हमारी समस्या यूक्रेन नही,चीन है Our Concern is China not Ukraine

यूक्रेन के संकट को लेकर दुनिया परेशान है। रूस कह तो रहा है कि उसका हमले का कोई इरादा नही पर यूक्रेन की सीमा पर उसके लगभग दो लाख सैनिक तैनात हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन लगातार कह रहे हैं कि रूस किसी भी समय हमला कर सकता है। यह टकराव दोनो बड़े नेता बाइडेन और पुतिन की प्रतिष्ठा का भी सवाल बन गया है। पुतिन बिना कुछ हासिल किए वापिस नही जा सकते और जो बाइडेन यह निश्चित करना चाहतें हैं कि रूस यहाँ से कुछ हासिल न कर सके। तीसरे बड़े नेता शी जिनपिंग की भी नजर इस टकराव पर है कि वह इस में से क्या फायदा उठा सकतें हैं? यहाँ पुतिन फँस गए लगतें है। वह अगर यूक्रेन पर हमला करतें है और कुछ हिस्से पर क़ब्ज़ा कर भी लेते है तब भी ऐसा लापरवाह कदम उठा कर उन्होने खोया ही खोया है। दुनिया में उनके प्रति कोई सहानुभूति नही क्योंकि कोविड के पैंडैमिक से मुश्किल से उबरी दुनिया नए संकट का सामना नही करना चाहती। आज की दुनिया में ज़बरदस्ती देशों की सीमा बदलने के प्रयास को कोई पसंद नही करेगा। रूस का आधुनिक ज़ार बनने की महत्वकांक्षा में पुतिन ने देश और दुनिया दोनो को संकट में फँसा दिया है। रूस की अर्थव्यवस्था जो योरूप को गैस और तेल को सप्लाई पर बहुत निर्भर है, को युदध की सूरत में भारी आघात पहुँचेगा क्योंकि फिर योरूप विकल्पों की तलाश शुरू कर देगा। रूस चीन पर निर्भर हो जाएगा जहाँ उसकी हैसियत जूनियर पार्टनर की होगी। रूस से योरूप को शुरू होने वाली दूसरी पाईपलाइन का भविष्य भी खतरें में पड़ जाएगा। दूसरी तरफ इस कार्यवाही से नाटो मज़बूत होगा और आक्रामक रूस के ख़िलाफ़ एकजुट हो जाएगा। जैसे इकानिमिस्ट अख़बार ने लिखा है, पुतिन ने ख़ुद को कोने में समेट लिया है। अपनी प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाए बिना या अपने देश का भारी नुक़सान किए बिना वह यहाँ से अब निकल नही सकते।

बाकी दुनिया की तरह भारत भी इस घटनाक्रम से बहुत चिन्तित है। अगर टकराव होता है तो तेल की क़ीमतों में बड़ा उछाल आएगा। लेकिन हमारी समस्या और भी है। दोनो अमेरिका और रूस हमारे सामरिक मित्र हैं। आक्रामक चीन के ख़िलाफ़ हमे अमेरिका की ज़रूरत है और रूस से हमारा 60 प्रतिशत रक्षा सामान आता है। दोनो अमेरिका और रूस चाहतें हैं कि यूक्रेन पर हम उसका पक्ष लें पर भारत बच बच कर चल रहा है जिस से अमेरिका बहुत ख़ुश नजर नही आ रहा। मैलबर्न में क्वैड देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन के दौरान विदेश मंत्री एस जयशंकर और अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी बलिंकन की बैठक को ‘खुली और ईमानदार’ बताया गया है। अर्थात मतभेद हैं। अमेरिका के प्रवक्ता का यह कहना कि यह ‘अमेरिका के लिए जटिल समस्या है, यह भारत के लिए जटिल समस्या है’ भी बताता है कि दोनो में मतभेद हैं। भारत इस पचड़े में नही पड़ना चाहता क्योंकि हमारी समस्या दूर यूक्रेन नही पास का चीन है जिसके बारे क्वैड की बैठक के बाद जयशंकर ने शिकायत की है कि एलएसी पर तनाव का कारण है कि, “चीन ने 2020 के लिखित समझौतों का उल्लंघन किया है कि सीमा पर सेना इकटठी नही की जाएगी। जब कोई बड़ा देश लिखित समझौतों का अनादर करता है तो यह अंतराष्ट्रीय समुदाय की वैध चिन्ता का मामला है”। अर्थात जयशंकर अपनी शिकायत कर रहें हैं कि हमारी चीन की समस्या की तरफ अंतराष्ट्रीय समुदाय पर्याप्त ध्यान नही दे रहा।

