पैग़म्बर मुहम्मद साहब पर भाजपा के पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल द्वारा कहे गए अपशब्दों के बाद देश में मुसलमानों के व्यापक प्रदर्शन हुए है। कश्मीर से कोलकाता तक प्रदर्शनों का समाचार है। शांतिमय प्रदर्शनों पर किसी को आपत्ति नहीं पर जुमा की नमाज़ के बाद कई जगह हिंसा और आगज़नी के समाचार हैं। कुछ जगह फ़ायरिंग और मौतों की भी खबर है। कई जगह मुस्लिम नेताओं को शान्ति की अपील करते देखा गया है पर बहुत जगह भड़काऊ भाषण दिए गए। नूपुर शर्मा को ‘सर तन से जुदा’ करने की धमकी दी गई। असादूद्दीन ओवेसी की पार्टी के एक सांसद ने तो सरेआम फांसी लगाने की माँग की है। यह कैसे जायज़ है? उसने ग़लत किया और अपनी बदतमीज़ी के कारण देश को अनावश्यक रक्षात्मक बना दिया। सरकार ने नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल समेत कई और लोगों पर एफ़आइआर दर्ज की है। फिर ऐसी हिंसा का क्या औचित्य है? यह भी अजीब है कि नूपुर की टिप्पणी 26 मई की है और हिंसा पन्द्रह दिन के बाद 10 जून को भड़की है।
अफ़सोस है कि हमारे देश में भीड़तंत्र हावी हो रहा हो। केवल मुसलमानों में ही नहीं सब समुदाय और वर्गों के लोग उग्र बनने को तैयार रहते हैं। हमें दुनिया को लेक्चर बहुत देतें हैं पर खुद विश्वगुरु बहुत जल्द भड़कने को तैयार हो जाता है। यह भी चिन्ता की बात है कि दोनों प्रमुख समुदायों के बीच संवाद बिल्कुल टूट गया है। सिविल सोसायटी का ढाँचा फट रहा है। एक शख़्स नहीं जिसकी बात सुनने को सब तैयार हों। एक शख़्स नहीं जो राजनीति से उपर उठ कर देश हित में भाईचारा क़ायम करवाए। जिन्हें नाज है हिन्द पर वह कहां हैं ! संघ प्रमुख मोहन भागवत बार बार दिशा सही करने की कोशिश कर रहें हैं पर ज़मीन पर असर नहीं हो रहा। वह कह चुकें हैं कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूँढने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। एक प्रकार से उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि संघ किसी मंदिर को लेकर और आंदोलन शुरू करने के पक्ष नें नहीं है। पिछले साल उन्होंने कहा था कि हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक जैसा है। 2018 के एक भाषण में उन्होंने कहा था कि मुसलमानों के बिना हिन्दू राष्ट्र नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री मोदी ने भी जयपुर में पार्टी के पदाधिकारियों के साथ मीटिंग में चेतावनी दी थी कि नेता ऐसा कुछ न करें जिससे पार्टी का एजेंडा कमज़ोर पड़े या रक्षात्मक होना पड़े। वह सदा ‘सबके विश्वास’ की बात करतें है। न ही भाजपा या संघ के किसी नेता ने पैग़म्बर मोहम्मद या ईसा मसीह के खिलाफ ही कभी कुछ कहा है। फिर देश में इतना तनाव क्यों है?
