रूस द्वारा छोटे पड़ोसी देश पर बिना उकसावे के किए गए हमले का वैश्विक स्थायित्व पर बुरे प्रभाव पड़ेंगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जो विश्व व्यवस्था कायम की गई थी और जिसने 77 वर्ष शान्ति दी, उसे पुतिन ने तहस नहस कर दिया है। इसके ख़ुद रूस के लिए दुष्परिणाम निकलेंगे। हिटलर ने एक बार कहा था, ‘ हर युद्ध की शुरूआत एक अंधेरे कमरे का दरवाज़ा खोलने जैसा होता है। किसी को मालूम नही कि अंधेरे में क्या छिपा है’। हिटलर यह हक़ीक़त अच्छी तरह जान गया था, आख़िर जो ख़ुद को विश्व विजेता समझता था का अंत बर्लिन के एक बंकर में ख़ुद को गोली मारने से हुआ था। इस जगह के उपर कार पार्क बना दिया गया है ताकि नामोनिशां न रहे। पुतिन इस वक़्त यूक्रेन को तबाह कर सकतें है पर वह भी अंधेरे कमरे में प्रवेश कर चुकें हैं। रूस की अर्थ व्यवस्था पर अभी से बुरा असर पड़ रहा है। उनकी करंसी रूबल डालर के मुक़ाबले 30 प्रतिशत गिर चुकी है। जैसे जैसे वहां तंगी बढ़ेगी पुतिन की स्थिति कमजोर होती जाएगी।
पश्चिम का मीडिया पुतिन को खलनायक प्रस्तुत कर रहा है पर याद रखना चाहिए कि रूस एकमात्र महाशक्ति नही जिसने किसी छोटे और कमजोर देश पर हमला किया हो। अमेरिका ने दो बार इराक़ पर हमला किया था। एक बार तो जार्ज बुश ने जोर जोर से घोषणा की थी कि सद्दाम हुसैन के पास ‘सामूहिक विनाश के हथियार है’। जब इराक़ पर हमला किया गया तो बहुत तलाश के बाद कुछ नही मिला। सद्दाम हुसैन ख़ुद एक गुफ़ा मे काँपता पकड़ा गया। ब्रिटेन के इम्पीरियल वॉर म्यूज़ियम के अनुसार 20000 से 35000 इराक़ी सैनिक मारे गए और नागरिक हताहतों की संख्या एक लाख के क़रीब थी। 50 लाख लोग विस्थापित हो गए। पर जार्ज बुश को किसी ने खलनायक नही कहा, न उन पर निजी प्रतिबंध लगाए जैसे पुतिन पर लगाए गए हैं। इसका कारण है कि बुश ने एक अरब देश पर हमला किया था जिसे लेकर पश्चिम के लोगों और उनके मीडिया को कोई परेशानी नही आई। पर पुतिन ने तो योरूप के एक देश पर हमला किया है जहाँ जैसे अल जज़ीरा के अंग्रेज़ी के एंकर पीटर डोबी ने कहा है, ‘समृद्ध मिडल क्लास के लोग हैं। यह आपके पड़ोस के किसी भी परिवार जैसे हैं’। लंडन के टेलिग्राफ़ में डैनियल हैनन यूक्रेन के लोगो के बारे लिखतें हैं, ‘ वह हमारे जैसे हैं। इस कारण यह बहुत शॉकिंग है। उनके पास नैटफलिक्स है, इंस्टाग्राम है’। अभिप्राय यह है कि अगर नाजायज़ युद्ध दूर अरब, या अफ़्रीका या एशिया के किसी देश पर लाद दिया जाए तो कोई बड़ी बात नही पर यह तो गोरे योरूप वाले हैं, इन पर हमला तो दिल दहलाने वाला है ! यूक्रेन के उप मंत्री डेविड सकवरेलिडज़ ने तो बात बिलकुल साफ़ कर दी, ‘यह मेरे लिए बहुत भावनात्मक है क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि नीली आँखों और सुनहरे बालों वाले युरोपीय मारे जा रहे हैं’।
