विंसटन चर्चिल भारत की आज़ादी के बिलकुल ख़िलाफ़ था और महात्मा गांधी से तो नफरत करता था, पर बंदा अभिव्यक्ति की कला का माहिर था। अपने साथी देश जो हिटलर के विस्तारवाद के ख़िलाफ़ समय रहते निर्णय नही ले पा रहे थे के बारे चर्चिल ने कहा था, “उनका निर्णय है कि वह अनिर्णित है, निश्चित हैं कि वह अनिश्चित है, बहाव के लिए दृढ़, तरलता के लिए ठोस, अशक्त रहने के लिए सर्वशक्तिमान”। आज कांग्रेस की जो हालत देखता हूँ और उसकी अध्यक्ष की निर्णय लेने में अकर्मण्यता देखता हूँ तो चर्चिल के यह शब्द याद आजाते हैं, निश्चित हैं कि अनिश्चित हैं…! वैसे तो पी वी नरसिम्हा राव ने एक बार कहा था कि ‘ अनिर्णय भी एक निर्णय है’ , पर अनिर्णय की सुविधा आप के पास तब उपलब्ध है जब मामला लटकाने का फ़ायदा हो। अगर आपका अनिर्णय पहले से बुरी स्थिति को बदतर बनाता हो तो यह विनाशक बन जाता है।
सोनिया गांधी तीन साल से कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष हैं। पहले तो यह ही सवाल उठता है कि किसी भी पार्टी का इतने लम्बे समय अंतरिम अध्यक्ष क्यों हो, विशेष तौर पर जब चारों तरफ से चुनौती मिल रही हो और मुक़ाबला भाजपा जैसी फ़ुर्तीली पार्टी से हो ? अगर पार्टी एक के बाद एक चुनाव हारती जाए तो निश्चित तौर पर सवाल तो खड़े होंगे ही। हाल ही में कांग्रेस पाँच चुनाव हार कर हटी है। क्या अध्यक्ष की कोई ज़िम्मेवारी नही बनती? हैरानी है कि राहुल गांधी का विरोध कर रहे जी-23 नेता भी कह रहें हैं कि ‘नही, नही, हम सोनियाजी को नही हटाना चाहते’। पर क्या वह देख नही रहे कि समस्या की जड़ आज वह सोनिया गांधी है जिन्होंने दस साल यूपीए की सरकार चलाई थी। वह सही प्रक्रिया की इजाज़त नही दे रहीं। उनके निर्णय और उनके अनिर्णय के कारण कांग्रेस की हालत यह बन गई कि उसके अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गया है।
एक निर्णय के बारे सोनिया गांधी अडिग है कि पुत्र ही कांग्रेस का अध्यक्ष बनेगा। उसी ताजपोशी को लिए उपयुक्त मौक़े की इंतज़ार है तब तक पार्टी इसी तरह धक्के खाती जाएगी। हर चुनाव के बाद परिवार द्वारा कहा जाएगा कि हम ज़िम्मेवारी लेते है, मंथन होगा। अब फिर पाँच चुनावों में पराजय के बाद सोनिया गांधी का कहना है कि, ‘आगे रास्ता और कठिन है…मैं नेताओं से पार्टी को मज़बूत करने के लिए सुझाव माँग रही हूं’। पर क्या यह रिकार्ड हमने पहले नही सुना? क्योंकि परिवार अपना जप्फा ढीला करने को तैयार नही इसलिए कोई सार्थक निर्णय नही लिया जाएगा और पार्टी इसी तरह बिना पतवार के नाव की तरह बहती जाएगी। चुनाव के बाद पाँच प्रदेश अध्यक्ष हटा दिए गए पर एक महीने के बाद केवल पंजाब में नए प्रधान की नियुक्ति की गई, वह भी चार दिन पहले। बाकी प्रदेश लावारिस क्यों छोड़ दिए गए हैं? इसलिए कि सोनियाजी निर्णय नही ले पा रही क्योंकि राहुलजी ने फ़ैसला करना है और फ़ैसला लेने का मूड नही है?
