जब से रूस ने यूक्रेन पर हमला किया है पश्चिम के देशों, विशेष तौर पर अमेरिका, का हम पर बहुत दबाव है कि हम खुल कर उनका साथ दें और रूस की खुली निन्दा करें। पिछले दो महीनों में लगभग डेढ़ दर्जन विशिष्ट विदेशी महमान नई दिल्ली की यात्रा कर लौटें हैं। सब यूक्रेन पर वार्ता करना चाहते था। और यह सिलसिला जारी है। कूटनीतिज्ञों के लिए भारत टूरिस्ट डैसटीनेशन बना हुआ है। सबसे असभ्य अमेरिका के भारतीय मूल के डिप्टी रक्षा सलाहकार दिलीप सिंह रहे है जिन्होने भारत द्वारा रूसी तेल न ख़रीदने से इंकार करने पर यहां आकर खुलेआम हमें ‘भयानक परिणाम’ की चेतावनी दी थी।दिलीप सिंह का कहना था कि भारत को इस ग़लतफ़हमी में नही रहना चाहिए कि अगर चीन ने फिर अतिक्रमण किया तो रूस मदद के लिए आएगा।उनके रक्षा मंत्री लोयड औस्टिन का कहना था कि ‘ यह भारत के हित में नही है कि वह रूस से सैनिक सामान ख़रीदता रहे’। अमेरिका क्यों समझता है कि उसे ही मालूम है कि हमारे हित में क्या है? अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन यूक्रेन के बारे भारत केरुख़ को Somewhat Shakyअर्थात कुछ कुछ काँपता हुआ, करार चुकें हैं।
अमेरिका की समस्या है कि उन्हे धौंस जमानी बहुत आती है पर उनका प्रभाव पहले जैसा नही रहा। जी-20 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में जब अमेरिका के नेतृत्व में कुछ देशों ने रूस के मंत्री के भाषण का बहिष्कार किया तो आधे देशों, जिन मे भारत समेत चीन,ब्राज़ील, दक्षिण अफ़्रीका और इंडोनेशिया जैसे बड़े देश शामिल थे,ने बहिष्कार में हिस्सा नही लिया। पश्चिम का प्रेस कह रहा है कि ‘ रूस को अलग थलग करने के प्रयास को भारत कमजोर कर रहा है’। इन लोगो की तो नीति यह लगती है कि अगर हमसे प्यार करना है तो रूस से नफरत करो। भारत एक संप्रभुत्व देश है जिसका यूक्रेन में कुछ भी दाव पर नही। हम रूस को ‘अलग थलग’ करने की कार्यवाही का समर्थन क्यों करें? हम योरूप की लड़ाई में किसी का भी पक्ष क्यों लें? शताब्दियों से यह लोग एक दूसरे से लड़ते आ रहें हैं। दूरस्थ भारत से कहा जारहा है कि आप तटस्थ नही रह सकते। हमे बताया गया कि रूस की निन्दा न कर हम right side of history अर्थात इतिहास के सही कोने मेंनही होंगे। यह क्यों समझ लिया गया है कि पश्चिम के यह कुछ देश ही तय करेंगे कि इतिहास क्या कहेगा ? बार बार शब्द world का इस्तेमाल किया जा रहा है कि जैसे अमेरिका+योरूप ही दुनिया हैं। योरूप की जनसंख्या 77 करोड़ है जबकि भारत की 138 करोड़ है। वह हमें चलाएँगे?