अर्थात यह सज्जन कह रहा है कि अगर तुम्हारी आँखें नीली और बाल सुनहरे नही तो अगर तुम मारे जाते हो तो चिन्ता की बात नही। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी 40 वर्ष के बाद यूक्रेन को लेकर एमरजैंसी बैठक की है जबकि इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, लीबिया, यमन, सीरिया, रवांडा, आदि जहाँ लाखों मारे गए, के बारे कोई बैठक करने की ज़रूरत नही समझी गई। पश्चिम के मीडिया का रूख है कि गोरे लोग गैर -गोरे से अधिक सहानुभूति के पात्र हैं। आख़िर वह ‘सभ्य’ हैं, जबकि यूरोप का इतिहास भरा पड़ा है कि यह बहुत ही हिंसक लोग रहें हैं। याद करिए दो विश्व युद्ध। हमारे छात्र जो युक्रेन में फँस गए थे वह भी शिकायत कर रहे है कि उनके और अफ़्रीकी छात्रों के साथ कई जगह घोर नसली व्यवहार किया गया। ट्रेन से धक्के मार कर निकाल दिया गया। लेकिन हमारे छात्रों की यह ही समस्या नही। असली सवाल तो है कि उन्हे यूक्रेन जैसे देश में जाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ी ? भारत में उच्च शिक्षा का सैकटर, मैडिकल समेत, बुरी तरह से संकट ग्रस्त है और अगर हम नही चाहते कि भविष्य में हमारे बच्चों के साथ किसी और देश में ऐसे दोहराया जाए तो सरकार को इस तरफ गम्भीरता से ध्यान देना चाहिए। उच्च शिक्षा का क्षेत्र सरकार की तवज्जो के लिए कराह रहा है।
11 लाख से उपर हमारे बच्चे बाहर पढ़ाई करने जाते है। 18000 से अधिक तो यूक्रेन में थे। कैनेडा,अमेरिका और यूएई में दो लाख से अधिक भारतीय छात्र पढ़ रहें है। आस्ट्रेलिया में भी एक लाख की संख्या पहुँच चुकी है। हैरानी है कि सुडान में भी हमारे 10 छात्र हैं। वह वहां क्या कर रहें हैं? पिछले कुछ सालों में विदेश जा रहे छात्रों में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि स्वदेशी शिक्षा क्षेत्र में केवल 3 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई है। इस वक़्त सबका ध्यान युक्रेन में फँसे मैडिकल स्टूडेंट्स पर है, पर समस्या उससे भी विशाल है। हमारे युवाओं मे पलायन की बढ़ती मनोवृत्ति देश के भविष्य के लिए बड़ा संकट है। 2016 में 440000 छात्र विदेश में पढ़ते थे जिन पर 28 अरब डालर ख़र्च हुआ था। यह ख़र्चा 2024 तक बढ कर चौंका देने वाले 80 अरब डालर हो जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी ने भी शिकायत की है कि हमारे बच्चे ‘छोटे देशों’ में पढ़ने के लिए जातें हैं। पर जाते क्यों हैं? अच्छे स्तर के विश्व विद्यालय और कालेज यहां कम है, और जो हैं वहां प्रवेश बहुत मुश्किल है। दिलली यूनिवर्सिटी की कटऑफ तो 100 प्रतिशत के नज़दीक पहुँच रही है। निजी विश्व विद्यालय उस स्तर के नही है और कई तो टीचिंग शॉप है जो डिग्री बेचते हैं। हिमाचल में सोलन की एक युनिवर्सिटी तो 50000 जाली डिग्रियाँ बेचती पकड़ी गई है। सरकार अब उच्च शिक्षा केन्द्रों में ‘अपने लोग’ लगा रही है। इससे इनकी विश्वसनीयता और स्तर प्रभावित होगा। अगर उच्च शिक्षा के क्षेत्र की स्वायत्ता के साथ खिलवाड़ किया गया तो भारत का विश्व गुरू बनने का सपना सपना ही रह जाएगा।
बड़ी मात्रा में युवा विदेश में पढ़ाई के बहाने वहां बसने जाते हैं। यहाँ रोजगार और मौक़े की कमी के कारण बहुत युवा बाहर पीआर लेकर बसने के उद्देश्य से जातें हैं। बीबीसी की टिप्पणी है कि ‘ विदेशी यूनिवर्सिटी जॉब मार्केट के लिए गेटवे है’। आरक्षण ने भी समस्या खड़ी की है क्योंकि जनरल कैटेगिरी में सीटें कम हैं। दस बारह साल पहले एक मौक़ा ज़रूर आया था जब भारत की प्रगति को देख कर पढ़े लिखे प्रवासी स्वदेश लौटने लगे थे लेकिन देश के बदले माहौल और बढ़ती असहिष्णुता के कारण यह वापिसी रूक गई है। कोविड के बाद रोजगार की समस्या और बढ़ गई है। पंजाब में हाल ही में 6 चपडासी के पद के लिए 7000 आवेदन आए जिनमें एमए पास भी थें। हर जगह हर सरकारी नौकरी के लिए ऐसा ही होता है। सरकार को ब्रेन ड्रेन और डालर ड्रेन रोकना चाहिए। पंजाब में असंख्य घर है जहाँ बच्चे विदेश भाग गए हैं और माँ बाप की देख भाल के लिए कोई नही रहा।