राहुल गांधी किस दुनिया में रहतें है वह उनके इस कथन से पता चलता है कि कांग्रेस ने मायावती को उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश की थी पर उन्होने ‘जवाब तक नही दिया’। पर कौन उस पार्टी की पेशकश गम्भीरता से लेगा जिसे केवल 2.5 प्रतिशत वोट मिलें है? 97 प्रतिशत उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई। बसपा को कम से कम 13 प्रतिशत वोट तो मिलें है। कांग्रेस जो अपने उम्मीदवार नही बचा सकी वह कैसे किसी को सीएम बनाएगी? राहुल गांधी का कहना है कि ‘ यह लड़ने का समय है’, पर दोस्त पहले आप अपनी छुट्टियाँ तो एग्ज़हौस्ट कर लो ! भाजपा का नेतृत्व छुट्टियाँ नही करता। पाँच चुनाव में जीत के बाद अगले दिन प्रधानमंत्री मोदी गुजरात की यात्रा पर निकल पड़े जहाँ वर्ष के अंत में चुनाव होने है। इसे समर्पण कहते है। मंडी में अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान के रोड शो के दो दिन बाद ही पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने शिमला मे रोड शो किया और हिमाचल आप के प्रधान अनूप केसरी को भाजपा में शामिल कर आप की हवा निकाल दी। ऐसी फुरती कांग्रेस के पास कहाँ हैं? क्या कोई जानता है कि हिमाचल के आने वाले चुनाव में प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व कौन करेगा? वीरभद्र सिंह के देहांत को नौ महीने हो गए। नया नेतृत्व खड़ा करने के लिए पर्याप्त समय था, पर निर्णय कौन ले?
कांग्रेस चुनावी हार का पर्याय बन चुकी है। जैसे प्रशांत किशोर ने बताया है, जब कांग्रेस अपने शिखर पर थी तो वह लगभग 3500 चुनाव क्षेत्रों में नम्बर 1 या निकटवर्ती नम्बर 2 थी। यह नम्बर हाल के पाँच चुनावों से पहले गिर कर 1500-1600 हो गया था। इन चुनावों के बाद यह और गिर गया है। प्रशांत किशोर के अनुसार ‘कांग्रेस का पतन अस्थाई घटना नही है’। असली समस्या है कि एक परिवार के क़ब्ज़े के कारण ढाँचा ही चरमरा गया है। ज़माना बदल गया पर कांग्रेस में पुरानी जमीनदारी चल रही है। जिस तरह यह पार्टी बन चुकी है और जिस तरह निर्णय लिए जाते हैं, कांग्रेस का पुनरूत्थान हो ही नही सकता। कांग्रेस की सर्वोच्च संस्था कांग्रेस कार्यकारिणी है। इसके 20 सदस्यों में से आधे मनोनीत किए जातें है और आधे ही निर्वाचित होतें हैं। और आखिरी चुनाव 1997 में तब हुए थे जब सीताराम केसरी अध्यक्ष थे! न ही पार्टी का कोई संसदीय बोर्ड है। सब कुछ गांधी परिवार है तो इस पतन की ज़िम्मेवारी भी तो इनकी बनती है।
जब भी चुनाव मे पराजय मिलती है, जो अब नियमित है, तो घोषणा कर दी जाती है कि ‘इंटरोस्पैक्ट’ किया जाएगा पर यह आत्म विश्लेषण तो 2014 से चल रहा है और इतिहास का सबसे लम्बा ‘इंटरोस्पैकशन’ होगा! निकला कुछ नही क्योंकि जिनकी अक्षमता के कारण यह हालत बनी है वह अपने अन्दर झाँकने को तैयार नही। 2019 में भाजपा के साथ जिन 200 सीटों पर सीधी फाइट थी, हर 100 सीट में से कांग्रेस केवल 4 जीत सकी। कांग्रेस को जो 46 सीटें मिली वह गैर हिन्दी भाषी प्रदेशों से मिली जहाँ भाजपा से मुक़ाबला नही था। गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली,उतराखंड और हिमाचल में तो पार्टी 2019 में अपना खाता भी नही खोल सकी। यूपी की 80 सीटों नें से एक, बिहार की 40 सीटों में से 1, मध्य प्रदेश की 28 सीटों में से 1 मिली थीं। अब पंजाब भी हाथ से निकल गया। किसने नवजोत सिंह सिदधू को प्रदेश अध्यक्ष बनाया और अपनी ही सरकार को उखाड़ने का मौका दे दिया? उन से जवाबतलबी क्यों न हो कि वह इतनी देर तमाशा क्यों देखते रहे?