 पिछले कुछ वर्षों में चीन और भारत में  अविश्वास बढ़ा है। वुहान और महाबलीपुरम में प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच मुलाक़ात  के बावजूद चीन ने लद्दाख में अतिक्रमण किया और विशेष तौर पर गलवान में हमारे सैनिकों पर हिंसक हमला कर चीन ने बता दिया कि हम जितना भी प्रयास कर लें चीन अपने इरादे से पीछे नही हटेगा। 1975 के बाद लगभग 45 वर्ष लगभग शान्ति रही जो 15 जून 2020 को गलवान में हिंसक झड़प के बाद टूट गई है। यह जानबूझ कर उकसाने वाली कार्यवाही थी।  बहुत पहले चीन के सैनिक दार्शनिक सन ज़ू ने सलाह दी थी कि ‘पहले भ्रामक करने वाली कमजोर छवि प्रस्तुत करो और फिर ज़बरदस्त ताकत से विस्फोट करो’। चीन ने यह नीति केवल भारत के साथ ही नही अमेरिका के साथ भी अपनाई। पहले सहयोग कर अपनी अर्थव्यवस्था को अमेरिका के सहारे मज़बूत कर लिया और अब लगातार वैश्विक स्तर पर चुनौति दे रहें हैं। पूर्व विदेश सचिव निरूपमा राव जिन्होंने भारत, तिब्बत और चीन पर विचारोत्तेजक किताब द फ़्रैक्चरड हिमालय लिखी है ने उसमें लिखा है, “अंतराष्ट्रीय मंच पर भारत के बढ़ते उत्कर्ष के बारे  चीन की प्रतिक्रिया कभी अनिश्चित तो कभी स्पष्ट विद्वेष वाली रही है… यह मुश्किल  भविष्य की तरफ इशारा करती है”। उनका तो यह भी मानना है कि भावी टकराव की भविष्यवाणी की जा सकती है। 

बड़ी समस्या  है कि चीन और हमारे बीच आर्थिक और विकास का फ़ासला लगातार बढ़ता जा रहा है इसीलिए भारत अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के साथ क्वैड में शामिल हो गया है। भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र  में चीन का मुक़ाबला करने की कोशिश कर रहा है। फ़िलिपींस  द्वारा हमारी ब्रहमोस मिसाईल की तीन बैटरी 37.5 करोड़ डालर में ख़रीदने के बाद विदेश मंत्री जयशंकर ने उस देश की यात्रा का है। हमारी तरह उस देश ने भी चीन के साथ दोस्ती करने की कोशिश की थी पर अब चीन उनके क्षेत्र पर भी दावा कर रहा है। यह हमारा पहला बड़ा सैनिक सामान का निर्यात होगा। यहाँ भी सरकार ने ‘इतिहास की हिचक’ को एक तरफ रख सैनिक सामान का निर्यात शुरू कर दिया है। फ़िलिपींस जो पहले हमारी उपेक्षा करता रहा है के विदेश मंत्री का अब कहना है कि भारत और फ़िलिपींस दोनो समुद्रीय देश है और दोनो ‘पानी में स्थायित्व रखने के लिए क़ानून के शासन का महत्व समझते हैं’। कौन देश यहाँ स्थायित्व में बिगाड़  पैदा कर रहा है, यह सब जानते हैं। एशिया में निश्चित तौर पर सत्ता का संतुलन चीन का तरफ झुका हुआ है पर उसकी लगातार सामरिक बदतमीज़ी के कारण अधिक संख्या में पड़ोसी देश समर्पण करने से इंकार कर रहें है। रक्षा विशेषज्ञ सी राजा मोहन के अनुसार चीन की आक्रामक नीतियाँ उसके कई पड़ोसियों को अमरीका के कैम्प में भेज रही हैं।

