भी अमेरिका का वैभव और प्रभाव कायम रखना चाहतें हैं। वह पुटिन की ब्लैकमेल के आगे झुकते नजर नही आ सकते पर वह दुनिया को परमाणु तबाही में भी नही धकेल सकते। जिस तरह अमेरिका अफ़रातफ़री में अफ़ग़ानिस्तान से निकला है उससे दोनों अमेरिका और उसके राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा को गहरी चोट पहुँची है। अब पुटिन उनकी परीक्षा ले रहे है और दुनिया को दिखाना चाहते है कि अमेरिका की ताकत का ह्रास हो चुका है और वह एक प्रकार से पेपर टाइगर है। सीएनएन के ज़केरी बी वुल्फ़ का आंकलन है कि ‘सुपरपावर अमेरिका के युग को नए ढंग से परखा जा रहा है…रूस यूक्रेन में घुसने की तैयारी कर रहा है और चीन बार बार हवाई जहाज़ भेज कर तायवान की स्वायत्तता का इम्तेहान ले रहा है”।
दुनिया समझती है कि अमेरिका की ताकत पहले जैसी नही रही। आंतरिक तौर पर भी वह देश बुरी तरह से विभाजित है क्योंकि डानल्ड ट्रंप ने तो एक प्रकार से बग़ावत का प्रयास किया था और उन्हे अमरीका के कट्टर समाज में भारी समर्थन है। बाइडेन ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के वायदे के साथ राष्ट्रपति बने थे पर अभी तक वह अमेरिका की एक भी चुनौती का समाधान नही निकाल सके। एक तरफ यूक्रेन तो दूसरी तरफ तायवान अमेरिका की खूब परीक्षा ले रहे है। अमेरिका के विरोधी अपने लिए मौक़ा देख रहें हैं। आजकल रूस और चीन में भी खूब बन रही है चाहे हितों में बड़ा टकराव है। पर इस वक़्त दोनों साँझे दुष्मन का सामना कर रहें हैं। विशेष तौर पर अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापिसी ने अमेरिका के संकल्प और योग्यता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। पुटिन अब इस संकल्प की फिर परीक्षा ले रहे है कि क्या जो देश अफ़ग़ानिस्तान से भाग खड़ा हुआ था वह दूर यूक्रेन के लिए लड़ने और जाने गवाने के लिए तैयार होगा? लेकिन पुटिन की दबंग नीति का खतरा भी है। अगर अमेरिका के राष्ट्रपति ख़ुद को घिरा महसूस करने लग पड़े और उनका राजनीतिक जीवन खतरे में पड़ने लगा तो वह भी बराबर के उग्र कदम उठा सकते है जिसका अंजाम अप्रत्याशित हो सकता है। यह नही भूलना चाहिए कि अमेरिका अभी भी नम्बर 1 देश है और रूस की वह आर्थिक ताकत नही कि वह लम्बा युद्ध बर्दाश्त कर सकें।
योरूप मँझधार में: अमेरिका और रूस के टकराव से सबसे अधिक परेशान योरूप के देश है क्योंकि अगर युद्ध हुआ तो युद्ध क्षेत्र तो योरूप ही बनेगा। इसीलिए जर्मनी और फ़्रांस शान्ति बनाए रखने का भरसक प्रयास कर रहें हैं। जर्मनी विशेष तौर पर तटस्थ रहने की कोशिश कर रहा है। अपने तेल और गैस के लिए योरूप बुरी तरह से रूस पर निर्भर है। गैस की पाईपलाइन यूक्रेन से गुज़र कर योरूप मे पहुँचती है। अगर यह ठप्प हो गई तो वहां न केवल बिसनेस पर बुरा असर पड़ेगा बल्कि असंख्य घरों में इस सर्दी के मौसम में हीटिंग बंद हो जाएगी। योरूप पर दबाव डालने के लिए रूस पाईपलाइन बंद भी कर सकता है। एक और पाईपलाइन भी तैयार हो रही है पर वह यूक्रेन को बाईपास करेगी। अब उसका भविष्य भी अनिश्चित है। अगर रूस तेल और गैस का निर्यात रोक देता है या कम कर देता है तो विश्व तेल क़ीमतों में उछाल आजाएगा। अमेरिका योरूप के लिए वैकल्पिक इंतेजाम करने की कोशिश कर रहा है पर ऐसा एक दम तो हो नही सकता। इस वक़्त रूस योरूप की इस ज़रूरत का 38 प्रतिशत पूरा कर रहा है जिसकी भरपाई नही हो सकती। तेल और गैस बंद करना रूस के लिए भी आसान नही होगा क्योंकि रूस के बजट का आधा इस निर्यात पर निर्भर है। इससे जायज़ सवाल भी उठेंगे कि वह विश्वसनीय व्यापारिक पार्टनर है या नही, और भविष्य में योरूप रूस से व्यापारिक रिश्ते ढीले कर देगा। पर पुटिन ने क्या सोच रखा है कोई नही जानता।
शी जिंपिंग की नजर: इंग्लैंड के एक पूर्व राजदूत गोओल्ड डेविस के अनुसार, ‘चीन बहुत ध्यान से पश्चिम के संकल्प पर नजर रखे हुए है। इस घटनाक्रम से वह सबक़ लेना चाहेगा’। अगर अमेरिका कमजोर नजर आया तो शी जिंनपिंग तायवान पर दबाव और बढ़ाएँगे। चीन और तेज़ हो जाएगा जो हमारे लिए भी अच्छी ख़बर नही। इस घटनाक्रम से रूस और चीन और निकट आजाऐंगे और रूस की चीन पर निर्भरता बढ़ेगी। भारत के लिए यह असुखद स्थिति है क्योंकि अमेरिका और रूस दोनों हमारे सामरिक दोस्त हैं। चीन को सम्भालने के लिए हमे अमेरिका चाहिए और हमारा सैनिक सामान का 60 प्रतिशत रूस से आता है। लद्दाख में टकराव के दौरान अमेरिका ने हमारी मदद की थी। हम दोनों में चुनाव नही करना चाहेंगे इसीलिए हमारा विदेश विभाग बहुत सावधानी से चल रहा है और हम आशा कर रहें हैं कि यह टकराव शांत हो जाएगा। हमारे हित में यह भी नही कि रूस और चीन और नज़दीक आएँ। यह भी हो सकता है कि अपनी सरदारी कायम रखने के लिए अमेरिका दोनों रूस और चीन के ख़िलाफ़ डट जाऐ। युद्ध का हमारी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा जो बड़ी मुश्किल से पटरी पर आरही है। बहरहाल दुनिया साँस रोक कर बैठी है कि बड़े देशों और उनके महत्वकांक्षी नेताओं का बेधड़क खेल कहीं बाकी दुनिया का ‘खेला’ बिगाड़ न दे।