पार्टी का भविष्य और भी उदास नजर आ रहा है। लोकतन्त्र का तक़ाज़ा है कि अगर नेता लगातार असफल रह रहा हो तो उसे हट जाना चाहिए और किसी और को काम करने देना चाहिए। सोनिया गांधी को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए और नया फ़ुल टाइम अध्यक्ष चुना जाना चाहिए। उन्होने कांग्रेस में जान डालने की बड़ी कोशिश की है। अब स्वीकार करने का समय आगया कि कि वह असफल हैं इसलिए ज़िम्मेवारी किसी और को दी जाए। मणिशंकर अय्यर जो राजीव गांधी के निकट रहें हैं ने भी कहा है कि, “पिछले 49 में से कांग्रेस 39 चुनाव हार गई है। कहीं तो ग़लती हुई होगी” । मेरा मानना है कि सब जानते हैं कि ग़लती कहाँ हुई है पर बिल्ली के गले में घंटी बाँधने की हिम्मत किसी में नही। कड़वी हक़ीक़त है कि कांग्रेस बूढ़ी और शिथिल हो चुकी है और गांधी परिवार चुनाव जीतने की अपनी क्षमता खो बैठा है। इसलिए पार्टी को नया नेतृत्व चाहिए। पर अगर कांग्रेस जन ख़ुद को इतना बेबस समझतें हैं कि गांधी परिवार का हाथ पकड़े बिना वह चल नही सकते तो उनके साथ जो घट रहा है वह इसी के लायक हैं।
कांग्रेस ख़ुद अब केवल राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता में है, झारखंड और महाराष्ट्र में गठबंधन में है। विपक्ष के परिदृश्य में भी कांग्रेस की जगह सिंकुड़ रही है। वह पार्टी नही रही जो विपक्ष का नेतृत्व कर सके। कई लोग तो कांग्रेस का शोक समाचार लिख रहें हैं। लेकिन देश को कांग्रेस की जरूरत है क्योंकि जैसे शरद पवार ने भी कहा है, यह एक मात्र पार्टी है जिसके कार्यकर्ता हर गाँव में है। पर यह कार्यकर्ता निराश और हताश है। कांग्रेस की जो लैफ्ट- लिबरल विचारधारा है उसके देश में अभी भी बहुत ख़रीददार है। भाजपा को नियंत्रण में रंखने के लिए मज़बूत विपक्षी पार्टी चाहिए। समस्या है कि लोगों का कांग्रेस के नेतृत्व में विश्वास नही रहा। नेतृत्व एक परिवार का ईश्वरीय अधिकार भी नही है। ज़माना बदल गया, भाजपा ने राजनीति बदल दी, तृणमूल कांग्रेस और आप जैसे नए चुस्त खिलाड़ी मैदान में उतर चुकें है जो कांग्रेस की राष्ट्रीय विकल्प की स्पेस संकुचित कर रहें है। कांग्रेस घिसेपिटे नेतृत्व और मनोनीत चमचों के बल पर मुक़ाबला करने की कोशिश कर रही है। पाँच राज्यों में पराजय के बाद अधीर रंजन चौधरी ने बताया था कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी पार्टी के लिए कोई भी बलिदान देने को तैयार है। पर देश इस कथित ‘बलिदान’ की इंतज़ार ही करता रहा !अगर पाँच प्रदेश अध्यक्षों से इस्तीफ़ा माँगा जा सकता है तो इस हालत के लिए केन्द्रीय नेतृत्व ख़ुद इस्तीफ़ा क्यों न दें?
सोनिया गांधी की देश में बहुत इज़्ज़त है। उन्होने पूरी गरिमा के साथ बहुत कुछ सहा है, बहुत बलिदान दिया है। उन्हे समझना चाहिए कि देश को कांग्रेस का जरूरत है पर उनके परिवार के नेतृत्व की नही। कांग्रेस में सबसे लम्बे समय से पदासीन अध्यक्ष से यह उम्मीद है कि राष्ट्रीय हित में वह पार्टी को परिवार के क़ब्ज़े से मुक्त कर देंगी। सोनियाजी, कम से कम यह निर्णय ज़रूर लीजिए और कांग्रेस को जीने दीजिए।