साम्राज्यवाद के दिन लद गए पर मानसिकता सही नही हुई। भारत अपना हित क्यों न देखे? राष्ट्रीय हित में हम दृढ़ हैं कुछshaky नही है। अब तो इमरान खान ने भी हमारी विदेश नीति को ‘खुद्दार’ कह दिया है। शिकायत है कि हम रूस से सस्ता तेल मँगवा रहें हैं जबकि योरूप के देश खुद भी वहां से तेल मँगवा रहे हैं। इसे योरूप की मजबूरी बताया जा रहा है। इस आलोचना से तंग आकर विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिका के विदेश मंत्री की उपस्थिति में जवाब दिया कि ‘भारत जितना तेल एक महीने में मंगवाता है उतना तो योरूप आधे दिन में मंगवा लेता है’। जब ब्रिटेन की मंत्री लिज़ ट्रैस ने भारत को समझाने की कोशिश की तो जयशंकर ने स्पष्ट बता दिया कि युद्ध के शुरू होने के बाद मार्च में योरूप के देशों ने रूस से 15 प्रतिशत अधिक तेल मँगवाया है। योरूपियन यूनियन ने स्वीकार किया है कि उसनेरूस से तेल लेने पर 35 अरब डालर ख़र्च किए हैं जबकि यूक्रेन को केवल 1 अरब डालर का सैनिक सामान भेजा गया। ऐसा क्यों हो रहा है यह भी स्पष्ट है। पश्चिम के देशों, विशेष तौर पर अमेरिका, की दिलचस्पी यूक्रेन में इतनी नही जितनी रूस की पीठ लगाने में हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के शब्दों में यह कड़वाहट नजर भी आती है कि उन्हे पूरा समर्थन नही मिल रह। उन से तो कहा गया है कि ‘चढ़ जा बच्चा सूली पर भगवान भली करेंगे’! जेलेंस्की पश्चिम के आश्वासनों के कारण फँस गए हैं। वह तबाह हो गए। लाखों लोग बेघर हो चुकें हैं, हज़ारों मारे गए है। और अभी युद्ध का अंत नजर नही आता।
पर हमे लैक्चर दिए गए। इस धौंस से परेशान हो कर भारत ने बराबर जवाब देना शुरू कर दिया है। जब अमेरिका के विदेश मंत्री के साथ पत्रकार सम्मेलन में उनसे भारत में मानव अधिकारों के बारे प्रश्न किया गया तो जयशंकर का जवाब था कि पहले यह बताइये कि आपके देश में मानवाधिकारों का क्या हाल है? अमरीकियों की पुरानी आदत है कि जब भारत को दबाना होता है तो वह मानवाधिकार की बात उछाल देते हैं पर बराबर जवाब देकर जयशंकर ने बता दिया कि हम और ताने बर्दाश्त करने को तैयार नही। अमेरिका के उप रक्षा सलाहाकार के अभद्र व्यवहार का जवाब अगले ही दिन रूस के विदेश मंत्री सरजे लवरोव की प्रधानमंत्री मोदी को साथ मुलाक़ात करवा दे दिया गया। लवरोव एक मात्र विदेश मंत्री थे जिन से मोदी की मुलाक़ात करवाई गई। दोनो की मुस्कुराते हुए तस्वीर प्रकाशित करवाई गई। संदेश पहुँच गया कि राष्ट्रीय हित में भारत टस से मस नही होगा। तब अचानक पश्चिम का सुर बदल गया। पहले आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मोरिसन ने कहा कि ‘यूक्रेन पर भारत की स्थिति समझ आती है’, अब अपनी भारत यात्रा के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा है कि,‘भारत का रूस के साथ एतिहासिक रिश्ता है जो सब समझतें है और उसका सम्मान करते है’।
‘सब समझते हैं’, सही नही। पहले तो वह यह प्रभाव दे रहे थे कि जो उनके साथ नही, वह दुष्मन समझा जाएगा। पर अब पश्चिम के अक्खड़ देशों को समझ आगया कि उनके पास दूसरे देशों की नीतियों पर वीटो नही है। भारत की अपनी समस्या है कि हमे चीन का सामना करना है। हमारे हित में नही कि रूस चीन का दुमछल्ला बन जाए। भारत की दृढ़ता अमेरिका को अब समझ आ गई है। कुछ सप्ताह पहले तक जो भारत की तटस्थ नीति पर बड़बड़ा रहे थे अब ‘साँझे मूल्यों’ की बात कर रहें हैं। भारत की नीति में परिवर्तन नही आया। हम अभी भी रूस से तेल मँगवा रहें हैं और रूस की खुली निन्दा करने से इंकार कर रहे है पर अमेरिका नरम पड़ गया।इस पर सीएनएन में रिया मोगल और सिमोन मैककारथी ने दिलचस्प टिप्पणी की है,Analyst say, India just taught West masterclass in diplomacy अर्थात विश्लेषक समझतें हैं कि भारत ने पश्चिम को कूटनीति का महापाठ पढा दिया !