 हमारी समस्या इतनी  समुद्र नही जितनी ज़मीन है जहाँ चीन से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को स्पष्ट और वर्तमान खतरा है। चीन हमारा दुष्मन नम्बर 1 है जो बात एक बार रक्षा मंत्री जार्ज फ़र्नांडीस ने कही थी। तब से लेकर अब तक हालात ख़राब ही हुए है। चीन की आर्थिक ताकत, चाहे उनकी अर्थव्यवस्था में आश्चर्यजनक ढंग से सुस्ती आरही है, और पाकिस्तान के साथ उनके सामरिक गठबंधन के कारण हमारे लिए खतरा बना हुआ है। अमेरिका के साथ हमारी निकटता का आधार भी यही है कि चीन के खतरे से निबटने के लिए हमे और साथी चाहिए। विशेषज्ञ और लेखक एंड्रयू स्माल जिन्होंने चीन-पाकिस्तान मैत्री पर किताब लिखी है का मानना है कि ताकत बढ़ने के कारण ‘चीन में टकराव बढ़ाने की भूख अधिक है और वह समझतें है कि वह कई मोर्चों पर इकटठे प्रतिरोधी रिश्ते बर्दाश्त कर सकता है’। उनका  मानना है कि चीन के रवैये के कारण दक्षिण एशिया का यह साल कलहकारी रहेगा ‘जिसके केन्द्र मे भारत होगा’।

भारत सरकार को इसका पूरा आभास है इसीलिए क्वाड जैसे गठबंधन का भारत हिस्सा बना है। हाल ही में भारत ने फिर चीन के 54 ऐप बैन किए हैं। लेकिन यह कदम तो अंग्रेज़ी का मुहावरा याद करवाता है कि ‘ घायल तो करना चाहतें है पर प्रहार करने से घबरातें हैं’। ऐसे कदमों से चीन की सेहत पर कोई असर नही पड़ेगा क्योंकि दूसरी तरफ भारत-चीन का व्यापार लगातार बढ़ता जा रहा है। पिछले साल में चीन के साथ हमारा व्यापार 44 प्रतिशत बढ़ा है और व्यापार का संतुलन उनकी तरफ झुका हुआ है। चीन के साथ व्यापार का घाटा जो 2020 में 45.9 अरब डालर था 2021 में बढ कर 69.4 अरब डालर हो गया है। और यह स्थिति तब है जब लद्दाख में दो साल से गतिरोध बना हुआ है। अगर हम चीन को इसकी सज़ा देना चाहते है तो निश्चित तौर पर दिशा उलटी है। चीन हमारे क्षेत्र में अतिक्रमण भी करता है और हमारा बड़ा बाज़ार भी चाहता है। जयशंकर ने कहा तो है कि सीमा पर स्थिति रिश्ते तय करेगी पर हमने आर्थिक रिश्ते कम करने का  गम्भीर प्रयास नही किया।  हम कहते तो है कि सीमा विवाद और व्यापार दोनो इकटठे नही चल सकते पर हक़ीक़त उलट है। दुश्मनी भी चल रही है और व्यापार भी चल रहा है। हम चीन पर अपनी निर्भरता कम करने में असफल रहे है जिसकी टकराव की स्थिति में भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। 

चीन एशिया में भारत को एकमात्र ऐसा प्रतिद्वंद्वी समझता है जिसमें मुक़ाबला करने का दम है इसलिए टकराव निश्चित तौर पर आगे भी चलेगा। हमारे लोगो को इसका पूरा अहसास है यही कारण है कि सीमा पर तेज़ी से इंफ़्रास्ट्रक्चर मज़बूत किया जा रहा है। चीन सुधरने वाला नही, कई प्रधान मंत्री प्रयास कर असफल रहें हैं।   अगस्त 1950 को विजय लक्ष्मी पंडित को लिखे पत्र में तत्कालीन विदेश सचिव गिरिजा शंकर बाजपेयी के यह शब्द भविष्य दर्शी लगतें हैं कि ‘मेरा अपना विचार है कि हम में चीन एशिया में एकमात्र राजनीतिक और आर्थिक प्रतिद्वंद्वी देखता है। इसलिए ईर्ष्या न कि  हमारे प्रति लगाव चीन की मुख्य  भावना रहेगी’। इन 72 सालों में ईर्ष्या की यह भावना कम होने की जगह और मज़बूत हुई है। सीमा पर चैन की सम्भावना कम नजर आती है। इसीलिए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने फिर चेतावनी दी है, ‘चीन के साथ रिश्ते बेहद कठिन दौर से गुज़र रहें हैं’।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.