इसका एक कारण है कि भाजपा ने अपने नाम पर बोलने वालों को नियंत्रण में नहीं रखा। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि ‘निर्वाचित जन प्रतिनिधि, राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की हेट स्पीच… के खिलाफ कठोर कार्रवाई होनी चाहिए’। कई नेताओं और प्रवक्ताओं ने देश में विषैला वातावरण बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। कई बार समझाया गया, कई बार चेतावनी दी गई, पर असर नहीं हुआ क्योंकि कार्यवाही नहीं हुई इसलिए ऐसे तत्व बेधड़क हो गए। जब धर्म संसद में एक वर्ग विशेष के खिलाफ उत्तेजक धमकियाँ दी गई तो सरकार ने कोई कारगर कार्यवाही नहीं की। प्रवक्ताओं को बार बार गाइडलाइन्स दी गई जिनका उन्होंने इत्मिनान से उल्लंघन किया। परिणाम है कि हम यहां पहुँच गए जहां पहली बार सरकार को दुनिया की जाँच की तीखी नज़र से गुजरना पड़ा रहा है। भाजपा की तरफ़ से बोलने वालों ने देश का कितना अहित किया है उसका उन्हें अंदाज़ा हो गया होगा।
एक और संस्था जिसने देश को नफ़रत की आग में धकेलने में बड़ी भूमिका निभाई है वह मीडिया का एक वर्ग है जिसने दरारें चौड़ी करना अपना धर्म बना लिया है। सब बहस हिन्दू -मुसलमान और मंदिर – मस्जिद पर टिक जाती है। महंगाई, बेरोज़गारी और लोगों की रोजमर्रा की जो तकलीफ़ें है उन्हें नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। मैंने खुद 40 साल पत्रकारिता की है इसलिए प्रैस और मीडिया की आज़ादी का पूरा समर्थक हूँ पर मैं यह भी समझता हूँ कि मीडिया की भी लक्ष्मण रेखा है। वह देश में आग नहीं लगा सकते या देश को उस तरफ़ धकेल नहीं सकते जहां नफ़रत और अराजकता है। हमारी टीवी डिबेट में संवाद के स्तर में भारी गिरावट आई है। दो वर्गों के क्रुद्ध प्रतिनिधियों को बुला कर भिड़ाया जाता है जो कई बार नियंत्रण और मर्यादा की सीमा लांघ जाता है जैसे नूपुर शर्मा के मामले में हुआ है। बहस होनी चाहिए लेकिन यह स्वस्थ और तार्किक होनी चाहिए। विभिन्न विचार सामने आने चाहिए, आख़िर यह लोकतंत्र है। पर जो लक्ष्मण रेखा पार करते हैं उन्हें दूर रखा जाना चाहिए। एक दो चैनल ऐसे भी हैं जो कई बार स्क्रीन पर आग की लपटें दिखाते है। आग लगानी कहाँ है? यहां तो ऐसी नाज़ुक स्थिति है कि एक टीवी डिबेट में की गई लापरवाह टिप्पणी के कारण सारे देश में तनाव फैल गया था।
पहले अधिक ज़ोर विभिन्न दलों के प्रवक्ताओं को बुला कर लड़ाने पर लगाया जाता रहा। विरोधी पार्टियों के प्रवक्ताओं को बुला लो वह खुद भिड़ जाएँगे और एंकर महोदय को कुछ करने का ज़रूरत नहीं रहेगी। यूट्यूब पर एक बहस का वीडियो उपलब्ध हैं जहां यही नूपुर शर्मा अपने बाप की आयु वाले शरीफ़ मुख़ालिफ़ को यह कहती सुनी जा सकती है, ‘बिलकुल बूढ़े जीर्ण आदमी…इस पृथ्वी पर तुम अपने दिन गिन रहे हो…बेअकल, तुम बुड्ढे हो रहे हो…ओह शट अप, शट अप बेवक़ूफ़…तुम असभ्य आवारा हो…अपने दिल का ख़्याल कर, सड़क छाप बुड्ढे…’। जब वह चीख रही थी तो उसे रोकने की जगह एंकर महोदय यह दिखावा कर रहे थे कि वह काग़ज़ों में बिज़ी हैं। हैरानी है कि पार्टी में भी किसी ने उसे मर्यादा सिखाने की कोशिश नहीं की। यह भी नहीं देखा कि इस महिला का अपने पर कोई नियंत्रण नहीं है और एक दिन बड़ा नुक़सान कर देगी। संस्कार कहा गए ?सुशांत सिंह राजपूत और आर्यन खान के मामले में भी हमने देखा कि किस तरह सनसनी की तलाश में कुछ चैनलों ने नए नए ‘तथ्य’ घढ़ने शुरू कर दिए। सुशांत सिंह राजपूत की आत्म हत्या को हत्या तक प्रस्तुत किया गया। एक चैनल ने तो बाक़ायदा उसका रूपांतरण पेश किया कि हत्यारा इधर से आया उधर गया, इत्यादि। इसी प्रकार आर्यन खान को अंतराष्ट्रीय ड्रग्स रैकेट के साथ जोड़ने की कोशिश की गई। आज वह और शाहरुख़ खान पूछ रहे हैं कि लड़के को किस बात की सजा दी गई?