चीन में ही हमारे 23000 छात्र पढ़ते है। अगर कभी टकराव की नौबत आगई तो इन्हें कैसे निकालेंगे? समय आगया है कि सरकार इस पलायन को रैगुलेट करे। जहाँ तक मैडिकल स्टूडेंट्स की समस्या है, इसके दो बड़े कारण है। 1. कम सीटें 2. महँगी शिक्षा। नैशनल बोर्ड ऑफ़ एजूकेशन के पूर्व अध्यक्ष के. श्रीनाथ रेड्डी के अनुसार ‘ इस संकट के केन्द्र में मैडिकल शिक्षा के क्षेत्र में कम निवेश है’। 2021 में 16 लाख छात्रों ने डाक्टरी की प्रवेश परीक्षा ‘नीट’ दी थी केवल 88000 को 562 मैडिकल कालेज में जगह मिली। भारत मे डाक्टरों और नर्सों का घनत्व 10000 के पीछे 10.6 है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 10000 के पीछे यह 44.5 होना चाहिए। इतनी वृद्धि तो एकदम नही हो सकती। भारत ने 30000 मैडिकल सीटें बढ़ाई है पर यह पर्याप्त नही है। सुझाव दिया जा रहा है कि हर ज़िला अस्पताल को मैडिकल कालेज में परिवर्तित कर दिया जाए। यह तो शायद सही न हो क्योंकि डाकटरी ऐसा विषय है जिसमें योग्यता और गुणवत्ता का ध्यान रखना पड़ता है।
मैडिकल में कम सीटों के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने पिछली सरकारों को ज़िम्मेवार ठहराया है। यह सरकार सीटें बढ़ाने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही है पर एक तरफ है जहाँ सरकार ध्यान नही दे रही, वह है महँगी प्राईवेट मैडिकल शिक्षा। आरक्षण के कारण सीटें सीमित हो गई है जबकि प्राईवेट शिक्षा आम छात्र की पहुँच से बाहर है। यूक्रेन में फँसे हमारा बच्चे भी यही शिकायत कर रहें है कि वहां इसलिए जाना पड़ रहा है क्योंकि वहां ख़र्चा लगभग आधा रह जाता है। जहां एम्स जैसे प्रतिष्ठित कालेज में एमबीबीएस का ख़र्चा कुछ लाख रूपए है वहां प्राईवेट मैडिकल कालेज में यह करोड़- डेढ़ करोड़ रूपए तक पहुँच जाता है। यह तो डाका है। ठीक है प्राईवेट कालेज ने ख़र्चा निकालना है पर इतना अधिक क्यों? डोनेशन सिस्टम समाजिक अत्याचार है। आशा है जब सरकार इस तरफ ध्यान देगी तो अति महँगी मैडिकल पढ़ाई पर कुछ अंकुश लगाएगी। इन संस्थाओं की स्वायत्ता पर आँच नही आनी चाहिए पर इतनी मनमानी भी नही होनी चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि महँगी पढ़ाई महँगे इलाज का एक बड़ा कारण भी है। जो स्टूडेंट्स यूक्रेन में अपनी पढ़ाई पूरी नही कर सके उनकी अब बड़ी समस्या है। विदेशी डिग्री यहां एकदम स्वीकार नही की जाती। जो बच्चे एफएमजीई परीक्षा लेते है उनकी संख्या मे तीन गुना वृद्धि हुई है। 2020 में 35000 छात्रों ने विदेश मे एमबीबीएस की परीक्षा पास करने के बाद यह परीक्षा ली थी लेकिन 24 प्रतिशत के क़रीब ने ही क्लीयर किया था। लेकिन इससे बड़ा मसला छात्रों में बढ़ती पलायन की मनोवृत्ति, महँगी मैडिकल शिक्षा और माँग और आपूर्ति में बढ़ते फ़ासले की है। यह मामला न प्रचार का है न ही दोषारोपण का है यह सार्थक,निष्पक्ष और उच्च स्तरीय बहस के बाद देश के उच्च शिक्षा के क्षेत्र के भविष्य को तय करने का है। यूक्रेन में फँसे छात्रों की दुर्दशा एक चुनौती है पर यह आत्म विश्लेषण का मौक़ा भी है।