हर देश की विदेश नीति अपने हित पर आधारित होती है। हमसे यह आशा नही रखी जानी चाहिए कि पश्चिम के दबाव में हम रूस से झगड़ा ले लेंगे और अपने हित को क़ुर्बान कर देंगे। हमारा अपना इतिहास साक्षी है कि पश्चिम के देश बहुत विश्वसनीय नही है। रूस के साथ हमारा 50 साल का रिश्ता है इस दौरान अमेरिका हमारे दुष्मनों को सैनिक सामान देता रहा। चीन को बड़ी ताकत बनाने में भी उनका बड़ा हाथ है, चाहे अब वह पछता रहें हैं। हम सैनिक सामान के लिए रूस पर निर्भर है। अब हम दूसरे देशों से भी मंगवाने लगे है पर अभी भी हमारी सैनिक ज़रूरतें का46 प्रतिशत रूस पूरी करता हैं। पहले रूस 69 प्रतिशत पूरी करता था। हमारे सैन्य शस्त्रागार का 70 प्रतिशत रूसी है। अगर हम इस स्थिति में हैं कि हम ब्रहमोस मिसाइल निर्यात कर रहें है तो यह रूस के सहयोग से है। इस वक़्त वह हमे डिसकाउंट पर तेल दे रहा है। हमारी सीमा पर चीन और पाकिस्तान से खतरा है। हमें हिमालय की सुरक्षा के लिए रूसी सैनिक सामान चाहिए और हम नही चाहते कि रूस बिलकुल चीन के कैम्प में चला जाए।
यह नही कि रूस की यूक्रेन में कार्यवाही का समर्थन हो सकता है। पुतिन यहां बेवक़ूफ़ी कर गए हैं जिसकी रूसी
को बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, पर यह उनकी बेवकूफी है। हमारा हित है कि हम तटस्थ रहे। अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते घनिष्ठ होते जा रहें हैं, जो क्वाड में हमारे शामिल होने से पता चलता है। बार बार 2+2 वार्ता हो रही है।हमे यह भी अहसास है कि रूस की पुरानी ताकत नही रही और अब प्रतिबंध लगने के बाद वह और कमजोर हो जाऐंगे। चीन को लेकर अमेरिका और भारत का नज़रिया एक सा है कि वह दुनिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। अमेरिका भी जानता है कि इस क्षेत्र में चीन के प्रभाव को केवल भारत ही रोक सकता है और हम भी जानते हैं कि चीन का सामना करने के लिए हमें अमेरिका और उसके साथी देशों के सहयोग की जरूरत है। हमे यह भी अहसास है कि देश की आर्थिक तरक़्क़ी के लिए हमें पश्चिम के देशों की जरूरत है। अमेरिका के साथ हमारा व्यापार 110 अरब डालर का है जबकि रूस के साथ यह मात्र 8 अरब डालर का है। लेकिन हमारा अधिकार है कि हम आजाद विदेश नीति रखें।
एक प्रकार से हम फिर गुट निरपेक्ष की नीति में लौट आए हैं। जो टकराव हमारा नही उसके बारे हमे दीवाना होने की जरूरत नही। हमे दोनो अमेरिका और रूस की दोस्ती चाहिए। हमारी विदेशी नीति के मूल सिद्धांतों की भी पुष्टि हो गई है कि हम उन महाशक्तियाँ के साथ बराबर दोस्ती रख सकतें हैं जो आपस में भिड़ रही हों। लंडन के किंग्स कॉलेज के प्रो. हर्ष पंत का सही कहना है कि इस वक़्त सब भारत को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहें हैं। यूक्रेन संकट में संतुलन कायम रखते हुए हमारी कूटनीति प्रभावशाली रही है।