कुछ चैनलों द्वारा रुस -उक्रेन युद्ध तथा दिल्ली में हुए दंगो में कवरेज को लेकर सरकार द्वारा ‘सख़्त एडवाइज़री’ जारी की गई कि उकसाने वाली और असंसदीय भाषा का प्रयोग न किया जाए। यह भी बताया गया कि दंगों के बारे अधिकारियों की कार्यवाही को साम्प्रदायिक रंगत दी गई। यह भी शिकायत थी कि परिचर्चा के दौरान असंसदीय , उकसाने वाली और समाजिक तौर पर अस्वीकार्य भाषा का इस्तेमाल किया गया। यह गाइडलाइन तो सही है, पर इन पर अमल भी हो रहा है? अगर होता तो नूपुर शर्मा इस तरह न भड़कती। आभास यह मिलता है कि एडवाइज़री जारी कर मामला दाखिल दफ़्तर कर दिया गया। टीवी चैनलों पर शोर शराबा खड़ा करना स्वीकार है जब तक इसका नुक़सान न हो। पर अब तो लोगों को लड़ाने और साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने का भी काम किया जा रहा है। समाजिक ताना बाना कमजोर किया जा रहा है। शो पर ऐसे लोगों को बुलाया जाता है जो तर्क की बात करने की जगह जज़्बात भड़काने की कोशिश करते हैं। अब नया तमाशा शुरू कर लिया गया है। कहीं से एक मुल्ला ले आएँगे तो कहीं से कोई महंत पकड़ लाएँगे। फिर उनको लड़वाया जाएगा। अपनी टीआरपी के कारण देश में साम्प्रदायिक तनाव फैलाया जाएगा।
पिछले साल नवम्बर में दिल्ली हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि लोग मीडिया से डरे हुए हैं और दूरदर्शन युग बेहतर था। उन्होंने दो चैनलों से जवाब भी माँगा था। तब से लेकर, इन दो चैनलों समेत, हालत बदतर ही हुए हैं। कई चैनल बेपरवाह और बेधड़क हो चुके हैं। इसीलिए देश में इतना विषैला अविश्वास का वातावरण बना हुआ है। मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि थी कि इनके शासन काल में दंगे नहीं हुए। यह उपलब्धि कमजोर पड़ती जा रही है। बाहर बैठे दुष्मण ख़ुश हैं और दोस्त चिन्तित हैं। इसके कई दुष्परिणाम निकल सकते हैं। देश वहीं तरक़्क़ी करता है जहां शान्तिपूर्ण माहौल हो। सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भी कहा है कि ‘हमें निवेश के लिए समाजिक सद्भावना और स्थिर अंतराष्ट्रीय सम्बन्ध चाहिए’। हिन्दू और मुस्लिम समुदायों में जो दरारें नज़र आने लगी हैं वह बहुत ग़लत समय हो रहा है जब देश को चारों तरफ़ से चुनौती मिल रही है। सरकार और विपक्ष के बीच भी अविश्वास चरम पर है। इससे साम्प्रदायिक तनाव और बढ़ेगा।
एक समुदाय विशेष को अलग कर समाजिक समरसता नहीं मिल सकती। हाल की घटनाएँ इस बात की गवाह है कि अगर नफ़रत फैलाने वालों पर रोक न लगाई गई तो कैसा और कितना नुक़सान हो सकता है। संघ परिवार के एक मुखर वर्ग से नूपुर शर्मा को जो समर्थन मिला है उससे भी भाजपा के नेतृत्व को सावधान हो जाना चाहिए। सिद्धू मूसावला के पिता ने उसके भोग पर मार्मिक अपील की है कि ‘पंजाब को बचा लो’। यही स्थिति हमारे समाज की बन रही है। बचाने की ज़रूरत है। हमें उस तरफ़ धकेला जा रहा है जहां विनाश है। आपसी अविश्वास बढ़ता जा रहा है। लेकिन यह हम नहीं हैं। सदियों से भारत भूमि ने नए लोगों और नए विचारों का स्वागत किया है। अपनी संस्कृति के मूल तत्वों को सम्भालते हुए नए नए सही विचारों का स्वागत किया है। हमारा विश्वास उस आचार संहिता में है जो सब को अपने मुताबिक़ जीने की जगह देता है। विदेशी हमलों के बावजूद हमारी मूल आस्थाएँ सही रही है। अब उन से छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। नेतृत्व को आगे आकर दिशा सही करनी चाहिए।
बहुत समय के बाद ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा, सुर बने हमारा’, सुनने का मौक़ा मिला। भारत रत्न भीमसेन जोशी की बुलंद आवाज़ से शुरू हो कर कई बढ़िया कलाकारों ने इसे अमर गीत बना दिया है। सोचता हूँ आज कौन यह गीत गाएगा ? आज तो देश का सुर ही बिगड़ा हुआ है।